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Course: हिंदी काव्य (सेमेस्टर -1)
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यूनिट-1: हिंदी काव्य

 

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न 1:- आदिकाल और मध्यकाल हिंदी काव्य के विकास में महत्वपूर्ण कालखंड माने जाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हिंदी साहित्य के काल विभाजन, नामकरण, और इस युग की साहित्यिक प्रवृत्तियों पर विस्तार से चर्चा करें। आदिकाल में रासो साहित्य और मध्यकाल में भक्ति आंदोलन की भूमिका पर भी प्रकाश डालें।

उत्तर:- आदिकालीन और मध्यकालीन हिंदी काव्य का इतिहास

हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने के लिए इसे विभिन्न कालखंडों में विभाजित किया गया है, जिनमें से आदिकाल और मध्यकाल विशेष रूप से महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इन दोनों कालों में हिंदी काव्य के विकास ने भारतीय समाज और संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया। इन कालखंडों में साहित्यिक प्रवृत्तियाँ और विषय-वस्तु में भारी परिवर्तन देखने को मिलता है। आदिकालीन साहित्य वीर रस प्रधान था, जबकि मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के कारण भक्ति काव्य का प्रमुख स्थान था। इस उत्तर में हम हिंदी साहित्य के काल विभाजन, नामकरण, और आदिकाल व मध्यकाल की साहित्यिक प्रवृत्तियों पर विस्तार से चर्चा करेंगे, साथ ही आदिकाल में रासो साहित्य और मध्यकाल में भक्ति आंदोलन की भूमिका पर भी प्रकाश डालेंगे।

हिंदी साहित्य का काल विभाजन

हिंदी साहित्य के इतिहास को प्रमुख रूप से चार कालखंडों में विभाजित किया गया है:

1. आदिकाल (1050-1375 ई.): इस काल को वीरगाथा काल या रासो काल भी कहा जाता है। इस युग में वीर रस प्रधान काव्य की रचना हुई।

2. मध्यकाल (1375-1700 ई.): इस काल में भक्ति काव्य और रीतिकाव्य का प्रचलन हुआ। यह काल भक्ति आंदोलन और रीति परंपरा के विकास का काल था।

3. आधुनिक काल (1850 से वर्तमान): आधुनिक काल में राष्ट्रवाद, सामाजिक सुधार, और नवजागरण से प्रभावित साहित्य का विकास हुआ।

यह काल विभाजन हिंदी साहित्य के विकास को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि प्रत्येक काल में साहित्यिक प्रवृत्तियाँ, काव्य-शैली और विषय-वस्तु अलग-अलग रहीं।

आदिकाल: रासो साहित्य का योगदान

आदिकालीन हिंदी साहित्य को वीरगाथा काल भी कहा जाता है। इस युग में प्रमुख रूप से वीर रस की प्रधानता रही और अधिकांश काव्य रचनाएँ राजा-महाराजाओं के शौर्य, युद्ध और वीरता के वर्णन पर आधारित थीं। यह काल उस समय के सामंती समाज और राजपूताना संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता था।

रासो साहित्य

रासो साहित्य इस युग की प्रमुख विशेषता है। रासो ग्रंथों में वीरता, साहस, और युद्धों का वर्णन मिलता है। इसमें प्रमुख कवि चंदबरदाई का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने “पृथ्वीराज रासो” की रचना की। इस ग्रंथ में पृथ्वीराज चौहान और उनके युद्धों का विस्तृत वर्णन है। “पृथ्वीराज रासो” एक महाकाव्य के रूप में लिखा गया है और इसे हिंदी साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। इसके अलावा, इस काल के अन्य प्रमुख रासो काव्यकारों में जगनिक (अल्हा-खण्ड) और दलपत विजय (खुमाण रासो) का नाम लिया जाता है।

रासो साहित्य में राजा और राजाओं के प्रति निष्ठा, वीरता का वर्णन, युद्ध कौशल, और समाज में नारी के प्रति आदरभाव की झलक मिलती है। इस साहित्य में वीरता और साहस के साथ-साथ, उस समय के राजनीतिक और सामाजिक हालात का भी चित्रण मिलता है। रासो साहित्य में काव्य भाषा प्राचीन हिंदी और अपभ्रंश के मिश्रण से विकसित हुई थी, जो सरल और प्रचलित बोलचाल की भाषा थी।

आदिकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियाँ

आदिकाल की साहित्यिक प्रवृत्तियों में वीर रस का प्रमुख स्थान था। इस काल में कवियों ने राजाओं की वीरता, पराक्रम, और शौर्य की कहानियाँ रचीं। मुख्यत: वीरगाथाओं का ही सृजन हुआ, जिनका उद्देश्य समाज में वीरता और साहस की भावना को बढ़ावा देना था। इसके अलावा, धार्मिक काव्य रचनाएँ भी इस काल में लिखी गईं। इस युग के कवियों ने अपने राजा के प्रति निष्ठा और आदर भाव का सजीव चित्रण किया।

आदिकालीन कवियों ने काव्य को कथानक के रूप में प्रस्तुत किया और राजा-महाराजाओं के शौर्य, युद्धकला और धार्मिक विषयों पर आधारित कविताओं की रचना की। यद्यपि इस काल का साहित्य वीर रस प्रधान था, लेकिन इसके साथ ही भक्ति और प्रेम के भी प्रारंभिक बीज इस युग में देखने को मिलते हैं।

मध्यकाल: भक्ति आंदोलन का योगदान

मध्यकाल हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्ति काल के रूप में प्रसिद्ध है। यह काल भक्ति आंदोलन से प्रभावित था, जिसमें धार्मिक भक्ति और समाज सुधार के तत्व प्रमुख थे। इस युग में भक्तिकाव्य की प्रधानता रही और साहित्य में धार्मिक और आध्यात्मिक भावनाओं का उदय हुआ। भक्ति काल को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:

1. निर्गुण भक्ति धारा: इसमें निर्गुण भक्ति का प्रचार हुआ, जिसमें ईश्वर को निराकार माना गया। इसके प्रमुख कवि कबीरदास, रैदास, और गुरु नानक थे।

2. सगुण भक्ति धारा: इसमें सगुण भक्ति का प्रचार हुआ, जिसमें ईश्वर को साकार रूप में पूजा गया। इसके प्रमुख कवि सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई आदि थे।

भक्ति आंदोलन

मध्यकाल का सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक आंदोलन भक्ति आंदोलन था। यह आंदोलन उस समय के धार्मिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक परिवर्तनों का परिणाम था। भक्ति आंदोलन का मुख्य उद्देश्य धर्म को जन-जन तक पहुँचाना और समाज में व्याप्त भेदभाव, जाति-प्रथा और धार्मिक कर्मकांडों का विरोध करना था।

भक्ति आंदोलन के दो प्रमुख स्वरूप थे – निर्गुण और सगुण भक्ति। निर्गुण भक्ति में ईश्वर को निराकार और निर्गुण माना जाता था, जबकि सगुण भक्ति में ईश्वर को साकार और गुणमय मानकर पूजा की जाती थी। इस आंदोलन ने समाज के निचले तबकों को धार्मिक साहित्य से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भक्ति काव्य का उद्देश्य समाज को एकता, प्रेम और भक्ति के सूत्र में बाँधना था।

