दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1:- सिंधु घाटी सभ्यता की विशेषताओं पर विस्तार से चर्चा करें। इस सभ्यता की नगर योजना, सामाजिक व्यवस्था, व्यापारिक गतिविधियों और धर्म के बारे में जानकारी प्रदान करें।
उत्तर:-सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्राचीन और विकसित सभ्यताओं में से एक है, जिसका विकास लगभग 3300 ईसा पूर्व से 1300 ईसा पूर्व के बीच हुआ। इसे “हड़प्पा सभ्यता” के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इसका पहला प्रमुख स्थल हड़प्पा (अब पाकिस्तान में स्थित) था, जो 1920 में खोजा गया था। सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के किनारे फैली इस सभ्यता के क्षेत्र में आज का पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिमी भारत आता है।
इस सभ्यता ने नगर योजना, सामाजिक व्यवस्था, व्यापार और धार्मिक आस्थाओं के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिससे यह न केवल भारतीय इतिहास में बल्कि विश्व इतिहास में भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस लेख में हम सिंधु घाटी सभ्यता की प्रमुख विशेषताओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे, जिनमें नगर योजना, सामाजिक व्यवस्था, व्यापारिक गतिविधियाँ और धर्म शामिल हैं।
सिंधु घाटी सभ्यता की विशेषताएं
1. नगर योजना (Town Planning)
सिंधु घाटी सभ्यता की नगर योजना को उसकी सबसे प्रमुख और उल्लेखनीय विशेषता माना जाता है। इस सभ्यता के नगरों की योजना और वास्तुकला इतनी उन्नत थी कि यह आधुनिक समय की नगर योजनाओं की तुलना में भी प्रेरणादायक है।
1.1. संगठित ढांचा (Organized Layout)
सिंधु घाटी के नगरों की संरचना अत्यंत सुव्यवस्थित थी। यहाँ की बस्तियों को एक ग्रिड पैटर्न में बनाया गया था, जहाँ सड़कें एक-दूसरे को समकोण (Right Angle) पर काटती थीं। सड़कें मुख्यतः उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम दिशा में फैली हुई थीं, जिससे नगर को चार भागों में विभाजित किया गया था।
1.2. किलेबंदी (Fortification)
नगर दो भागों में विभाजित होते थे: गढ़ (Citadel) और निचला नगर (Lower Town)। गढ़ को ऊँचे स्थान पर बनाया जाता था और इसे मजबूत दीवारों से घेरा जाता था। यह मुख्यतः प्रशासनिक और धार्मिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता था। निचला नगर आम नागरिकों के रहने के लिए होता था, जहाँ आवासीय क्षेत्रों की व्यवस्था होती थी।
1.3. जल निकासी प्रणाली (Drainage System)
सिंधु घाटी सभ्यता की जल निकासी प्रणाली अद्वितीय और उत्कृष्ट थी। हर घर से एक निकास नाली जुड़ी होती थी, जो मुख्य सड़क के नीचे बनी भूमिगत नालियों में खुलती थी। नालियों की नियमित सफाई होती थी, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि नगर में जलभराव न हो।
1.4. ईंटों का प्रयोग (Use of Bricks)
इस सभ्यता में पकी हुई ईंटों (Burnt Bricks) का उपयोग होता था, जो एकरूपता और मजबूत संरचना का प्रतीक था। इससे पता चलता है कि उस समय निर्माण कार्य के लिए उन्नत तकनीकों का उपयोग किया जाता था।
2. सामाजिक व्यवस्था (Social Structure)
सिंधु घाटी सभ्यता की सामाजिक व्यवस्था बहुत ही संगठित और परिष्कृत थी। हालांकि इस बारे में लिखित दस्तावेज नहीं मिले हैं, लेकिन पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह समझा जा सकता है कि यहाँ समाज में एक स्पष्ट विभाजन था।
2.1. शहरी समाज (Urban Society)
सिंधु घाटी सभ्यता में एक उन्नत शहरी समाज का संकेत मिलता है। यहाँ की आबादी मुख्यतः शहरों और बस्तियों में बसी हुई थी। यहाँ समाज का संगठन बहुत ही सुव्यवस्थित था, जिसमें विभिन्न सामाजिक वर्गों का उल्लेख मिलता है।
2.2. वर्ग विभाजन (Class Division)
सिंधु घाटी के समाज में लोगों के बीच एक प्रकार का वर्ग विभाजन था, जिसमें व्यापारी, कारीगर, किसान और श्रमिक शामिल थे। व्यापारियों और शासकों का विशेष महत्व था, क्योंकि वे समाज के प्रशासन और व्यापारिक गतिविधियों की देखरेख करते थे।
2.3. घरों की संरचना (Housing)
यहाँ के घर ईंटों के बने होते थे और दो या तीन मंजिल तक ऊँचे होते थे। घरों में आँगन, स्नानघर और जल निकासी की व्यवस्था होती थी। इससे पता चलता है कि लोग स्वच्छता और निजी आराम का ध्यान रखते थे।
3. व्यापारिक गतिविधियाँ (Trade and Commerce)
सिंधु घाटी सभ्यता एक समृद्ध और व्यापारिक सभ्यता थी, जिसका व्यापारिक नेटवर्क बहुत विस्तृत था। यहाँ के लोग न केवल स्थानीय व्यापार में बल्कि दूर-दराज के क्षेत्रों के साथ भी व्यापारिक संपर्क में थे।
3.1. घरेलू और विदेशी व्यापार (Domestic and Foreign Trade)
सिंधु घाटी के लोग वस्त्र, आभूषण, मिट्टी के बर्तन, तांबे और कांसे के उपकरण आदि का उत्पादन और व्यापार करते थे। व्यापार के लिए सिंधु नदी और समुद्री मार्ग का उपयोग किया जाता था। विदेशी व्यापार के संकेतक मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक), फारस (आधुनिक ईरान) और अफगानिस्तान से प्राप्त हुए हैं। यह प्रमाणित करता है कि सिंधु सभ्यता के व्यापारी सुमेरियन सभ्यता के साथ व्यापार करते थे।
3.2. मुद्रा और लेन-देन (Currency and Transaction)
हालाँकि इस सभ्यता में मुद्रा के उपयोग के ठोस प्रमाण नहीं मिले हैं, लेकिन व्यापार में वस्तु विनिमय प्रणाली (Barter System) का उपयोग किया जाता था। मुद्रा के रूप में ‘मृदभांड मुद्रा’ और मुहरों (Seals) का भी उपयोग होता था, जिन पर पशु चित्र और लेख खुदे होते थे।
3.3. व्यापारिक केंद्र (Trading Centers)
सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख व्यापारिक केंद्रों में मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल, कालीबंगन और धोलावीरा शामिल थे। लोथल एक प्रमुख बंदरगाह नगर था, जो समुद्री व्यापार का केंद्र था। यहाँ से प्राप्त डॉक्स और गोदाम इस बात का प्रमाण हैं कि यहाँ से बड़े पैमाने पर व्यापारिक गतिविधियाँ होती थीं।
4. धर्म और धार्मिक विश्वास (Religion and Beliefs)
सिंधु घाटी सभ्यता के धर्म के बारे में प्रत्यक्ष रूप से लिखित साक्ष्य नहीं मिले हैं, लेकिन पुरातात्त्विक खुदाइयों से इस समय के धार्मिक विश्वासों की झलक मिलती है।
4.1. मूर्तिपूजा (Idol Worship)
मृण्मूर्तियों (Terracotta Figurines) के अवशेष बताते हैं कि इस सभ्यता में मूर्तिपूजा का प्रचलन था। यहाँ के लोग पशुपति (भगवान शिव के रूप) और मातृ देवी की पूजा करते थे। मातृ देवियों की मूर्तियाँ यह संकेत देती हैं कि लोग मातृशक्ति की उपासना करते थे, जो उर्वरता और जीवनदायिनी शक्ति का प्रतीक है।
4.2. जल और वृक्षों की पूजा (Worship of Water and Trees)
सिंधु घाटी के लोग जल को पवित्र मानते थे और इसे जीवनदायिनी शक्ति के रूप में पूजते थे। इसके अलावा, वृक्ष और पशु जैसे पीपल का वृक्ष, साँड, और एक सींग वाला जानवर (यूनिकॉर्न) भी धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण थे।
4.3. यज्ञ और अनुष्ठान (Rituals and Ceremonies)
इस सभ्यता के लोग यज्ञ और अनुष्ठान करते थे, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि ये अनुष्ठान कैसे होते थे। जल के प्रति उनकी धार्मिक आस्था का प्रमाण ग्रेट बाथ (मोहनजोदड़ो में स्थित) है, जिसे धार्मिक स्नान और अनुष्ठान के लिए प्रयोग किया जाता था।
5. लिपि और लेखन प्रणाली (Script and Writing)
सिंधु घाटी सभ्यता में एक अद्वितीय लिपि का विकास हुआ था, जो अभी तक पूरी तरह से पढ़ी नहीं जा सकी है। इस लिपि के चिन्ह मुख्यतः मुहरों, बर्तनों और अन्य वस्त्रों पर मिले हैं। यह लिपि चित्रात्मक थी, जो संकेत करती है कि लोग व्यापार और प्रशासन के लिए लेखन का उपयोग करते थे।
निष्कर्ष (Conclusion)
सिंधु घाटी सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप की पहली महान शहरी सभ्यता थी, जिसने उन्नत नगर योजना, व्यवस्थित सामाजिक ढाँचा, समृद्ध व्यापारिक गतिविधियाँ और अनूठी धार्मिक परंपराओं का विकास किया। इसकी नगर योजना, जिसमें सुव्यवस्थित सड़कें, जल निकासी प्रणाली और मजबूत भवन निर्माण शामिल थे, उस समय की उत्कृष्टता और तकनीकी उन्नति को दर्शाता है।
इस सभ्यता ने न केवल भारतीय उपमहाद्वीप में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी प्रभाव छोड़ा। आज भी पुरातात्त्विक खुदाइयों से प्राप्त अवशेष इस सभ्यता की समृद्धि और उन्नति की गाथा कहते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता की विशेषताएं हमें यह सिखाती हैं कि कैसे मानव ने हजारों साल पहले शहरीकरण, व्यापार और सामाजिक व्यवस्था की जटिलताएँ विकसित कीं, जो आज के समाज के निर्माण में सहायक सिद्ध हुईं। इस सभ्यता के अध्ययन से न केवल हमारे प्राचीन इतिहास का ज्ञान बढ़ता है, बल्कि यह भी स्पष्ट होता है कि हमारी सभ्यता की जड़ें कितनी समृद्ध और उन्नत थीं।