निर्गुण भक्ति धारा

निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख कवियों में कबीरदास, रैदास, और गुरु नानक का नाम आता है। इस धारा के कवियों ने ईश्वर को निराकार और सर्वव्यापी माना। कबीरदास ने अपने दोहों के माध्यम से सामाजिक भेदभाव और आडंबरों का विरोध किया। उन्होंने मानवता और प्रेम के आदर्शों पर बल दिया। उनके काव्य में सरल भाषा, व्यंग्य, और तर्कपूर्ण विचारधारा का समावेश मिलता है।

सगुण भक्ति धारा

सगुण भक्ति धारा में ईश्वर को साकार रूप में पूजा जाता था। इस धारा के कवियों में तुलसीदास, सूरदास, और मीराबाई प्रमुख थे। तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ की रचना की, जो भगवान राम के जीवन पर आधारित एक महाकाव्य है। सूरदास ने भगवान कृष्ण के बाल रूप का वर्णन किया और उनकी रचनाओं में भक्ति का मार्मिक चित्रण मिलता है। मीराबाई ने अपने काव्य में कृष्ण प्रेम की भावना को अभिव्यक्त किया।

मध्यकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियाँ

मध्यकालीन साहित्य में भक्ति रस की प्रधानता थी। इस काल में भक्त कवियों ने धार्मिक भक्ति, समाज सुधार, और प्रेम की भावना पर आधारित काव्य की रचना की। इस युग में प्रेम और भक्ति के साथ-साथ समाज सुधार की प्रवृत्तियाँ भी देखने को मिलती हैं। मध्यकाल में हिंदी साहित्य को जनसाधारण तक पहुँचाने के लिए सरल और प्रचलित भाषाओं का उपयोग किया गया, जैसे अवधी, ब्रजभाषा, और भोजपुरी। इस युग के कवियों ने समाज में व्याप्त असमानताओं और कुरीतियों का विरोध किया और एकता, प्रेम, और समरसता की भावना को बढ़ावा दिया।

निष्कर्ष

आदिकाल और मध्यकाल हिंदी साहित्य के विकास के महत्वपूर्ण कालखंड हैं। आदिकाल में रासो साहित्य ने वीरता और शौर्य का वर्णन किया, जबकि मध्यकाल में भक्ति आंदोलन ने धार्मिक और सामाजिक सुधार की दिशा में साहित्य को प्रेरित किया। आदिकाल का साहित्य जहाँ वीरता और राजसी गौरव का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं मध्यकाल का साहित्य भक्ति, प्रेम, और समाज सुधार के आदर्शों को प्रकट करता है। इन दोनों कालों की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ भिन्न थीं, लेकिन दोनों ही कालों का हिंदी साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा।

 

प्रश्न 2:- भक्ति आंदोलन के उदय के सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों पर चर्चा करें। भक्तिकाल के प्रमुख संप्रदायों (सगुण और निर्गुण) और उनके वैचारिक आधार को स्पष्ट करते हुए, इस काल के प्रमुख कवियों और उनके काव्य की विशेषताओं पर विस्तार से लिखें।

उत्तर:- भक्ति आंदोलन भारतीय इतिहास के मध्यकाल का एक महत्वपूर्ण धार्मिक और साहित्यिक आंदोलन था, जिसने भारतीय समाज, संस्कृति और साहित्य को गहरे रूप से प्रभावित किया। यह आंदोलन मुख्यतः धर्म की नई व्याख्या, समाज में हो रहे बड़े परिवर्तनों और धार्मिक पुनरुत्थान के रूप में सामने आया। भक्ति आंदोलन का प्रभाव हिंदी साहित्य पर अत्यंत गहरा रहा, विशेषकर भक्ति काव्य के क्षेत्र में। इस काव्य धारा में आध्यात्मिकता, समाज सुधार और मानवता का संदेश था, जिसे भिन्न-भिन्न कवियों ने अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया।

भक्ति आंदोलन के उदय के सामाजिक और सांस्कृतिक कारण

·       सामाजिक कारण: भक्ति आंदोलन के उदय के सामाजिक कारणों में समाज की तत्कालीन स्थिति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मध्यकालीन भारत में मुस्लिम शासकों का शासन था, और इससे हिंदू समाज में सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक बदलाव देखे जा रहे थे। इस समय, समाज में वर्ण व्यवस्था कठोर हो चुकी थी, और जाति-प्रथा के कारण लोगों में गहरा विभाजन था। निम्न वर्ग और शूद्रों को मंदिरों और धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने का अधिकार नहीं था। यह भेदभाव समाज के एक बड़े हिस्से को पीड़ित कर रहा था, जिससे धार्मिक और सामाजिक असंतोष बढ़ता जा रहा था।

दूसरी ओर, आर्थिक रूप से भी समाज में भारी असमानताएँ थीं। मुस्लिम आक्रमणों के कारण राजनैतिक अस्थिरता और आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया था। गाँवों में किसान और मजदूर वर्ग शोषण का शिकार हो रहे थे। साथ ही, नगरों में व्यापार और व्यावसायिक समुदाय के बीच आर्थिक विषमता बढ़ रही थी। इस असमानता और शोषण से निचले वर्ग में असंतोष और निराशा उत्पन्न हुई, जो बाद में भक्ति आंदोलन का आधार बनी।

·       सांस्कृतिक कारण: सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाए तो भारत में इस समय संस्कृत भाषा का प्रभुत्व था, जो केवल उच्च वर्ग के लोगों के लिए सुलभ थी। निम्न वर्ग और समाज के अन्य हिस्सों को धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भाग लेने के लिए कोई स्थान नहीं दिया गया था। इसके अलावा, समाज में अंधविश्वास, कर्मकांड और धार्मिक कट्टरता भी व्याप्त थी। इस धार्मिक कट्टरता के कारण समाज में अलगाव और विघटन की स्थिति उत्पन्न हो रही थी।

इस धार्मिक संकट के समय में भक्ति आंदोलन ने एक नई धार्मिक धारा प्रस्तुत की, जो सरल और सहज थी। इसमें ईश्वर की आराधना का माध्यम कोई कर्मकांड नहीं, बल्कि प्रेम, भक्ति और समर्पण था। यह धार्मिक आंदोलन संस्कृत की बजाय सरल जनभाषाओं, जैसे ब्रज, अवधी और हिंदी के माध्यम से फैलाया गया, जिससे यह व्यापक समाज में लोकप्रिय हो गया।

भक्ति आंदोलन के प्रमुख संप्रदाय

भक्ति आंदोलन के तहत दो प्रमुख संप्रदाय उभरकर सामने आए: सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति। इन दोनों संप्रदायों की भक्ति में ईश्वर के स्वरूप, उपासना और धार्मिक दृष्टिकोण में भिन्नता थी।

1. सगुण भक्ति संप्रदाय

सगुण भक्ति का अर्थ है कि ईश्वर का साकार रूप में उपासना करना। सगुण भक्त कवियों ने ईश्वर के अवतारों को मान्यता दी और उनकी उपासना की। इस संप्रदाय में भगवान राम और कृष्ण की पूजा की जाती थी। सगुण भक्ति मुख्यतः दो प्रकारों में विभाजित है:

·       रामभक्ति संप्रदाय: इस संप्रदाय के कवियों ने भगवान राम को आदर्श पुरुष और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रस्तुत किया। रामभक्ति काव्य में आदर्श नैतिकता, धर्म, और कर्तव्य की महत्ता पर जोर दिया गया। इस संप्रदाय के प्रमुख कवि तुलसीदास थे, जिनकी रचना “रामचरितमानस” हिंदी साहित्य की महानतम काव्य कृतियों में से एक मानी जाती है। रामचरितमानस में तुलसीदास ने राम के जीवन के विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से धर्म, भक्ति, और कर्तव्य का संदेश दिया।

·       कृष्णभक्ति संप्रदाय: कृष्णभक्ति काव्य में भगवान कृष्ण को लीला पुरुषोत्तम और प्रेम के आदर्श के रूप में देखा गया। कृष्णभक्ति काव्य में कृष्ण और राधा के प्रेम प्रसंगों के माध्यम से भक्ति और प्रेम की भावना का चित्रण किया गया। इस संप्रदाय के प्रमुख कवि सूरदास थे, जिनकी रचना “सूरसागर” में कृष्ण की बाल लीलाओं और राधा-कृष्ण के प्रेम का वर्णन किया गया है। सूरदास के काव्य में भक्ति, प्रेम, और माधुर्य भाव की प्रधानता रही है।

2. निर्गुण भक्ति संप्रदाय

निर्गुण भक्ति का अर्थ है कि ईश्वर का निराकार रूप में उपासना करना। इस संप्रदाय के भक्तों ने ईश्वर को बिना किसी रूप, आकार, या अवतार के रूप में माना और उनका ध्यान मात्र भक्ति और ज्ञान के माध्यम से किया। निर्गुण भक्ति संप्रदाय मुख्यतः दो शाखाओं में विभाजित था:

·       ज्ञानाश्रयी शाखा: इस शाखा के कवि ईश्वर को ज्ञान के माध्यम से समझने और प्राप्त करने का मार्ग बताते थे। इनका मानना था कि ईश्वर को जानने के लिए मनुष्य को अज्ञानता और अंधविश्वास से मुक्त होना आवश्यक है। इस शाखा के प्रमुख कवि कबीर थे। कबीरदास ने अपने दोहों के माध्यम से अज्ञानता, अंधविश्वास, और धार्मिक कट्टरता पर प्रहार किया और लोगों को सत्य की खोज के लिए प्रेरित किया। कबीर की कविता में भक्ति, ज्ञान, और सामाजिक सुधार के तत्व मौजूद हैं। उनके दोहे आज भी सामाजिक और धार्मिक संदर्भों में प्रासंगिक हैं।

·       प्रेमाश्रयी शाखा: इस शाखा के कवि ईश्वर को प्रेम के माध्यम से पाने का मार्ग सुझाते थे। इनके अनुसार, ईश्वर को प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग भक्ति और प्रेम है, जिसमें भक्त और ईश्वर का संबंध प्रेम पर आधारित होता है। इस शाखा के प्रमुख कवि दादू दयाल और रैदास थे। रैदास के काव्य में सामाजिक समानता और प्रेम का गहरा संदेश था। उनके भक्ति गीतों में ईश्वर के प्रति प्रेम और समाज में हो रहे अन्याय के खिलाफ संघर्ष की भावना व्यक्त होती है।

भक्तिकाल के प्रमुख कवि और उनके काव्य की विशेषताएँ

भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में तुलसीदास, सूरदास, कबीर, मीरा, रैदास, दादू दयाल, और मलिक मोहम्मद जायसी प्रमुख थे। इन कवियों की रचनाओं में भक्ति, प्रेम, और आध्यात्मिकता की प्रधानता रही है। उनके काव्य में धर्म और समाज सुधार का संदेश भी स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।

1.     तुलसीदास: तुलसीदास के काव्य में आदर्श नैतिकता और धार्मिकता की प्रधानता रही है। रामचरितमानस में उन्होंने राम के जीवन के माध्यम से धर्म और कर्तव्य का आदर्श प्रस्तुत किया। उनके काव्य में भक्ति और कर्तव्य का अद्भुत समन्वय है।

2.    सूरदास: सूरदास के काव्य में प्रेम और माधुर्य भाव की प्रधानता रही है। उन्होंने कृष्ण की बाल लीलाओं और राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंगों का सजीव चित्रण किया। सूरदास के पदों में भक्ति और प्रेम का अद्वितीय संतुलन मिलता है।

3.    कबीर: कबीर के काव्य में सामाजिक सुधार और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ विद्रोह का स्वर प्रमुख रूप से मिलता है। उनके दोहों में भक्ति, ज्ञान, और समाज सुधार का संदेश है। कबीर ने समाज में फैले अंधविश्वास और धार्मिक कट्टरता पर प्रहार किया।

4.    मीरा: मीरा की रचनाएँ कृष्ण के प्रति उनके अद्वितीय प्रेम और भक्ति को दर्शाती हैं। मीरा ने अपने काव्य के माध्यम से कृष्ण को अपना आराध्य माना और उनके प्रति अपने अनन्य प्रेम का चित्रण किया।

5.    मलिक मोहम्मद जायसी: जायसी के काव्य में प्रेम और भक्ति का अद्वितीय समन्वय मिलता है। उनकी रचना “पद्मावत” में प्रेम, भक्ति, और सामाजिक समरसता का संदेश दिया गया है।

निष्कर्ष

भक्ति आंदोलन ने हिंदी साहित्य और समाज में गहरे सांस्कृतिक और धार्मिक परिवर्तन लाए। इसने समाज में फैले अंधविश्वास, जातिगत भेदभाव और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ एक सशक्त स्वर दिया। भक्ति कवियों ने सरल और जनभाषा में अपनी रचनाओं के माध्यम से भक्ति, प्रेम, और समाज सुधार का संदेश फैलाया। भक्तिकालीन काव्य में जहाँ एक ओर सगुण भक्ति के माध्यम से ईश्वर के साकार रूप की उपासना की गई, वहीं निर्गुण भक्ति में निराकार ईश्वर की आराधना की गई।

 

प्रश्न 3:- हिंदी काव्य के विकास में सिद्ध, जैन, रासो और नाथ साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन साहित्यिक धाराओं की विशेषताओं, इनके प्रमुख कवियों और उनके योगदान पर विस्तार से चर्चा करें।

उत्तर:- हिंदी काव्य का इतिहास विविध साहित्यिक धाराओं और परंपराओं का संगम है, जिनमें सिद्ध, जैन, रासो और नाथ साहित्य की विशेष भूमिका रही है। इन साहित्यिक धाराओं ने हिंदी काव्य के विकास को महत्वपूर्ण दिशा दी और इसने न केवल समाज के साहित्यिक दृष्टिकोण को बदला बल्कि उस समय की सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थितियों को भी प्रतिबिंबित किया। इस विस्तृत लेख में हम इन साहित्यिक धाराओं की विशेषताओं, उनके प्रमुख कवियों और उनके योगदान की विस्तार से चर्चा करेंगे।

1. सिद्ध साहित्य

विशेषताएँ:

सिद्ध साहित्य, 8वीं से 12वीं शताब्दी के बीच विकसित हुआ। यह साहित्य बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा के अनुयायियों द्वारा लिखा गया था, जिनमें तांत्रिक साधना का प्रमुख स्थान था। सिद्ध साहित्य में रहस्यवाद, साधना और योग का मिश्रण दिखाई देता है। इसमें सरल और सहज भाषा का प्रयोग हुआ है, जो आम जनमानस तक आसानी से पहुंच सके। इस साहित्य का मुख्य उद्देश्य आत्मज्ञान और मुक्ति की प्राप्ति था, इसलिए इसकी भाषा में प्रतीकात्मकता और संक्षिप्तता प्रमुख है।