प्रश्न 2:- वैदिक और उत्तर वैदिक काल की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था में क्या अंतर था? इन दोनों कालों की प्रमुख विशेषताओं पर विस्तार से लिखें।
उत्तर:- भारत का वैदिक काल (लगभग 1500 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व) भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण युग है, जो प्राचीन संस्कृत साहित्य वेदों पर आधारित है। वैदिक काल को दो मुख्य भागों में विभाजित किया जाता है: आरंभिक वैदिक काल (1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व) और उत्तर वैदिक काल (1000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व)। दोनों कालों की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण अंतर था। इस लेख में हम इन दोनों युगों की प्रमुख विशेषताओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे और यह समझने की कोशिश करेंगे कि उनके बीच क्या अंतर थे।
1. सामाजिक व्यवस्था
आरंभिक वैदिक काल की सामाजिक व्यवस्था:
आरंभिक वैदिक समाज मुख्य रूप से जनजातीय और गान्य था, जिसमें परिवार और कुल (कबीले) का बड़ा महत्व था। इस काल में समाज समानता और स्वतंत्रता पर आधारित था। उस समय समाज में स्त्रियों को उच्च स्थान प्राप्त था, वे धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेती थीं और उन्हें शिक्षा प्राप्त करने की स्वतंत्रता भी थी। परिवार की संरचना पितृसत्तात्मक थी, लेकिन फिर भी महिलाओं को काफी अधिकार प्राप्त थे। समाज को वर्णों में विभाजित किया गया था, लेकिन यह विभाजन कठोर नहीं था और वर्णों के बीच में गतिशीलता संभव थी। इस समय के चार प्रमुख वर्ण थे – ब्राह्मण (पुजारी और शिक्षक), क्षत्रिय (योद्धा), वैश्य (व्यापारी और किसान) और शूद्र (सेवा करने वाले)।
उत्तर वैदिक काल की सामाजिक व्यवस्था:
उत्तर वैदिक काल में समाज की संरचना में काफी बदलाव देखने को मिला। इस काल में वर्ण व्यवस्था कठोर और स्थिर हो गई, जिसका अर्थ था कि किसी व्यक्ति का जन्म जिस वर्ण में हुआ, वह उसी में बने रहने के लिए बाध्य था। सामाजिक स्तर पर ब्राह्मणों की स्थिति सबसे ऊंची मानी जाती थी और वे धार्मिक अनुष्ठानों पर एकाधिकार रखते थे। इस काल में महिलाओं की स्थिति में भी गिरावट आई। अब उन्हें शिक्षा और धार्मिक अनुष्ठानों में उतना अधिकार प्राप्त नहीं था जितना आरंभिक वैदिक काल में था। विवाह की प्रथाएं भी बदल गईं और बहु विवाह की प्रथा का विकास हुआ। कुल मिलाकर, सामाजिक विभाजन और असमानता बढ़ी और समाज में वर्ण व्यवस्था को धार्मिक आधार पर मजबूती मिली।
2. आर्थिक व्यवस्था
आरंभिक वैदिक काल की आर्थिक व्यवस्था:
आरंभिक वैदिक काल में लोगों की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि, पशुपालन और व्यापार पर निर्भर थी। इस समय समाज में लोगों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। गाय, बैल, और भेड़ पालना आम बात थी, और गायों को धन का प्रतीक माना जाता था। कृषि भी एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि थी, लेकिन यह प्रमुख नहीं थी। आरंभिक वैदिक लोगों ने लोहे के औजारों का प्रयोग करना शुरू नहीं किया था, इसलिए कृषि गतिविधियाँ सीमित थीं। व्यापार मुख्य रूप से वस्त्र, धातु और अनाज का होता था और यह घरेलू स्तर पर ही सीमित था।
उत्तर वैदिक काल की आर्थिक व्यवस्था:
उत्तर वैदिक काल में कृषि ने अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार बन लिया। लोहे के औजारों का उपयोग शुरू होने से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई और समाज स्थायी रूप से बसने लगा। अब लोग बड़ी संख्या में खेती करने लगे, और फसलों की पैदावार भी बढ़ी। अनाज के अलावा अब गेहूं, चावल, जौ, और दलहन जैसी फसलों की भी खेती की जाने लगी। इसके अलावा, व्यापारिक गतिविधियाँ भी विस्तार पाने लगीं। व्यापार में वस्त्र, धातु, घोड़े और गहनों का लेन-देन होता था। इस काल में विभिन्न आर्थिक गतिविधियों के कारण श्रमिकों और व्यापारियों की नई श्रेणियाँ भी उभर कर सामने आईं। इस काल के दौरान व्यापार ने साम्राज्य विस्तार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
3. धार्मिक व्यवस्था
आरंभिक वैदिक काल की धार्मिक व्यवस्था:
आरंभिक वैदिक धर्म मुख्य रूप से प्रकृति पूजक था। इस काल के लोग अग्नि, सूर्य, वायु, वरुण, इंद्र आदि प्रकृति देवी-देवताओं की पूजा करते थे। धार्मिक अनुष्ठान सरल और सामूहिक होते थे और यज्ञ का महत्वपूर्ण स्थान था। वेदों में यज्ञों का बहुत विस्तार से वर्णन है और यज्ञ के माध्यम से देवी-देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता था। धार्मिक अनुष्ठानों में ऋग्वेद के मंत्रों का पाठ किया जाता था और समाज के सभी लोग इसमें भाग ले सकते थे। इस समय के धर्म में व्यक्तिगत पूजा की अपेक्षा सामूहिक अनुष्ठानों का अधिक महत्व था।
उत्तर वैदिक काल की धार्मिक व्यवस्था:
उत्तर वैदिक काल में धार्मिक व्यवस्था जटिल और औपचारिक हो गई। इस काल में ब्राह्मणों की धार्मिक अनुष्ठानों पर एकाधिकार हो गया और वे धार्मिक क्रियाओं के प्रमुख हो गए। यज्ञों की संख्या और जटिलता बढ़ी, और कुछ यज्ञ इतने जटिल हो गए कि उन्हें केवल ब्राह्मण ही कर सकते थे। इस काल में कर्मकांड और अनुष्ठानों का महत्व बढ़ गया। इसके अलावा, उत्तर वैदिक काल में दर्शन और धार्मिक चिंतन का भी विकास हुआ। इस काल में उपनिषदों का निर्माण हुआ, जिनमें कर्मकांडों से हटकर आत्मा, ब्रह्म, और मोक्ष की अवधारणाओं पर जोर दिया गया। इसी समय में, वैदिक धर्म से अलग होकर जैन और बौद्ध धर्म जैसी नई धार्मिक विचारधाराएँ भी उभरीं, जो सरलता और अहिंसा पर आधारित थीं।
वैदिक और उत्तर वैदिक काल की प्रमुख विशेषताएं
1. वैदिक काल की विशेषताएं:
सामाजिक व्यवस्था: वर्ण व्यवस्था लचीली और गतिशील थी। महिलाओं को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था और वे शिक्षा तथा धार्मिक अनुष्ठानों में भाग ले सकती थीं।
आर्थिक व्यवस्था: मुख्य रूप से पशुपालन पर आधारित। कृषि और व्यापार की सीमित गतिविधियां होती थीं।
धार्मिक व्यवस्था: प्रकृति पूजक धर्म जिसमें यज्ञ और सरल अनुष्ठानों का महत्व था। समाज में सामूहिक धार्मिक गतिविधियां थीं।
2. उत्तर वैदिक काल की विशेषताएं:
सामाजिक व्यवस्था: वर्ण व्यवस्था कठोर हो गई और जाति व्यवस्था जन्म आधारित हो गई। महिलाओं की स्थिति में गिरावट आई।
आर्थिक व्यवस्था: कृषि मुख्य आर्थिक गतिविधि बन गई। व्यापार का विस्तार हुआ और औद्योगिक उत्पादन में भी वृद्धि हुई।
धार्मिक व्यवस्था: धर्म कर्मकांड और यज्ञों पर आधारित हो गया। ब्राह्मणों का वर्चस्व बढ़ा और नए धार्मिक विचारधाराओं का उदय हुआ।
निष्कर्ष
वैदिक और उत्तर वैदिक काल की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण अंतर था। आरंभिक वैदिक काल में समाज लचीला, स्वतंत्र और समानता आधारित था, जबकि उत्तर वैदिक काल में सामाजिक संरचना कठोर और असमान हो गई। आर्थिक दृष्टि से, आरंभिक वैदिक काल में पशुपालन और सीमित कृषि थी, जबकि उत्तर वैदिक काल में कृषि का विकास हुआ और व्यापार का विस्तार हुआ। धार्मिक रूप से भी दोनों कालों में बड़ा अंतर था; आरंभिक वैदिक काल का धर्म सरल और प्रकृति पूजक था, जबकि उत्तर वैदिक काल का धर्म जटिल और कर्मकांडों पर आधारित हो गया।
इन अंतरों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय सभ्यता का विकास एक सतत प्रक्रिया थी, जिसमें हर काल अपने समय के अनुकूल बदलावों को समाहित करता गया। उत्तर वैदिक काल में जो बदलाव देखे गए, वे आगे चलकर भारतीय समाज, धर्म और अर्थव्यवस्था की जड़ों को प्रभावित करने वाले थे। इस प्रकार, वैदिक और उत्तर वैदिक काल का अध्ययन हमें यह समझने में मदद करता है कि किस प्रकार से प्राचीन भारत की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्थाएँ क्रमिक रूप से विकसित हुईं और आगे आने वाले समय में उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति और समाज पर गहरा प्रभाव डाला।
प्रश्न 3:- सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक काल की सभ्यता की तुलना कीजिए। उनके सामाजिक ढांचे, धर्म और अर्थव्यवस्था में मुख्य भिन्नताएं क्या थीं?