प्रमुख कवि:

सिद्ध साहित्य के प्रमुख कवियों में सरहपा, शबरपा, लुइपा और कन्हपा का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन कवियों ने अपने पदों और रचनाओं के माध्यम से जीवन की गूढ़ समस्याओं, साधना के महत्व और आत्मा की शुद्धता पर ध्यान केंद्रित किया। सिद्धों की भाषा सहज और सजीव थी, जिसमें प्राकृतिक प्रतीकों का व्यापक उपयोग होता था, जैसे नदी, पर्वत, आकाश आदि।

योगदान:

सिद्ध कवियों का योगदान हिंदी काव्य में मौलिक विचारधारा को प्रस्तुत करने में रहा। इन्होंने भक्ति और साधना की एक नई दिशा दी और आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए लोगों को प्रेरित किया। सिद्ध कवियों के गीत-कोमल भावनाओं और उच्च आदर्शों से भरे होते थे, जो मनुष्य को आत्म-निरीक्षण और साधना की प्रेरणा देते थे। इनकी रचनाएँ हिंदी काव्य में साधना और योगमार्ग की प्रमुखता को दर्शाती हैं।

2. जैन साहित्य

विशेषताएँ:

जैन साहित्य का विकास मुख्यतः 10वीं से 14वीं शताब्दी के बीच हुआ। जैन धर्म के अनुयायियों ने अपने धार्मिक और दार्शनिक विचारों को काव्य के माध्यम से प्रस्तुत किया। जैन साहित्य मुख्यतः प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं में लिखा गया, लेकिन इसका हिंदी साहित्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। जैन साहित्य में धर्म, अहिंसा, संयम, तपस्या, और मोक्ष की प्राप्ति पर विशेष ध्यान दिया गया है।

प्रमुख कवि:

जैन साहित्य के प्रमुख कवियों में हेमचंद्राचार्य, जिनसेन, सोमदेव और मल्लिनाथ का नाम उल्लेखनीय है। इन कवियों ने जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांतों को सरल भाषा में प्रस्तुत किया। हेमचंद्राचार्य की रचनाएँ विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने जैन धर्म की विचारधारा को साहित्य के माध्यम से व्यापक स्तर पर पहुंचाया।

योगदान:

जैन कवियों ने हिंदी काव्य को नैतिकता, संयम और धर्म का पाठ पढ़ाया। इनके काव्य में सांसारिक मोह-माया से मुक्ति, आत्मसंयम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रेरणा दी गई। जैन साहित्य ने हिंदी काव्य को धर्म और नैतिकता के साथ जोड़ते हुए इसे और गहराई प्रदान की। साथ ही, जैन कवियों ने हिंदी काव्य को धर्म और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

3. रासो साहित्य

विशेषताएँ:

रासो साहित्य हिंदी के वीरगाथा काल का प्रमुख अंग है। यह साहित्य मुख्यतः राजाओं, युद्धों, और वीरता की कहानियों पर आधारित था। रासो साहित्य 12वीं से 15वीं शताब्दी के बीच प्रमुखता से लिखा गया। इस साहित्य की भाषा ब्रजभाषा, अवधी और राजस्थानी की पुरानी बोलियों में थी। इसमें वीर रस की प्रधानता थी, और इसमें नायक-नायिका की वीरता, युद्ध के दृश्य, और राजाओं के शौर्य का विशेष वर्णन मिलता है।

प्रमुख कवि:

रासो साहित्य के प्रमुख कवियों में चंदबरदाई, जगनिक और दलपत विजय का नाम प्रमुख है। चंदबरदाई की प्रसिद्ध रचना पृथ्वीराज रासो है, जिसमें पृथ्वीराज चौहान के वीरता का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार, जगनिक की अल्हा-खंड वीरता और युद्ध का विस्तृत वर्णन करती है, जो आज भी लोकगीतों में गाई जाती है।

योगदान:

रासो साहित्य ने हिंदी काव्य में वीरता, साहस और शौर्य का स्तुतिगान किया। इस साहित्य ने राजाओं के शौर्य को अमर किया और उस समय की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया। रासो साहित्य ने हिंदी काव्य को लोककथाओं और वीरगाथाओं की दिशा में विस्तारित किया और भारतीय साहित्य को राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित किया।

4. नाथ साहित्य

विशेषताएँ:

नाथ साहित्य मुख्यतः योग और तांत्रिक साधना पर आधारित है। नाथपंथ के अनुयायियों ने अपने साधनात्मक अनुभवों और योग के रहस्यों को पदों और कविताओं के रूप में प्रस्तुत किया। नाथ साहित्य में धार्मिक साधना, योग और आत्मानुभूति का विशेष स्थान है। नाथ साहित्य की भाषा आम बोलचाल की होती थी, जिससे यह समाज के सभी वर्गों में लोकप्रिय हुआ।

प्रमुख कवि:

नाथ साहित्य के प्रमुख कवियों में गोरखनाथ का नाम सबसे प्रमुख है। गोरखनाथ ने नाथपंथ के प्रमुख सिद्धांतों को अपने पदों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनके पदों में योग और साधना के गूढ़ रहस्यों का वर्णन मिलता है। गोरखनाथ के अलावा, जालंधरनाथ और मच्छेंद्रनाथ जैसे कवियों ने भी नाथ साहित्य के विकास में योगदान दिया।

योगदान:

नाथ साहित्य ने हिंदी काव्य में योग और साधना की धारा को मजबूत किया। इस साहित्य ने धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन के महत्व को बढ़ाया और साधना के गूढ़ रहस्यों को जनसाधारण के सामने प्रस्तुत किया। नाथपंथ के कवियों ने समाज के हर वर्ग तक योग और साधना की सरलता को पहुंचाने का प्रयास किया, जिससे नाथ साहित्य हिंदी काव्य के विकास में एक महत्वपूर्ण धारा बना।

निष्कर्ष:

सिद्ध, जैन, रासो और नाथ साहित्य ने हिंदी काव्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन साहित्यिक धाराओं ने न केवल हिंदी काव्य को विभिन्न दिशाओं में विस्तारित किया, बल्कि समाज, धर्म और राजनीति के विभिन्न पहलुओं को भी काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया। सिद्ध साहित्य ने साधना और आत्मज्ञान की ओर प्रेरित किया, जैन साहित्य ने नैतिकता और धर्म का संदेश दिया, रासो साहित्य ने वीरता और साहस को प्रतिष्ठित किया, और नाथ साहित्य ने योग और साधना की गूढ़ता को सामने रखा।

इन धाराओं के प्रमुख कवियों ने हिंदी काव्य को न केवल एक नया आयाम दिया, बल्कि इसे समाज के विभिन्न वर्गों तक पहुँचाया। इनकी रचनाओं ने हिंदी साहित्य को समृद्ध और व्यापक बनाया। इस प्रकार, सिद्ध, जैन, रासो और नाथ साहित्य का हिंदी काव्य के विकास में विशेष स्थान है, जो आज भी साहित्यिक धरोहर के रूप में प्रतिष्ठित है।

 

प्रश्न 4:- रीतिकाल की सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझाते हुए, रीतिकालीन साहित्य का नामकरण, प्रवृत्तियाँ और इस युग की साहित्यिक विशेषताओं पर विस्तार से लिखें। रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीति मुक्त साहित्य के भेदों की भी व्याख्या करें।