उत्तर:- सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक काल की सभ्यता प्राचीन भारतीय इतिहास के दो प्रमुख चरण हैं। ये दोनों सभ्यताएँ अपनी-अपनी विशेषताओं और अनूठी परंपराओं के लिए जानी जाती हैं। दोनों का विकास भिन्न-भिन्न समय में हुआ और उन्होंने भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं जैसे सामाजिक ढांचा, धर्म और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डाला।
1. सिंधु घाटी सभ्यता (2600–1900 ई.पू.)
सिंधु घाटी सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है, का विकास उत्तर-पश्चिमी भारत और पाकिस्तान के क्षेत्र में हुआ था। यह सभ्यता प्राचीन विश्व की सबसे उन्नत सभ्यताओं में से एक थी और इसकी पहचान उसकी योजना बद्ध शहरों, विशाल संरचनाओं, कुशल जल निकासी व्यवस्था, और व्यापारिक व्यवस्था से होती है।
2. वैदिक काल की सभ्यता (1500–600 ई.पू.)
वैदिक काल की सभ्यता का विकास आर्यों द्वारा उत्तर-पश्चिम भारत में हुआ, जो लगभग 1500 ई.पू. से शुरू हुआ और लगभग 600 ई.पू. तक चला। यह दो भागों में विभाजित होता है: प्रारंभिक वैदिक काल (ऋग्वैदिक काल) और उत्तर वैदिक काल। यह काल संस्कृत साहित्य, विशेष रूप से वेदों के उद्भव के लिए जाना जाता है, जो भारतीय धर्म और संस्कृति की नींव बने।
अब हम इन दोनों सभ्यताओं की मुख्य विशेषताओं की तुलना करेंगे:
सामाजिक ढांचा
सिंधु घाटी सभ्यता का सामाजिक ढांचा:
1.शहरी जीवन: सिंधु घाटी सभ्यता का समाज मुख्य रूप से शहरी था। यहाँ के शहरों में मकान, सड़कें, नालियां, और सार्वजनिक स्नान घर जैसी योजनाबद्ध संरचनाएं पाई गई हैं, जो इस बात का प्रमाण हैं कि यहाँ के लोग संगठित और उन्नत सामाजिक ढांचे में रहते थे।
2.समाज का वर्गीकरण: सिंधु घाटी के सामाजिक ढांचे के बारे में हमें पुरातात्विक साक्ष्यों के माध्यम से ही जानकारी मिलती है। यहाँ समाज के वर्गों में विभाजन था, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह विभाजन जाति आधारित था या नहीं। व्यापारियों, कारीगरों और श्रमिकों की अलग-अलग समूहबद्धता दिखती है।
3.महिला स्थिति: सिंधु घाटी सभ्यता में महिलाओं की स्थिति का स्पष्ट प्रमाण नहीं है, लेकिन ऐसी मूर्तियाँ और प्रतिमाएं मिली हैं जो महिला पूजा और मातृदेवी की आराधना की ओर संकेत करती हैं। इससे लगता है कि महिलाओं की स्थिति सम्मानजनक रही होगी।
वैदिक काल का सामाजिक ढांचा:
1.ग्राम्य जीवन: वैदिक काल में समाज मुख्य रूप से ग्रामीण था। लोग छोटे-छोटे गाँवों में रहते थे, और परिवार को समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई माना जाता था।
2.वर्ण व्यवस्था: वैदिक काल में समाज का विभाजन चार वर्णों में था – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। प्रारंभिक वैदिक काल में यह विभाजन इतना कठोर नहीं था, लेकिन उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का कठोर रूप विकसित हो गया।
3.महिला स्थिति: प्रारंभिक वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति अच्छी थी, उन्हें शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति थी और वे धार्मिक अनुष्ठानों में भाग ले सकती थीं। लेकिन उत्तर वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति में गिरावट देखी गई और उन्हें सामाजिक रूप से सीमित किया जाने लगा।
धर्म
सिंधु घाटी सभ्यता का धर्म:
1.प्राकृतिक पूजा: सिंधु घाटी के धर्म के बारे में हमारे पास सीधा साक्ष्य नहीं है, लेकिन पुरातात्विक निष्कर्षों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहाँ प्राकृतिक शक्तियों और मातृदेवी की पूजा की जाती थी। पीपल के पेड़, पशुओं और मानवाकृतियों की मूर्तियों का उपयोग पूजा के लिए होता था।
2.योग और तपस्या: मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से मिली योग मुद्रा में बैठे पुरुष की मूर्तियाँ इस बात का संकेत देती हैं कि उस समय योग और ध्यान का महत्व था।
3.जल पूजा: सिंधु घाटी की सभ्यता में जल का बहुत महत्व था। स्नानागार और जलाशय इस बात का प्रमाण हैं कि यहाँ लोग जल को पवित्र मानते थे और संभवतः स्नान को एक धार्मिक क्रिया के रूप में देखते थे।
वैदिक काल का धर्म:
वेदों पर आधारित धर्म: वैदिक काल का धर्म वेदों पर आधारित था, जो चार प्रमुख वेदों में संकलित हैं – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, और अथर्ववेद। इन वेदों में प्रकृति के विभिन्न रूपों की पूजा का वर्णन मिलता है, जैसे अग्नि, इंद्र, वायु और वरुण।
यज्ञ का महत्व: वैदिक धर्म में यज्ञ का बहुत अधिक महत्व था। इसे धार्मिक अनुष्ठानों और देवताओं को प्रसन्न करने के माध्यम के रूप में देखा जाता था। प्रारंभिक वैदिक काल में यज्ञ सरल थे, जबकि उत्तर वैदिक काल में यह बहुत अधिक जटिल हो गए।
दर्शन और विचार: वैदिक धर्म केवल पूजा तक सीमित नहीं था, बल्कि यह जीवन के रहस्यों, ब्रह्म और आत्मा पर विचार-विमर्श भी करता था। उपनिषदों ने धर्म के इस रूप को और अधिक गहराई दी और कर्म, मोक्ष, पुनर्जन्म और अद्वैतवाद जैसे दार्शनिक विचारों को प्रस्तुत किया।
अर्थव्यवस्था
सिंधु घाटी सभ्यता की अर्थव्यवस्था:
1.कृषि: सिंधु घाटी सभ्यता की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था। यहाँ गेहूँ, जौ, कपास आदि की खेती की जाती थी। कृषि के लिए सिंचाई प्रणाली का उपयोग किया जाता था।
2.व्यापार: यह सभ्यता व्यापारिक गतिविधियों के लिए भी प्रसिद्ध थी। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के शहर व्यापारिक केंद्र थे, जहाँ से स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापार किया जाता था। मध्य एशिया और मेसोपोटामिया के साथ व्यापारिक संबंध थे, जिनका प्रमाण सील और अन्य वस्तुओं के रूप में मिलता है।
3.उद्योग और हस्तशिल्प: सिंधु घाटी के लोग कारीगरी में कुशल थे। यहाँ की सभ्यता में धातु शिल्प, मिट्टी के बर्तन, मनके बनाने, और कपड़ा उत्पादन की उन्नत विधियाँ थीं।
वैदिक काल की अर्थव्यवस्था:
कृषि आधारित अर्थव्यवस्था: वैदिक काल की अर्थव्यवस्था भी कृषि पर आधारित थी। प्रारंभिक वैदिक काल में लोग गंगा-यमुना के मैदानों में खेती करते थे, जबकि उत्तर वैदिक काल में कृषि के साथ-साथ पशुपालन भी महत्वपूर्ण व्यवसाय था।
गोधन: वैदिक समाज में गायों को संपत्ति का प्रतीक माना जाता था और अर्थव्यवस्था में उनका महत्वपूर्ण स्थान था। ‘गौ धन’ के रूप में गायें समाज में आर्थिक संपन्नता की प्रतीक थीं।
व्यापार और उद्योग: प्रारंभिक वैदिक काल में व्यापार बहुत सीमित था, लेकिन उत्तर वैदिक काल में व्यापारिक गतिविधियों का विस्तार हुआ। धातु उद्योग (विशेषकर लोहे का उपयोग) विकसित हुआ, जिससे कृषि उपकरणों का निर्माण संभव हुआ।
मुख्य भिन्नताएं
1.सामाजिक संरचना:
सिंधु घाटी सभ्यता में सामाजिक ढांचे की जटिलता और संगठन उच्च स्तर पर था, जबकि वैदिक काल में सामाजिक ढांचा ग्राम आधारित था और वर्ण व्यवस्था के आधार पर विभाजित था।
वैदिक काल की वर्ण व्यवस्था बाद के समय में कठोर जाति व्यवस्था में बदल गई, जबकि सिंधु घाटी में इस प्रकार की स्पष्ट विभाजन रेखाएँ नहीं थीं।
2.धार्मिक मान्यताएं:
सिंधु घाटी की सभ्यता में धर्म प्रकृति और मातृदेवी की पूजा पर आधारित था, जबकि वैदिक काल में देवताओं की विस्तृत पूजा के साथ यज्ञ का महत्व था।
वैदिक धर्म में दार्शनिक विचारों और जीवन के गूढ़ प्रश्नों पर विचार किया गया, जो उपनिषदों में परिलक्षित होता है, जबकि सिंधु घाटी के धर्म में ऐसा गहन दार्शनिक आधार नहीं दिखता।
3.अर्थव्यवस्था:
सिंधु घाटी की अर्थव्यवस्था व्यापारिक केंद्रित थी और यहाँ के लोग अंतरराष्ट्रीय व्यापार में संलग्न थे, जबकि वैदिक काल की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि और पशुपालन पर निर्भर थी।
सिंधु घाटी में परिष्कृत जल निकासी व्यवस्था, कुशल शिल्पकला और निर्माण कार्य देखने को मिलता है, जबकि वैदिक काल में धातु शिल्प (विशेषकर लोहे का उपयोग) और कृषि उपकरणों का निर्माण उन्नत हुआ।
निष्कर्ष
सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक काल की सभ्यता प्राचीन भारतीय इतिहास की दो अद्भुत कड़ियाँ हैं, जिन्होंने विभिन्न रूपों में भारतीय समाज, संस्कृति, धर्म और अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया। सिंधु घाटी की सभ्यता का अवसान अचानक हो गया, जबकि वैदिक सभ्यता ने भारतीय उपमहाद्वीप में नए सांस्कृतिक आयामों को जन्म दिया। इन दोनों सभ्यताओं के अध्ययन से हम यह जान सकते हैं कि किस प्रकार समाज का विकास होता है और कैसे अलग-अलग सभ्यताएं समय के साथ अपनी पहचान बनाती हैं।
प्रश्न 4:- वैदिक काल के प्रमुख ग्रंथों के बारे में विस्तार से लिखें। इन ग्रंथों का समाज, धर्म और ज्ञान-विज्ञान पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:- भारत के प्राचीन इतिहास में वैदिक काल एक महत्वपूर्ण युग माना जाता है। यह काल भारतीय संस्कृति, धर्म और समाज के विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। वैदिक काल में रचित ग्रंथों का अध्ययन हमें उस समय की सामाजिक, धार्मिक, और बौद्धिक संरचना की गहरी समझ प्रदान करता है। वैदिक ग्रंथ चार प्रकार के होते हैं:
1.संहिता
2.ब्राह्मण
3.आरण्यक
4.उपनिषद
इन चारों का सामूहिक रूप से अध्ययन वैदिक साहित्य के रूप में किया जाता है। यह ग्रंथ न केवल धर्म और अनुष्ठान के लिए महत्वपूर्ण थे बल्कि उन्होंने समाज के विभिन्न पहलुओं को भी परिभाषित किया।
1. संहिता: वैदिक मंत्रों का संग्रह
(क) ऋग्वेद संहिता
ऋग्वेद संहिता वैदिक साहित्य का सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें कुल 1028 सूक्त हैं जो देवताओं की स्तुति के रूप में रचे गए हैं। इसे विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ भी माना जाता है। इस ग्रंथ में अग्नि, इंद्र, वरुण, सोम, उषा आदि देवताओं की स्तुति की गई है। ऋग्वेद में प्राकृतिक शक्तियों की पूजा का वर्णन है, जो इस बात का संकेत देता है कि उस समय के लोग प्रकृति से कितने जुड़े हुए थे।
(ख) सामवेद संहिता
सामवेद मुख्यतः संगीत और गायन से संबंधित है। इसमें ऋग्वेद के मंत्रों का संगीतमय रूप में संग्रह किया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य अनुष्ठानों के दौरान मंत्रों का गायन करना था। सामवेद को संगीत का आधार भी माना जाता है और इसी से भारतीय संगीत की उत्पत्ति मानी जाती है।
(ग) यजुर्वेद संहिता
यजुर्वेद संहिता में अनुष्ठानों और यज्ञों के लिए उपयोगी मंत्रों का संग्रह है। इसमें मुख्य रूप से क्रियात्मक और अनुष्ठानिक मंत्र होते हैं। यजुर्वेद में यज्ञों की विधियों का विस्तार से वर्णन है, जो यह दर्शाता है कि वैदिक समाज में यज्ञ का कितना महत्व था।
(घ) अथर्ववेद संहिता
अथर्ववेद में जादू-टोने, तंत्र-मंत्र और दैनिक जीवन से संबंधित विभिन्न समस्याओं का समाधान दिया गया है। इसमें रोग, बीमारी, शत्रुओं से रक्षा, और अन्य व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान मंत्रों द्वारा सुझाया गया है। इसका स्वरूप अन्य तीनों वेदों से कुछ भिन्न है क्योंकि इसमें धार्मिक के साथ-साथ लोक जीवन के भी कई पहलू शामिल हैं।
2. ब्राह्मण ग्रंथ: यज्ञों की व्याख्या
ब्राह्मण ग्रंथ मुख्यतः यज्ञ और अनुष्ठानों की विधियों की व्याख्या करते हैं। इनमें यज्ञों की संकल्पना, उनके महत्व और उन्हें संपन्न करने की विधियाँ विस्तारपूर्वक बताई गई हैं। ये ग्रंथ वेदों के गद्यात्मक रूप हैं। प्रमुख ब्राह्मण ग्रंथों में ‘ऐतरेय ब्राह्मण’, ‘शतपथ ब्राह्मण’, ‘तैत्तिरीय ब्राह्मण’ और ‘गोपथ ब्राह्मण’ आदि हैं।
3. आरण्यक: वनवासियों के लिए ज्ञान
आरण्यक ग्रंथ उन ऋषियों और साधकों के लिए थे जो वनों में तपस्या करते थे। ये ग्रंथ ब्राह्मणों और उपनिषदों के बीच की कड़ी माने जाते हैं। इनमें यज्ञों की गूढ़ और रहस्यमयी विधियों का वर्णन होता है और इनका अध्ययन वनों में ही किया जाता था। प्रमुख आरण्यक ग्रंथों में ‘ऐतरेय आरण्यक’ और ‘बृहदारण्यक’ शामिल हैं।
4. उपनिषद: ज्ञान और दर्शन का भंडार
उपनिषद वैदिक साहित्य का सबसे गूढ़ और महत्वपूर्ण भाग है। ये ब्रह्म और आत्मा के गूढ़ रहस्यों का वर्णन करते हैं। उपनिषदों में ब्रह्म, आत्मा, मोक्ष और जीवन-मृत्यु के रहस्यों पर विस्तार से चर्चा की गई है। उपनिषदों को ‘वेदांत’ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘वेदों का अंत’। प्रमुख उपनिषदों में ‘छांदोग्य उपनिषद’, ‘बृहदारण्यक उपनिषद’, ‘ईश उपनिषद’, ‘कठ उपनिषद’ और ‘मुण्डक उपनिषद’ शामिल हैं।
वैदिक साहित्य का समाज, धर्म और ज्ञान-विज्ञान पर प्रभाव
वैदिक ग्रंथों का प्रभाव केवल धार्मिक क्षेत्र तक सीमित नहीं था, बल्कि इसका व्यापक असर समाज, दर्शन, और विज्ञान पर भी पड़ा। आइए इसके विभिन्न पहलुओं का विस्तार से अध्ययन करें।
1. समाज पर प्रभाव
(क) सामाजिक संरचना
वैदिक साहित्य में वर्णित सामाजिक संरचना का आधार वर्ण व्यवस्था थी। इसमें समाज को चार मुख्य वर्णों में विभाजित किया गया था: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ये ग्रंथ वर्णों के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताते हैं। इस व्यवस्था के कारण समाज में कार्य विभाजन को बल मिला और प्रत्येक वर्ण को अपनी भूमिका और कर्तव्यों के बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश प्राप्त हुए।
(ख) परिवार और विवाह
वैदिक साहित्य में परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसमें गृहस्थ आश्रम को अत्यधिक महत्व दिया गया है और इसे चार आश्रमों में प्रमुख स्थान प्राप्त है। विवाह और पारिवारिक जीवन को समाज की नींव माना गया है, जहाँ विवाह धार्मिक और सामाजिक कर्तव्य दोनों ही था।
(ग) शिक्षा और ज्ञानार्जन
गुरुकुल प्रणाली के माध्यम से शिक्षा का विस्तार हुआ। वैदिक ग्रंथों में वेदों के अध्ययन के साथ-साथ दर्शन, गणित, ज्योतिष, और संगीत की शिक्षा पर भी जोर दिया गया। शिक्षा केवल ब्राह्मणों तक सीमित नहीं थी; क्षत्रिय और वैश्य भी इसके भागीदार थे।
2. धर्म पर प्रभाव
(क) धार्मिक अनुष्ठान और यज्ञ
वैदिक ग्रंथों ने धार्मिक अनुष्ठानों और यज्ञों की विधियों को विस्तार से प्रस्तुत किया। ऋग्वेद में विभिन्न देवताओं की स्तुति के साथ यज्ञों का उल्लेख है, जबकि यजुर्वेद में यज्ञों के आयोजन की विधियों का विस्तृत वर्णन है। यज्ञ उस समय का मुख्य धार्मिक क्रियाकलाप था, और यह समाज के विभिन्न पहलुओं को जोड़ता था।