उत्तर:- रीतिकालीन हिंदी काव्य हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण युग है, जो लगभग 1700 ईस्वी से 1850 ईस्वी के मध्य रहा। इस युग में काव्य का स्वरूप और भाषा शैली में बहुत परिवर्तन हुआ। रीतिकाल का साहित्य मुख्यतः दरबारी संस्कृति से प्रभावित था और इसमें शृंगार रस की प्रधानता थी। रीतिकालीन साहित्य के अध्ययन के लिए उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझना अत्यंत आवश्यक है। इसके अलावा, रीतिकालीन साहित्य का नामकरण, उसकी प्रवृत्तियाँ, और साहित्यिक विशेषताओं के साथ-साथ रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीति मुक्त साहित्य का वर्गीकरण भी समझना महत्वपूर्ण है।

रीतिकाल की सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

रीतिकालीन साहित्य की पृष्ठभूमि को समझने के लिए उस समय के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश का अध्ययन आवश्यक है। यह युग भारतीय समाज में राजनीतिक अस्थिरता और राजपूत दरबारों के उत्थान का काल था। मुगलों की सत्ता का पतन और राजपूत राजाओं का सत्ता में आना, उस समय के साहित्यिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव डालता है। इस युग में सत्ता की अस्थिरता के कारण समाज में असुरक्षा और अशांति का वातावरण व्याप्त था, परंतु राजपूत राजाओं ने अपने दरबारों में साहित्य, कला, और संस्कृति को बढ़ावा दिया।

राजपूत शासक अपनी प्रतिष्ठा और साम्राज्य की सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे, परंतु साथ ही उन्होंने अपने दरबारों में कवियों और कलाकारों को संरक्षण दिया। रीतिकाल में कवि दरबारों से जुड़े हुए थे और वे राजाओं की प्रशंसा, नायक-नायिका भेद और शृंगारिक वर्णन जैसे विषयों पर काव्य रचते थे।

इस समय की सामाजिक संरचना भी जटिल थी। उच्च वर्ग का जीवन विलासिता और आनंद से भरा हुआ था, जबकि सामान्य जन असुरक्षा और कठिनाइयों का सामना कर रहे थे। दरबारों में साहित्य और कला का विकास हो रहा था, लेकिन वह अधिकतर शासक वर्ग तक ही सीमित था। इस प्रकार रीतिकालीन साहित्य में समाज का उच्च वर्ग प्रमुख रूप से चित्रित हुआ है।

रीतिकालीन साहित्य का नामकरण

रीतिकाल का नामकरण हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। “रीति” का अर्थ है ‘नियम’ या ‘प्रणाली’, और रीतिकालीन साहित्य का नामकरण इस तथ्य को दर्शाता है कि इस युग में काव्य की रचना विशेष रूप से काव्यशास्त्र के नियमों और शैली के आधार पर की गई थी। इस काल में काव्य रचना के लिए संस्कृत साहित्य और शास्त्रों के नियमों का अनुकरण किया गया।

रीतिकाल के साहित्य में ‘रीति’ का महत्व था, जिसका तात्पर्य है कि कवियों ने अपने काव्य में अलंकार, रस, छंद और नायक-नायिका भेद का विस्तृत उपयोग किया। इस काल के कवि शास्त्रीय काव्यशास्त्र से अत्यधिक प्रभावित थे और उन्होंने काव्य में विशेष प्रकार की प्रणाली का पालन किया। इसी कारण से इस युग को ‘रीतिकाल’ के नाम से जाना जाता है।

रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ

रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं:

1. दरबारी संस्कृति का प्रभाव: रीतिकाल के कवि दरबारों से जुड़े होते थे और वे राजाओं की प्रशंसा में काव्य रचते थे। इस युग में राजाओं और दरबारियों की विलासितापूर्ण जीवन शैली को प्रमुख रूप से चित्रित किया गया। इस प्रवृत्ति के कारण रीतिकालीन साहित्य शृंगार रस और नायक-नायिका भेद पर केंद्रित था।

2. शृंगार रस की प्रधानता: रीतिकालीन काव्य में शृंगार रस की विशेष प्रधानता थी। कवियों ने नायिका के सौंदर्य, प्रेम, और विलासिता का सुंदर चित्रण किया। नायिका के अंग-प्रत्यंग, उसके सौंदर्य के विभिन्न पहलुओं और प्रेम की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन बड़े ही सुंदर और सजीव ढंग से किया गया।

3. अलंकारों का प्रयोग: रीतिकालीन काव्य में अलंकारों का अत्यधिक प्रयोग हुआ है। कवियों ने शब्द और अर्थ के सौंदर्य को बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया। उपमा, रूपक, अनुप्रास, यमक, और श्लेष जैसे अलंकारों का काव्य में विशेष स्थान था।

4. नायक-नायिका भेद: रीतिकालीन काव्य में नायक-नायिका भेद की प्रवृत्ति प्रचलित थी। इसमें नायकों और नायिकाओं के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया गया, जैसे कि स्वकीया, परकीया, और सांधारणी नायिका। इस प्रकार के भेदों का उद्देश्य प्रेम और शृंगार के विभिन्न आयामों का चित्रण करना था।

5. काव्यशास्त्र के नियमों का पालन: इस काल के कवि काव्यशास्त्र के नियमों का पालन करते थे और उन्होंने काव्य में रस, अलंकार, और छंद का बारीकी से प्रयोग किया। काव्यशास्त्र के सिद्धांतों का अनुकरण करते हुए उन्होंने काव्य की रचना की।

रीतिकालीन साहित्य की विशेषताएँ

रीतिकालीन साहित्य की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

1. दरबारी साहित्य: रीतिकाल में साहित्य दरबारी संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित था। कवियों ने राजाओं की प्रशंसा में काव्य रचते हुए उनकी वीरता, उदारता और शक्ति का गुणगान किया।

2. नायक-नायिका के संबंध: रीतिकालीन साहित्य में नायक-नायिका के प्रेम संबंधों का सुंदर और विस्तृत वर्णन मिलता है। नायिका के सौंदर्य का अलंकारिक रूप से चित्रण किया गया और प्रेम के विभिन्न आयामों को प्रस्तुत किया गया।

3. रस प्रधानता: रीतिकालीन काव्य में शृंगार रस की प्रधानता थी, जिसमें संयोग और वियोग दोनों का वर्णन होता था। संयोग में नायक-नायिका का मिलन और प्रेम की मधुरता होती थी, जबकि वियोग में प्रेम की पीड़ा और विरह के दुख का वर्णन किया जाता था।

4. अलंकार और छंद: रीतिकालीन काव्य में अलंकारों और छंदों का अत्यधिक प्रयोग किया गया। कवियों ने काव्य को सजीव और सुंदर बनाने के लिए शब्द और अर्थ के सौंदर्य को बढ़ाने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया।

रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीति मुक्त साहित्य

रीतिकालीन साहित्य को तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है: रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीति मुक्त साहित्य। इन तीनों की व्याख्या निम्नलिखित है:

1. रीतिबद्ध साहित्य: रीतिबद्ध साहित्य वह साहित्य है जिसमें काव्यशास्त्र के नियमों और परंपराओं का कड़ाई से पालन किया गया है। इस साहित्य में कवियों ने रस, अलंकार, और नायक-नायिका भेद जैसे काव्यशास्त्र के सिद्धांतों का अनुसरण किया है। रीतिबद्ध साहित्य में प्रेम और शृंगार के वर्णन में विशेष प्रकार के नियमों का पालन किया गया है।

2. रीतिसिद्ध साहित्य: रीतिसिद्ध साहित्य में काव्यशास्त्र के नियमों का पालन किया गया है, लेकिन कवि अपनी स्वतंत्रता का भी उपयोग करते हैं। इस साहित्य में काव्यशास्त्र के नियमों के साथ-साथ कवि की रचनात्मकता और व्यक्तिगत शैली का मेल दिखाई देता है।

3. रीति मुक्त साहित्य: रीति मुक्त साहित्य वह साहित्य है जिसमें काव्यशास्त्र के नियमों और परंपराओं का अनुसरण नहीं किया गया। इस प्रकार के साहित्य में कवियों ने स्वतंत्र रूप से अपनी भावनाओं और विचारों को अभिव्यक्त किया। इसमें नायिका के सौंदर्य या शृंगार का वर्णन नहीं, बल्कि सामाजिक, धार्मिक और नैतिक विषयों का वर्णन अधिकतर होता था।

निष्कर्ष

रीतिकालीन हिंदी काव्य हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण युग है जो दरबारी संस्कृति, शृंगार रस और काव्यशास्त्र के नियमों से प्रभावित था। इस युग का साहित्य न केवल शृंगारिक था, बल्कि उसमें काव्यशास्त्र के नियमों का कड़ाई से पालन भी किया गया था। रीतिकालीन साहित्य को रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीति मुक्त साहित्य में विभाजित किया जा सकता है, जो इस युग के साहित्यिक विकास और परिवर्तन को दर्शाता है।

 

प्रश्न 5:- भारतीय ज्ञान परंपरा का हिंदी साहित्य के विकास में क्या योगदान रहा है? इस परंपरा के अंतर्गत हिंदी काव्य के विकास, इतिहास लेखन की परंपरा, और साहित्य के स्वरूप पर विस्तार से विचार करें।

उत्तर:- भारतीय ज्ञान परंपरा और हिंदी साहित्य का संबंध अत्यंत गहरा और प्राचीन है। यह परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है, जिसमें दर्शन, धर्म, कला, संस्कृति और साहित्य को व्यापक रूप से सम्मिलित किया गया है। भारतीय ज्ञान परंपरा ने न केवल हिंदी साहित्य के विकास को प्रभावित किया है, बल्कि उसकी दिशा और उद्देश्य को भी स्पष्ट किया है। इस परंपरा के अंतर्गत हिंदी काव्य के विकास, इतिहास लेखन की परंपरा, और साहित्य के स्वरूप पर विस्तृत चर्चा करना महत्वपूर्ण है।

1. भारतीय ज्ञान परंपरा का परिचय

भारतीय ज्ञान परंपरा को समझने के लिए हमें इसके मूलभूत तत्वों और अवधारणाओं को समझना आवश्यक है। भारतीय ज्ञान परंपरा वेदों, उपनिषदों, पुराणों, महाकाव्यों (रामायण और महाभारत), बौद्ध और जैन साहित्य, तथा दार्शनिक ग्रंथों से प्रारंभ होती है। यह परंपरा मूलतः धर्म, अध्यात्म, नैतिकता, और जीवन के गहरे प्रश्नों पर आधारित रही है। इसमें जीवन का उद्देश्य, सृजन का रहस्य, ब्रह्म और आत्मा के बीच संबंध, धर्म के नियम और नैतिकता की शिक्षाएं प्रमुख हैं।

यह ज्ञान परंपरा न केवल धर्म और दर्शन तक सीमित रही, बल्कि इसमें साहित्य, कला, संगीत, नाटक, और विज्ञान का भी समावेश हुआ। भारतीय दर्शन में ‘अध्यात्म’ और ‘धर्म’ जैसे गहरे विषयों के साथ-साथ भौतिक और सामाजिक जीवन की समस्याओं पर भी व्यापक दृष्टिकोण मिलता है। इस परंपरा में ‘सत्य’, ‘अहिंसा’, ‘धर्म’, ‘कर्तव्य’, ‘प्रेम’, ‘न्याय’, ‘मुक्ति’, आदि जैसे अवधारणाओं पर विशेष ध्यान दिया गया है।

2. हिंदी साहित्य में भारतीय ज्ञान परंपरा का योगदान

हिंदी साहित्य की नींव भारतीय ज्ञान परंपरा में ही निहित है। हिंदी साहित्य के आरंभिक चरण में भक्ति आंदोलन और संत साहित्य का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यह साहित्य भारतीय ज्ञान परंपरा के तत्वों को अपने भीतर समाहित करता है। भक्ति आंदोलन ने धर्म और दर्शन को सामान्य जनमानस तक पहुँचाया, जिससे हिंदी भाषा और साहित्य का विकास हुआ। संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई जैसे कवियों ने अपने साहित्य में भारतीय ज्ञान परंपरा के तत्वों को सरल भाषा में प्रस्तुत किया, जिससे जनता में यह परंपरा प्रचलित हुई।

(क) भक्ति आंदोलन और हिंदी साहित्य

भक्ति आंदोलन भारतीय ज्ञान परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग है, जो 14वीं से 17वीं शताब्दी तक फला-फूला। इस आंदोलन ने विशेष रूप से हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला। भक्ति आंदोलन के कवियों ने भारतीय धार्मिक और दार्शनिक धारणाओं को अपने काव्य के माध्यम से व्यक्त किया। उदाहरण के लिए, कबीर के दोहे और पद भारतीय अद्वैतवाद और निर्गुण भक्ति के प्रतीक हैं। उनका साहित्य वेदांत और सूफी दर्शन का मिश्रण है, जहाँ आत्मा और परमात्मा के बीच संबंध को स्पष्ट किया गया है।

तुलसीदास का “रामचरितमानस” हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें रामायण की कथा के माध्यम से भारतीय समाज और धर्म की गहरी समझ को प्रस्तुत किया गया है। तुलसीदास ने भक्ति की शक्ति, राम के आदर्श जीवन, और धर्म के महत्व को अपने साहित्य में स्थान दिया। यह ग्रंथ भारतीय ज्ञान परंपरा की धरोहर है, जिसे हिंदी साहित्य में एक अद्वितीय स्थान प्राप्त है। इसी प्रकार, सूरदास ने अपने “सूरसागर” में कृष्ण के बाल लीलाओं और प्रेम भक्ति को लेकर साहित्य रचा, जो भक्ति आंदोलन के अंतर्गत आता है और भारतीय ज्ञान परंपरा को हिंदी साहित्य में सजीव करता है।

(ख) भारतीय दर्शन और हिंदी साहित्य

भारतीय ज्ञान परंपरा में दार्शनिक चिंतन का भी महत्वपूर्ण स्थान है, और इसका प्रभाव हिंदी साहित्य पर भी दिखाई देता है। भारतीय दर्शन में ‘अद्वैतवाद’, ‘सांख्य’, ‘योग’, ‘न्याय’, ‘वैशेषिक’, ‘मीमांसा’ और ‘वेदांत’ जैसे विभिन्न दर्शनशास्त्रों का उल्लेख मिलता है, जो हिंदी काव्य और साहित्य में गहराई से प्रभावित करते हैं।