(ख) देवताओं का स्वरूप
वैदिक देवता प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक थे जैसे अग्नि (आग), वरुण (जल), इंद्र (वर्षा) आदि। यह धार्मिक दृष्टिकोण इस तथ्य की पुष्टि करता है कि वैदिक समाज में प्रकृति की पूजा का विशेष महत्व था।
(ग) आत्मा और ब्रह्म की अवधारणा
उपनिषदों ने आत्मा और ब्रह्म की अवधारणा को विस्तार से प्रस्तुत किया। यह भारतीय धर्म और दर्शन की नींव मानी जाती है। उपनिषदों के विचारों ने न केवल हिन्दू धर्म के विकास में योगदान दिया बल्कि जैन और बौद्ध धर्म के विकास पर भी प्रभाव डाला।
3. ज्ञान-विज्ञान पर प्रभाव
(क) ज्योतिष और गणित
वैदिक काल में ज्योतिष का अत्यधिक महत्व था। यज्ञों के आयोजन के लिए मुहूर्त, नक्षत्र और ग्रहों की स्थिति को देखना आवश्यक होता था, जिसके कारण ज्योतिष का विकास हुआ। वैदिक साहित्य में अंकगणित, बीजगणित और ज्यामिति के संकेत भी मिलते हैं। उदाहरणस्वरूप, ‘शुल्ब सूत्र’ में ज्यामितीय माप और यज्ञवेदी के निर्माण की विधियाँ बताई गई हैं।
(ख) चिकित्सा विज्ञान
अथर्ववेद को भारतीय चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) का प्रारंभिक रूप माना जाता है। इसमें विभिन्न बीमारियों के उपचार, औषधियों और चिकित्सा प्रक्रियाओं का वर्णन है। इसके द्वारा यह स्पष्ट होता है कि वैदिक समाज में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता थी।
(ग) दर्शन और तर्कशास्त्र
उपनिषदों में तर्कशास्त्र और दर्शन के विषयों पर गहन चर्चा की गई है। ‘नेति नेति’ (यह नहीं, वह नहीं) जैसे विचार दर्शाते हैं कि वैदिक समाज ने एक गूढ़ और विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण अपनाया था। यह दर्शन की वैदिक परंपरा का प्रमाण है जिसने बाद में भारतीय दर्शन की विभिन्न शाखाओं को जन्म दिया।
निष्कर्ष
वैदिक काल के ग्रंथों का समाज, धर्म, और ज्ञान-विज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन ग्रंथों ने भारतीय संस्कृति की नींव रखी और आने वाले समय में भी उनके विचार और सिद्धांत समाज में प्रासंगिक बने रहे। वैदिक साहित्य ने एक धार्मिक समाज की संरचना की जिसमें ज्ञान और विज्ञान का विशेष महत्व था। यह स्पष्ट है कि वेदों ने केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि समाज की संपूर्णता को एक दिशा प्रदान की। उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत और धारणाएँ आज भी भारतीय समाज में प्रासंगिकता बनाए हुए हैं।
वैदिक साहित्य का अध्ययन केवल अतीत को जानने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज के वर्तमान और भविष्य को भी दिशा देने वाला है। इसलिए, वैदिक ग्रंथों का अध्ययन भारतीय संस्कृति, धर्म और समाज की समृद्ध धरोहर को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
प्रश्न 5:- सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के कारणों पर चर्चा करें। किन कारकों ने इस सभ्यता के अंत को प्रभावित किया और उसके बाद कौन सी नई सभ्यता विकसित हुई?
उत्तर:- सिंधु घाटी सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे पुरानी और समृद्ध सभ्यताओं में से एक थी। यह सभ्यता लगभग 3300 ईसा पूर्व से 1300 ईसा पूर्व तक फली-फूली, और इसके प्रमुख नगर मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, धोलावीरा, कालीबंगन, और लोथल थे। इस सभ्यता की विशेषताएं उत्कृष्ट नगर योजना, विकसित व्यापार, सुव्यवस्थित जल निकासी प्रणाली, और विशिष्ट सामाजिक संरचना थीं। लेकिन इतनी समृद्धि और विकास के बावजूद, इस सभ्यता का पतन हुआ और यह धीरे-धीरे समाप्त हो गई।
सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के कारणों के बारे में कई सिद्धांत हैं, लेकिन कोई भी कारण स्पष्ट रूप से नहीं बता सकता कि इसके पतन के पीछे केवल एक ही कारण था। इसके विपरीत, यह माना जाता है कि इसके पतन के कई परस्पर संबंधित कारण थे। इस लेख में, हम इन संभावित कारणों पर विस्तार से चर्चा करेंगे और देखेंगे कि इसके पतन के बाद कौन सी नई सभ्यता विकसित हुई।
सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के प्रमुख कारण
1. प्राकृतिक आपदाएँ (Natural Disasters)
सिंधु घाटी सभ्यता के पतन का एक मुख्य कारण प्राकृतिक आपदाएँ मानी जाती हैं। इसके प्रमुख नगर सिंधु और उसकी सहायक नदियों के किनारे स्थित थे, जो बाढ़ की समस्या के प्रति संवेदनशील थे। पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह संकेत मिलता है कि कुछ नगरों को बार-बार बाढ़ का सामना करना पड़ा, जिससे नगरों का विनाश हो गया और लोग अपने स्थानों को छोड़ने के लिए मजबूर हो गए।
1.1. बाढ़ (Floods)
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे प्रमुख नगरों में मिली गाद की परतें इस बात का संकेत देती हैं कि ये नगर बड़े पैमाने पर बाढ़ की चपेट में आ गए थे। सिंधु नदी की बार-बार बाढ़ ने नगरों को नष्ट कर दिया, और इससे लोग अपने घरों को छोड़कर सुरक्षित स्थानों की तलाश में चले गए।
1.2. जलवायु परिवर्तन (Climate Change)
इस सभ्यता के पतन का एक अन्य कारण जलवायु परिवर्तन भी माना जाता है। सिंधु घाटी क्षेत्र में एक समय पर बहुत उपजाऊ और हरियाली थी, लेकिन समय के साथ जलवायु परिवर्तन के कारण यह क्षेत्र शुष्क होता गया। नदियों का प्रवाह भी बदल गया, जिससे कृषि और जल आपूर्ति पर बुरा प्रभाव पड़ा। जब जल स्रोत सूखने लगे, तो लोगों के पास अन्य स्थानों की ओर पलायन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा।
2. पर्यावरणीय पतन (Environmental Degradation)
सिंधु घाटी सभ्यता का समाज बड़े पैमाने पर कृषि और व्यापार पर निर्भर था। लेकिन इस सभ्यता के पतन का एक कारण पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन भी हो सकता है।
2.1. वनक्षरण (Deforestation)
कृषि और ईंधन की आवश्यकताओं के लिए वृक्षों की कटाई से क्षेत्र में वनों का पतन हुआ। इससे न केवल भूमि की उर्वरता में कमी आई, बल्कि बाढ़ की संभावना भी बढ़ गई, क्योंकि वृक्षों की अनुपस्थिति में मिट्टी का कटाव अधिक होने लगा।
2.2. कृषि का अति प्रयोग (Overuse of Agriculture)
लंबे समय तक कृषि भूमि का उपयोग करने के कारण मिट्टी की उर्वरता घट गई। इसके परिणामस्वरूप फसल उत्पादन कम हो गया, जिससे खाद्य संकट उत्पन्न हुआ और यह संकट सभ्यता के पतन का एक महत्वपूर्ण कारण बना।
3. आर्थिक और व्यापारिक संकट (Economic and Trade Decline)
सिंधु घाटी सभ्यता एक प्रमुख व्यापारिक सभ्यता थी, जो मेसोपोटामिया, फारस और मध्य एशिया के साथ व्यापार करती थी। लेकिन सभ्यता के अंतिम चरण में इस व्यापार में गिरावट आई।
3.1. व्यापार मार्गों का बदलाव (Change in Trade Routes)
पुरातात्त्विक साक्ष्य इस ओर संकेत करते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता के अंतिम दौर में समुद्री व्यापार मार्ग बदल गए थे। यह संभव है कि व्यापारिक मार्गों के बदलाव के कारण इस सभ्यता का व्यापारिक महत्व घट गया और इससे इसकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई।
3.2. तांबे की कमी (Shortage of Copper)