आधुनिक हिंदी साहित्य में भी दार्शनिक चिंतन का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। जैसे कि जयशंकर प्रसाद के काव्य में हमें भारतीय दर्शन का अद्वितीय मिश्रण मिलता है। उनका काव्य भारतीय अध्यात्म और दर्शन का प्रतिरूप है। उनकी रचनाओं में मानव जीवन का गहरा अर्थ, संसार के प्रति निर्लिप्तता, और मोक्ष की प्राप्ति की आकांक्षा प्रमुख रूप से दृष्टिगत होती है। ‘कामायनी’ उनकी एक ऐसी ही महाकाव्यात्मक रचना है, जो भारतीय दर्शन के विभिन्न तत्वों को अपने भीतर समाहित करती है।

3. हिंदी काव्य का विकास और भारतीय ज्ञान परंपरा

हिंदी काव्य का विकास भारतीय ज्ञान परंपरा के साथ गहरे रूप से जुड़ा हुआ है। प्रारंभिक हिंदी काव्य में वेदों, उपनिषदों और पुराणों का प्रभाव देखा जा सकता है। इस काल के कवियों ने भारतीय मिथकों, धार्मिक कहानियों और लोककथाओं को आधार बनाकर काव्य की रचना की। भारतीय मिथकीय चरित्र जैसे राम, कृष्ण, सीता, राधा, शिव, और अन्य देवताओं को हिंदी काव्य में अत्यधिक महत्व दिया गया है।

(क) हिंदी काव्य में राम और कृष्ण की उपस्थिति

राम और कृष्ण भारतीय ज्ञान परंपरा के महत्वपूर्ण पात्र हैं, और इनकी कथाओं को हिंदी काव्य में विशेष रूप से स्थान दिया गया है। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों ने हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला है। तुलसीदास की “रामचरितमानस” और सूरदास की “सूरसागर” इस बात के प्रमाण हैं कि भारतीय ज्ञान परंपरा ने हिंदी काव्य को समृद्ध किया है। इन कवियों ने धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण को अपने काव्य में व्यक्त किया है, जिससे जनता को धर्म और नैतिकता का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है।

(ख) आधुनिक हिंदी काव्य और भारतीय ज्ञान परंपरा

आधुनिक हिंदी काव्य में भी भारतीय ज्ञान परंपरा का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, और सुमित्रानंदन पंत जैसे कवियों ने भारतीय दर्शन, अध्यात्म और संस्कृति को अपने काव्य में स्थान दिया है। इन कवियों ने भारतीय ज्ञान परंपरा को आधुनिक संदर्भों में प्रस्तुत किया, जिससे साहित्य में नई विचारधारा का समावेश हुआ। दिनकर की रचनाओं में वीर रस और राष्ट्रवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, लेकिन उनके काव्य में भी भारतीय ज्ञान परंपरा के तत्व विद्यमान हैं।

4. इतिहास लेखन की परंपरा और हिंदी साहित्य

भारतीय ज्ञान परंपरा में इतिहास लेखन की परंपरा भी महत्वपूर्ण रही है। प्राचीन ग्रंथों में इतिहास को एक धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखा गया है। पुराणों और महाकाव्यों में हमें ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण मिलता है, लेकिन यह विवरण धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है। हिंदी साहित्य में भी इतिहास लेखन की यह परंपरा जारी रही है।

आधुनिक हिंदी साहित्य में भी इतिहास लेखन की परंपरा को जारी रखा गया। भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, और राहुल सांकृत्यायन जैसे साहित्यकारों ने इतिहास को साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनकी रचनाओं में समाज, राजनीति, और इतिहास की गहरी समझ दिखाई देती है।

5. हिंदी साहित्य के स्वरूप पर भारतीय ज्ञान परंपरा का प्रभाव

हिंदी साहित्य का स्वरूप भारतीय ज्ञान परंपरा के तत्वों से प्रभावित रहा है। इस परंपरा ने हिंदी साहित्य को एक विशिष्ट दृष्टिकोण दिया है, जिसमें धर्म, अध्यात्म, नैतिकता, और समाज के प्रति कर्तव्यों का महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय ज्ञान परंपरा ने हिंदी साहित्य को गहराई, समृद्धि, और दिशा प्रदान की है।

निष्कर्ष

भारतीय ज्ञान परंपरा ने हिंदी साहित्य के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस परंपरा ने हिंदी काव्य को धर्म, दर्शन, अध्यात्म और नैतिकता के गहरे तत्वों से समृद्ध किया है। भारतीय ज्ञान परंपरा का प्रभाव हिंदी साहित्य के हर युग में दिखाई देता है, चाहे वह भक्ति काल हो, रीतिकाल हो, या फिर आधुनिक युग। साहित्यकारों ने इस परंपरा को अपने साहित्य में अपनाकर इसे और अधिक व्यापक और समृद्ध बनाया है।

 

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न 1:- हिंदी साहित्य के काल विभाजन और नामकरण की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?

उत्तर:- हिंदी साहित्य का काल विभाजन उसके विकास और विविध प्रवृत्तियों को समझने के लिए किया गया है। मुख्य रूप से, हिंदी साहित्य को चार कालों में विभाजित किया गया है:

1. आदिकाल (1050-1375 ई.): इसे वीरगाथा काल या रासो काल भी कहा जाता है। इस काल में वीर रस की प्रधानता थी, जिसमें राजाओं और योद्धाओं की वीरता का वर्णन मिलता है। मुख्य कवि चंदबरदाई और जगनिक थे।

2. भक्तिकाल (1375-1700 ई.): इस काल को भक्ति आंदोलन के कारण भक्तिकाल कहा जाता है। इसमें भक्ति की दो धाराएँ विकसित हुईं: निर्गुण भक्ति (कबीर, गुरु नानक) और सगुण भक्ति (तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई)।

3. रीतिकाल (1700-1850 ई.): इस काल को रीतिकाल कहा जाता है क्योंकि इसमें काव्य रचना में रीति (शृंगार, नायिका भेद) और अलंकारों पर विशेष ध्यान दिया गया। बिहारी, केशव, और भूषण इसके प्रमुख कवि थे।

4. आधुनिक काल (1850-वर्तमान): इस काल में राष्ट्रवाद, समाज सुधार, और स्वतंत्रता आंदोलन की प्रवृत्तियाँ सामने आईं। प्रमुख कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, और महादेवी वर्मा थे।

इन कालों के नामकरण और विभाजन का आधार सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ थीं, जिन्होंने हिंदी साहित्य के विकास को प्रभावित किया।

 

प्रश्न 2:- सिद्ध साहित्य और जैन साहित्य में क्या मुख्य अंतर हैं? इनका हिंदी काव्य में क्या योगदान है?