तांबा उस समय का मुख्य धातु था, जिसका उपयोग औजारों और हथियारों के निर्माण में होता था। तांबे की कमी ने औद्योगिक उत्पादन और व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव डाला, जिससे व्यापारिक संबंध कमजोर हो गए।
4. बाहरी आक्रमण (External Invasions)
सिंधु घाटी सभ्यता के पतन का एक और संभावित कारण आर्यों का आगमन है। हालांकि इस सिद्धांत के पक्ष में स्पष्ट पुरातात्त्विक साक्ष्य नहीं हैं, लेकिन यह माना जाता है कि आर्यों का आगमन और उनका संघर्ष सिंधु घाटी सभ्यता के पतन में योगदान कर सकता है। आर्यों के आगमन के समय सिंधु सभ्यता पहले से ही कमजोर हो चुकी थी और हो सकता है कि इसका फायदा उठाकर आर्यों ने इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
5. सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता (Social and Political Instability)
सिंधु घाटी सभ्यता की सामाजिक और राजनीतिक संरचना के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन यह संभव है कि अंत में वहाँ की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में अस्थिरता आ गई हो।
5.1. सत्ता का केंद्रीकरण (Centralization of Power)
यदि सत्ता का केंद्रीकरण अधिक हुआ होगा, तो इससे शासन में अव्यवस्था और अराजकता उत्पन्न हो सकती है। इससे समाज के विभिन्न वर्गों में असंतोष बढ़ा होगा और अंततः समाज के विघटन का कारण बना होगा।
सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद नई सभ्यता का विकास
सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में एक नई सभ्यता का उदय हुआ, जिसे वैदिक सभ्यता (Vedic Civilization) के नाम से जाना जाता है। वैदिक सभ्यता लगभग 1500 ईसा पूर्व से प्रारंभ होकर 600 ईसा पूर्व तक चली। यह सभ्यता मुख्यतः उत्तर-पश्चिमी भारत और गंगा-यमुना के मैदानी इलाकों में विकसित हुई। वैदिक सभ्यता का नाम वेदों पर आधारित है, जो उस समय के प्रमुख धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथ थे।
वैदिक सभ्यता की विशेषताएं:
1.धार्मिक और सामाजिक संरचना: वैदिक सभ्यता का समाज चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) में विभाजित था। यह समाज मुख्यतः कृषि, पशुपालन और व्यापार पर निर्भर था। वैदिक काल में धार्मिक अनुष्ठानों और यज्ञों का प्रमुख स्थान था, और वेदों के माध्यम से धार्मिक आस्थाएँ और नैतिकता का प्रचार किया गया।
2.ग्राम्य और शहरी जीवन: वैदिक समाज मुख्यतः ग्राम्य जीवन पर आधारित था, लेकिन धीरे-धीरे शहरीकरण की प्रक्रिया भी शुरू हुई। नगरों का विकास वैदिक सभ्यता के उत्तरवर्ती चरणों में हुआ, जहाँ व्यापार और वाणिज्य का भी विस्तार हुआ।
3.राजनीतिक संरचना: वैदिक सभ्यता के आरंभिक चरणों में समाज जनपदों में विभाजित था, जिन पर मुखिया (राजन) का शासन होता था। उत्तर वैदिक काल में छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ, जिनमें महाजनपदों का भी विकास हुआ।
निष्कर्ष (Conclusion)
सिंधु घाटी सभ्यता का पतन कई परस्पर जुड़े कारकों का परिणाम था। प्राकृतिक आपदाएँ, पर्यावरणीय क्षरण, आर्थिक संकट, व्यापारिक मार्गों का बदलाव, और बाहरी आक्रमणों ने मिलकर इस सभ्यता को कमजोर कर दिया। हालांकि इसका पतन अचानक नहीं हुआ, बल्कि यह धीरे-धीरे घटित हुआ और सभ्यता के प्रमुख नगर एक-एक करके समाप्त हो गए।
सिंधु घाटी सभ्यता के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में वैदिक सभ्यता का विकास हुआ, जिसने भारत के सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को एक नई दिशा दी। वैदिक काल में भारत ने न केवल एक संगठित समाज की स्थापना की बल्कि यहाँ की धार्मिक, साहित्यिक और दार्शनिक परंपराओं का भी विस्तार हुआ, जिसने आगे चलकर भारतीय सभ्यता को विश्व में अद्वितीय पहचान दिलाई।
इस प्रकार, सिंधु घाटी सभ्यता का अध्ययन हमें प्राचीन भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत को समझने का अवसर प्रदान करता है, जबकि इसके पतन के कारणों से हम यह सीख सकते हैं कि एक विकसित और समृद्ध सभ्यता भी किस प्रकार विभिन्न आंतरिक और बाहरी कारकों के प्रभाव में ध्वस्त हो सकती है।
लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1:- सिंधु घाटी सभ्यता की प्रमुख विशेषताएं क्या थीं?
उत्तर:- सिंधु घाटी सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्राचीन और विकसित सभ्यताओं में से एक थी। यह सभ्यता लगभग 3300 ईसा पूर्व से 1300 ईसा पूर्व तक अस्तित्व में रही और इसके प्रमुख केंद्रों में मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल, कालीबंगन और धोलावीरा शामिल थे।
इस सभ्यता की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता उसकी उत्कृष्ट नगर योजना थी। यहाँ के नगरों को ग्रिड प्रणाली पर बसाया गया था, जहाँ सड़कों की एक सुनियोजित व्यवस्था थी। इसके अलावा, हर नगर में एक अद्वितीय जल निकासी प्रणाली थी, जिससे गंदे पानी का निपटान भूमिगत नालियों के माध्यम से होता था।
सिंधु घाटी सभ्यता में सामाजिक व्यवस्था भी विकसित थी, जहाँ लोग बड़े और सुव्यवस्थित घरों में रहते थे। लोग मुख्य रूप से कृषि, पशुपालन, शिल्पकला, और व्यापार पर निर्भर थे। व्यापारिक गतिविधियाँ बहुत उन्नत थीं, जिनमें मेसोपोटामिया, फारस और अफगानिस्तान जैसे दूरस्थ क्षेत्रों के साथ व्यापार शामिल था।
इस सभ्यता की धार्मिक मान्यताओं में मूर्तिपूजा, मातृ देवी की आराधना, और जल तथा वृक्षों की पूजा शामिल थी। इन विशेषताओं के माध्यम से यह सभ्यता अपनी उन्नति और समृद्धि को दर्शाती है, जो उस समय की अन्य सभ्यताओं के मुकाबले बहुत उन्नत मानी जाती थी।
प्रश्न 2:- सिंधु घाटी सभ्यता के दो महत्वपूर्ण शहरों के नाम बताइए।
उत्तर:- सिंधु घाटी सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है, प्राचीन विश्व की सबसे उन्नत सभ्यताओं में से एक मानी जाती है। इस सभ्यता का विकास लगभग 2500 ईसा पूर्व में हुआ और यह मुख्य रूप से आधुनिक पाकिस्तान और पश्चिमी भारत के क्षेत्रों में फैली हुई थी। इस सभ्यता के दो प्रमुख और महत्वपूर्ण शहर हड़प्पा और मोहनजोदड़ो थे।
हड़प्पा: यह शहर पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है और इस सभ्यता की खोज सबसे पहले यहीं से हुई थी। इसलिए इस सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है। हड़प्पा में कुशल नगरीय योजना, पक्की ईंटों के मकान, अनाज भंडारण और नालियों की उत्कृष्ट व्यवस्था देखने को मिलती है।
मोहनजोदड़ो: यह शहर सिंधु नदी के किनारे, पाकिस्तान के सिंध प्रांत में स्थित है। इसका अर्थ है “मृतकों का टीला”। मोहनजोदड़ो में भी नगर योजना का उत्कृष्ट उदाहरण मिलता है। यहाँ का प्रसिद्ध वृहद स्नानागार और अनाज भंडार इस सभ्यता की समृद्धि और जल प्रबंधन की गवाही देते हैं।
ये दोनों शहर सिंधु घाटी सभ्यता की उन्नति, शहरीकरण और समृद्धि के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जो आज भी पुरातात्विक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं।
प्रश्न 3:- वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में धार्मिक विश्वासों में क्या अंतर था?
उत्तर:- वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में धार्मिक विश्वासों में कई महत्वपूर्ण अंतर देखने को मिलते हैं।
वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.) में धर्म मुख्यतः यज्ञ और देवताओं की पूजा पर आधारित था। इस काल के लोग प्राकृतिक शक्तियों को देवता मानकर उनकी पूजा करते थे, जिनमें प्रमुख देवता इंद्र (वर्षा के देवता), अग्नि (अग्नि के देवता), सूर्य (सूर्य देव), और वरुण (जल और सत्य के देवता) थे। यज्ञों के माध्यम से देवताओं को प्रसन्न करने और समाज के कल्याण के लिए उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास किया जाता था। धर्म के इस रूप में सरलता और अनुष्ठानों का विशेष महत्व था।
उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.) में धार्मिक विश्वासों में गहन परिवर्तन देखने को मिला। इस काल में यज्ञों की संख्या और जटिलता बढ़ गई और ब्राह्मणों का महत्व अधिक हो गया। इसके अलावा, आत्मा, पुनर्जन्म, और मोक्ष के दार्शनिक विचार सामने आए, जो उपनिषदों में विस्तृत रूप से वर्णित हैं। इस काल में धर्म का स्वरूप अधिक आध्यात्मिक और दार्शनिक हो गया, जिसमें आत्मज्ञान और मोक्ष प्राप्ति की अवधारणा का प्रबल प्रभाव था।
इस प्रकार, वैदिक काल में धर्म अधिक भौतिकवादी और कर्मकांड प्रधान था, जबकि उत्तर वैदिक काल में यह अधिक दार्शनिक और आत्मिक चेतना की ओर उन्मुख हुआ।
प्रश्न 4:- वैदिक काल के प्रमुख साहित्यिक ग्रंथ कौन से हैं?
उत्तर:-वैदिक काल के प्रमुख साहित्यिक ग्रंथ चार वेद हैं, जो भारतीय धर्म, समाज और संस्कृति की नींव माने जाते हैं। ये चार वेद इस प्रकार हैं:
1.ऋग्वेद: यह सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण वेद है जिसमें 1028 सूक्त हैं। इसमें विभिन्न देवताओं जैसे अग्नि, इंद्र, वरुण आदि की स्तुति की गई है। यह वेद प्राकृतिक शक्तियों की पूजा पर आधारित है।
2.सामवेद: इसे संगीत का वेद भी कहा जाता है। इसमें ऋग्वेद के मंत्रों का संगीतमय रूप है और इसका उपयोग यज्ञों में गायन के लिए होता था।
3.यजुर्वेद: इसमें यज्ञों के आयोजन और अनुष्ठान के लिए मंत्रों का संग्रह है। यह मुख्य रूप से क्रियात्मक और अनुष्ठानिक वेद है।
4.अथर्ववेद: इसमें जादू-टोना, चिकित्सा, और दैनिक जीवन से संबंधित मंत्र शामिल हैं। यह अन्य वेदों से कुछ अलग है और इसे तांत्रिक वेद भी कहा जाता है।
इन चार वेदों के अतिरिक्त, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद भी वैदिक साहित्य के महत्वपूर्ण अंग हैं, जो यज्ञ, ज्ञान और दर्शन के विषय में विस्तृत जानकारी प्रदान करते हैं।
प्रश्न 5:- वैदिक काल के समाज की मुख्य विशेषताएं क्या थीं?
उत्तर:- वैदिक काल (1500 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व) भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण चरण है, जिसे दो भागों में विभाजित किया गया है – प्रारंभिक वैदिक काल (ऋग्वैदिक काल) और उत्तर वैदिक काल। इस काल में समाज, धर्म, अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक विकास के कई महत्वपूर्ण पहलू देखे गए।
1.जाति प्रथा की शुरुआत: प्रारंभिक वैदिक काल में समाज मुख्य रूप से वर्ण व्यवस्था पर आधारित था, जिसमें ब्राह्मण (पुजारी), क्षत्रिय (योद्धा), वैश्य (व्यापारी), और शूद्र (सेवक) शामिल थे। उत्तर वैदिक काल में जातीय विभाजन अधिक कठोर और जटिल हो गया।
2.गृहस्थ जीवन और परिवार: परिवार समाज की आधारभूत इकाई थी। पितृसत्तात्मक व्यवस्था प्रचलित थी, जहाँ पिता परिवार का मुखिया होता था। विवाह एक पवित्र बंधन माना जाता था और बहुपत्नी प्रथा का भी प्रचलन था।
3.धार्मिक जीवन: इस काल में लोग मुख्य रूप से प्रकृति की पूजा करते थे। इंद्र, अग्नि, वरुण, सूर्य आदि देवताओं की आराधना की जाती थी। यज्ञ और हवन का विशेष महत्व था।
4.अर्थव्यवस्था: अर्थव्यवस्था कृषि और पशुपालन पर आधारित थी। गोधन (गाय) को संपत्ति और समृद्धि का प्रतीक माना जाता था। व्यापार और शिल्पकारी का भी विकास हुआ।
5.महिला की स्थिति: प्रारंभिक वैदिक काल में महिलाओं को सम्मान प्राप्त था, और वे शिक्षा तथा धार्मिक कार्यों में भाग ले सकती थीं। हालांकि, उत्तर वैदिक काल में उनकी स्थिति कमजोर होने लगी।
वैदिक समाज का यह चरण भारतीय सभ्यता के मूल्यों और संस्थानों के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिनके प्रभाव भारतीय समाज पर आज भी देखे जा सकते हैं।
प्रश्न 6:- सिंधु घाटी सभ्यता का अर्थव्यवस्था पर क्या आधार था?
उत्तर:- सिंधु घाटी सभ्यता (लगभग 3300 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व) की अर्थव्यवस्था कृषि, व्यापार, शिल्पकला और वस्त्र निर्माण पर आधारित थी। इस सभ्यता के लोग मुख्य रूप से गेहूं, जौ, कपास और चना जैसी फसलों की खेती करते थे। कृषि के लिए सिंचाई व्यवस्था और नदियों के जल का कुशल प्रबंधन किया जाता था, जिससे फसल उत्पादन में बढ़ोतरी हुई।
व्यापार भी इस सभ्यता की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार था। यहाँ के लोगों ने मेसोपोटामिया और फारस के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित किए थे। व्यापार में सोना, चांदी, तांबा, सीप और मनके जैसी वस्तुएँ शामिल थीं। सुमेर के साथ होने वाले व्यापार का प्रमाण मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में मिले मुहरों से मिलता है।
हस्तकला और शिल्पकला भी अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा थीं। मनके, मिट्टी के बर्तन, धातु की मूर्तियाँ, और आभूषण निर्माण यहाँ के लोगों के शिल्प कौशल को दर्शाते हैं। इसके अलावा, कपास से वस्त्र निर्माण का उल्लेख भी विशेष रूप से मिलता है।
सिंधु सभ्यता की समृद्ध अर्थव्यवस्था का संकेत यहाँ के सुव्यवस्थित नगर, सुविकसित जल निकासी प्रणाली, और विशाल गोदामों से भी मिलता है, जो व्यापार और भंडारण की उन्नत व्यवस्था को दर्शाते हैं।
प्रश्न 7:- उत्तर वैदिक काल में सामाजिक व्यवस्था में कौन-कौन से परिवर्तन आए?
उत्तर:- उत्तर वैदिक काल (1000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व) में सामाजिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिले, जो प्रारंभिक वैदिक काल से भिन्न थे। इस काल में समाज अधिक जटिल और संगठित हुआ, और सामाजिक ढांचे में कई नए पहलुओं का विकास हुआ।
1.वर्ण व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण: इस काल में वर्ण व्यवस्था कठोर हो गई और समाज चार मुख्य वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – में विभाजित हो गया। जन्म के आधार पर व्यक्ति का वर्ण निर्धारित होने लगा, जिससे सामाजिक गतिशीलता सीमित हो गई।
2.ब्राह्मणों का प्रभाव: ब्राह्मणों का समाज पर प्रभाव बढ़ता गया। वे धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे और यज्ञ, हवन, तथा धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर चुके थे।
3.स्त्रियों की स्थिति में गिरावट: प्रारंभिक वैदिक काल की तुलना में उत्तर वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति में गिरावट आई। उन्हें धार्मिक अनुष्ठानों और शिक्षा से वंचित किया जाने लगा। बाल विवाह और बहुपत्नी प्रथा जैसी कुप्रथाएँ प्रचलित होने लगीं।
4.गृहस्थ और परिवार व्यवस्था: पितृसत्तात्मक समाज मजबूत हो गया, जहाँ परिवार का नियंत्रण पुरुषों के हाथ में था। पैतृक संपत्ति पर भी केवल पुरुषों का अधिकार था।
5.व्यापार और अर्थव्यवस्था का विकास: वैश्य वर्ग व्यापार और कृषि में संलग्न था। व्यापारिक गतिविधियों के कारण समाज में आर्थिक असमानता बढ़ी, जिससे समाज में ऊँच-नीच की भावना गहरी हो गई।
6.शूद्रों की स्थिति: शूद्रों की स्थिति सबसे निम्न मानी जाती थी और उन्हें सेवक का दर्जा दिया गया। वे अन्य वर्णों की सेवा करने के लिए बाध्य थे और धार्मिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार नहीं था।
उत्तर वैदिक काल में सामाजिक व्यवस्था अधिक स्थिर लेकिन असमान हो गई, जिससे समाज में ऊँच-नीच और भेदभाव का आधार मजबूत हुआ। इस काल की संरचना ने आगे चलकर भारतीय समाज के कई पहलुओं को प्रभावित किया।
प्रश्न 8:- सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के प्रमुख कारण क्या हो सकते हैं?
उत्तर:- सिंधु घाटी सभ्यता का पतन (लगभग 1900 ईसा पूर्व) के पीछे कई संभावित कारण बताए जाते हैं। यह एक जटिल प्रक्रिया थी जिसमें प्राकृतिक आपदाओं से लेकर आंतरिक और बाहरी कारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1.पर्यावरणीय परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन और सूखे की स्थिति ने इस सभ्यता की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया। सरस्वती नदी के प्रवाह में कमी और नदियों का मार्ग बदलना भी कृषि को प्रभावित करने वाला एक बड़ा कारण हो सकता है।
2.बाढ़ और प्राकृतिक आपदाएं: कई पुरातत्वविदों का मानना है कि बार-बार आने वाली बाढ़ ने नगरों को नष्ट कर दिया होगा, जिससे लोग अपने बसे हुए स्थानों को छोड़ने के लिए मजबूर हुए।
3.आर्थिक गिरावट: व्यापारिक नेटवर्क का कमजोर होना और बाहरी व्यापारिक संबंधों का टूटना भी पतन का एक कारण हो सकता है। मेसोपोटामिया जैसी सभ्यताओं से संपर्क खत्म होने से व्यापारिक गतिविधियों में गिरावट आई।
4.आंतरिक संघर्ष और सामाजिक विघटन: सभ्यता के भीतर बढ़ते सामाजिक असंतुलन और प्रशासनिक व्यवस्था के कमजोर होने से भी नगरों का पतन हुआ।
5.बाहरी आक्रमण: कुछ विद्वानों का मानना है कि बाहरी आक्रमण, विशेष रूप से आर्यों के आगमन ने सिंधु सभ्यता की स्थिरता को प्रभावित किया होगा।
इन सभी कारकों के समायोजन ने मिलकर सिंधु घाटी सभ्यता के पतन में भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप लोग बड़े नगरों को छोड़कर छोटे-छोटे गाँवों में बसने लगे।
अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1:- सिंधु घाटी सभ्यता कब और कहाँ विकसित हुई थी?
उत्तर:- सिंधु घाटी सभ्यता लगभग 2600 ई.पू से 1900 ई.पू तक विकसित हुई थी। यह मुख्य रूप से वर्तमान पाकिस्तान के सिंधु नदी के आसपास के क्षेत्र, जैसे हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में फली-फूली थी। यह सभ्यता प्राचीन विश्व की सबसे प्राचीन और उन्नत सभ्यताओं में से एक मानी जाती है।
प्रश्न 2:- मोहनजोदड़ो और हड़प्पा किन नदी घाटियों में स्थित थे?
उत्तर:- मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सिंधु नदी घाटी में स्थित थे। ये नगर सिंधु नदी के तट पर बसे थे, जो आज के पाकिस्तान में है। यह स्थान सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख केंद्र थे, जहाँ उन्नत नगर नियोजन और जल निकासी व्यवस्था पाई जाती थी।
प्रश्न 3:- वैदिक काल का प्रमुख ग्रंथ कौन सा है?
उत्तर:- वैदिक काल का प्रमुख ग्रंथ ‘ऋग्वेद’ है। ऋग्वेद चार मुख्य वेदों में से पहला और सबसे प्राचीन है। इसमें विभिन्न ऋषियों द्वारा रचित मन्त्र और स्तोत्र शामिल हैं, जो उस काल के धार्मिक और सामाजिक जीवन को दर्शाते हैं।
प्रश्न 4:- सिंधु घाटी सभ्यता के लोग किस प्रकार के मकान बनाते थे?
उत्तर:- सिंधु घाटी सभ्यता के लोग समतल और ब्रिक्स (ईंटों) से बने मकान बनाते थे। उनके मकान सुव्यवस्थित शहर नियोजन का हिस्सा थे, जिनमें सीढ़ियाँ, जल निकासी प्रणाली और चौकोर या आयताकार डिज़ाइन होते थे। मकान आमतौर पर एक या दो मंजिला होते थे।
प्रश्न 5:- वैदिक काल में ‘सप्त सिंधु’ का क्या महत्व था?
उत्तर:- वैदिक काल में ‘सप्त सिंधु’ का महत्व धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से था। ‘सप्त सिंधु’ से सप्त नदियों को संदर्भित किया जाता है, जो उस समय के प्रमुख धार्मिक स्थलों के आसपास बहती थीं। ये नदियाँ जीवन, कृषि और आध्यात्मिकता का प्रतीक मानी जाती थीं।
प्रश्न 6:- सिंधु घाटी सभ्यता का प्रमुख व्यापारिक केंद्र कौन सा था?
उत्तर:- सिंधु घाटी सभ्यता का प्रमुख व्यापारिक केंद्र मोहनजोदड़ो था। यह नगर उन्नत व्यापारिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध था, जहाँ से धातु, वस्त्र, और अन्य सामग्रियाँ का व्यापार होता था। यहाँ के लोग मेटल वर्क, कुम्हार कला और व्यापारिक संबंधों में कुशल थे।
प्रश्न 7:- ‘ऋग्वेद’ किस काल से संबंधित है?
उत्तर:- ‘ऋग्वेद’ वैदिक काल से संबंधित है। यह वैदिक साहित्य का सबसे पुराना ग्रंथ है, जो लगभग 1500 ई.पू से 1200 ई.पू के बीच का है। ऋग्वेद में उस समय के धार्मिक अनुष्ठान, सामाजिक संरचना और जीवन शैली का विवरण मिलता है।
प्रश्न 8:- उत्तर वैदिक काल में समाज की मुख्य विशेषता क्या थी?
उत्तर:- उत्तर वैदिक काल में समाज की मुख्य विशेषता वर्ण व्यवस्था थी। इस काल में समाज चार वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित था। वर्ण व्यवस्था ने सामाजिक संगठन, कर्तव्यों और अधिकारों को निर्धारित किया, जिससे समाज में क्रमबद्धता बनी रही।
प्रश्न 9:- वैदिक काल के मुख्य देवताओं के नाम बताइए।
उत्तर:- वैदिक काल के मुख्य देवताओं में अग्नि, इंद्र, वरुण, सूर्य, और विष्णु शामिल हैं। अग्नि यज्ञ का प्रमुख देवता था, इंद्र वर्षा और युद्ध के देवता थे, वरुण जल और न्याय के देवता थे, सूर्य प्रकाश और ऊर्जा के देवता थे, और विष्णु पालनहार और संरक्षक के रूप में पूजे जाते थे।
प्रश्न 10:- सिंधु घाटी सभ्यता में पाए जाने वाले प्रमुख धातु कौन सी थीं?
उत्तर:- सिंधु घाटी सभ्यता में प्रमुख धातुओं में कांस्य (ताम्र मिश्र धातु), सोना और चांदी शामिल थीं। कांस्य का उपयोग औजार, हथियार और मूर्तिकला के लिए किया जाता था। सोना और चांदी का उपयोग आभूषण और व्यापार में महत्वपूर्ण थे, जिससे आर्थिक समृद्धि बढ़ती थी।
प्रश्न 11:- वैदिक काल की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार क्या था?
उत्तर:- वैदिक काल की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था। कृषि में धान, गेहूं, और अन्य अनाज की खेती प्रमुख थी। इसके अलावा पशुपालन, व्यापार, और हस्तशिल्प भी अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। समाज की समृद्धि कृषि पर निर्भर थी।
प्रश्न 12:- सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के संभावित कारणों का एक उदाहरण दें।
उत्तर:- सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के संभावित कारणों में पर्यावरणीय परिवर्तन, जैसे नदी का मार्ग बदलना या सूखा पड़ना शामिल है। यह बदलाव कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव डालते थे, जिससे अर्थव्यवस्था कमजोर हुई और शहरों का पतन हुआ। अन्य कारणों में आक्रमण और शहरीकरण में कमी भी हो सकते हैं।