उत्तर:- सिद्ध साहित्य मुख्य रूप से बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा से संबंधित है। सिद्ध साधक धर्म के गूढ़ और रहस्यमय पक्षों पर ध्यान केंद्रित करते थे। उनकी रचनाएँ तंत्र-मंत्र और साधना पर आधारित होती थीं और उन्होंने अपनी रचनाओं में मानव जीवन के रहस्यों, साधना, और मोक्ष के मार्ग की चर्चा की। सिद्धों की भाषा आम जनता की बोली (अपभ्रंश) में थी, जिससे वे जनसामान्य तक अपनी बात पहुँचा सके। सिद्ध साहित्य में दार्शनिकता, आध्यात्मिकता और साधना का प्रमुख स्थान है।

जैन साहित्य मुख्य रूप से जैन धर्म की शिक्षाओं पर आधारित है। इसमें अहिंसा, सत्य, तपस्या और अपरिग्रह जैसे नैतिक मूल्यों पर जोर दिया गया है। जैन साहित्य के माध्यम से धर्म, नैतिकता और आत्मानुशासन की शिक्षा दी जाती है। इस साहित्य की भाषा भी प्राकृत और अपभ्रंश रही, लेकिन जैन साहित्य का प्रमुख उद्देश्य मोक्ष और धार्मिक आदर्शों का प्रचार था।

हिंदी काव्य में योगदान: सिद्ध साहित्य ने हिंदी काव्य को गूढ़ता, आध्यात्मिकता, और रहस्यमयता दी, जबकि जैन साहित्य ने नैतिकता, अहिंसा, और धार्मिक अनुशासन पर जोर दिया। दोनों ही धाराओं ने हिंदी काव्य को समृद्ध किया और भक्ति एवं धार्मिक साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 

प्रश्न 3:- भक्ति आंदोलन के उदय के सामाजिक और सांस्कृतिक कारण क्या थे?

उत्तर:- भक्ति आंदोलन का उदय 8वीं से 17वीं शताब्दी के बीच हुआ, और इसके पीछे कई सामाजिक और सांस्कृतिक कारण थे। उस समय समाज में विभिन्न प्रकार की असमानताएँ और विभाजन मौजूद थे। जाति प्रथा, ऊँच-नीच का भेदभाव, धार्मिक कर्मकांडों और ब्राह्मणवाद का बढ़ता प्रभाव आम जनता के लिए समस्याओं का कारण बन रहा था। धार्मिक और सामाजिक असमानताओं के चलते समाज का एक बड़ा वर्ग हताश था।

सांस्कृतिक दृष्टि से, इस्लाम के आगमन और उसके साथ जुड़ी सूफी परंपरा ने भी भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डाला। सूफी संतों के सरल और भावनात्मक भक्ति मार्ग ने लोगों को आकर्षित किया। भक्ति आंदोलन ने भी इसी तरह के सरल, सजीव और भावनात्मक काव्य और संगीत का सहारा लिया, जो जनसाधारण की भावनाओं से जुड़ गया।

इस आंदोलन ने समाज में भाईचारा, समानता और ईश्वर की एकता के विचारों को फैलाया, जिससे लोग धार्मिक कर्मकांडों और बाहरी आडंबरों को छोड़कर आंतरिक भक्ति की ओर प्रेरित हुए। भक्ति आंदोलन ने समाज में सांस्कृतिक जागरूकता और सुधार का संदेश फैलाया।

 

प्रश्न 4:- रासो साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? इसका हिंदी साहित्य में क्या स्थान है?

उत्तर:- रासो साहित्य हिंदी साहित्य का प्रारंभिक और महत्वपूर्ण युग माना जाता है, जो मुख्यतः वीरगाथात्मक कविताओं पर आधारित है। रासो साहित्य की रचनाएँ राजपूत वीरों की वीरता, युद्ध, और उनके शौर्य का वर्णन करती हैं। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

1. वीर रस की प्रधानता: रासो साहित्य में वीर रस का प्रमुख स्थान है। इसमें राजाओं और योद्धाओं की वीरता और युद्ध कौशल का विस्तार से वर्णन किया गया है।

2. इतिहास और काव्य का मिश्रण: रासो साहित्य में ऐतिहासिक घटनाओं का काव्यात्मक रूप से वर्णन किया गया है, जिससे यह साहित्य ऐतिहासिक और काव्यात्मक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है।

3. भाषा: इस साहित्य में अपभ्रंश और प्राचीन हिंदी का प्रयोग मिलता है, जो इसे सरल और जनसामान्य के लिए सुगम बनाता है।

4. वीर और राष्ट्रवादी भावना: रासो साहित्य ने समाज में वीरता और राष्ट्रवाद की भावना को प्रोत्साहित किया।

हिंदी साहित्य में रासो साहित्य का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारतीय वीर परंपरा का प्राचीनतम स्वरूप है और हिंदी काव्य की विकास यात्रा की नींव मानी जाती है।

 

प्रश्न 5:- निर्गुण और सगुण काव्य में क्या अंतर है? दोनों के प्रमुख कवियों का नाम बताएं।

उत्तर:- निर्गुण और सगुण काव्य भक्ति काल के दो प्रमुख काव्य धारा हैं, जिनका भेद भगवान की भक्ति के रूप और स्वरूप पर आधारित है।

निर्गुण काव्य में ईश्वर को निराकार, अदृश्य और बिना गुणों के माना गया है। इस धारा में ईश्वर की भक्ति बिना किसी मूर्त रूप के की जाती है, जहाँ भक्त ईश्वर को आत्मा या ब्रह्म के रूप में अनुभव करता है। इसमें भगवान को निर्गुण ब्रह्म के रूप में देखा जाता है, जो सभी सीमाओं से परे है। इसके प्रमुख कवि कबीरदास, गुरु नानक, और रैदास हैं।

सगुण काव्य में ईश्वर को साकार, गुणों से युक्त और एक विशेष रूप में माना जाता है। इसमें भगवान को राम, कृष्ण, या देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाता है। भक्त भगवान के साकार रूप का ध्यान और उनकी लीलाओं का वर्णन करता है। इसके प्रमुख कवि तुलसीदास (राम भक्ति) और सूरदास (कृष्ण भक्ति) हैं।

इस प्रकार, निर्गुण और सगुण काव्य में भक्ति का स्वरूप भिन्न होता है, लेकिन दोनों का उद्देश्य ईश्वर की भक्ति है।

 

प्रश्न 6:- रीतिकाल के प्रमुख भेद कौन-कौन से हैं और उनमें क्या अंतर है?

उत्तर:- रीतिकाल हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण युग है, जो मुख्य रूप से श्रृंगार और दरबारी काव्य पर केंद्रित रहा है। रीतिकाल को तीन प्रमुख भेदों में विभाजित किया जा सकता है: रीतिबद्ध काव्य, रीतिमुक्त काव्य, और रीतिसिद्ध काव्य। इन तीनों भेदों में विषयवस्तु और शैली के आधार पर अंतर स्पष्ट होता है।

रीतिबद्ध काव्य में कवियों ने मुख्य रूप से काव्यशास्त्र और अलंकारों का पालन किया। इस प्रकार के काव्य में कवियों ने रस, अलंकार, छंद, और काव्यशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए श्रृंगार रस को प्राथमिकता दी। इनमें सबसे प्रमुख कवि भिखारीदास, केशवदास और मतिराम हैं।

रीतिमुक्त काव्य रीतिबद्धता से मुक्त होता है। इसमें कवियों ने स्वतंत्रता से भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की है। इस काव्य में कवि शास्त्रीय नियमों का पालन नहीं करते, बल्कि अपने भावों और संवेदनाओं को प्रधानता देते हैं। इस प्रकार के काव्य के प्रमुख कवि घनानंद माने जाते हैं।

रीतिसिद्ध काव्य में कवि काव्यशास्त्र और अलंकारों के साथ-साथ भावपूर्ण और गूढ़ काव्य रचते हैं। ये कवि काव्यशास्त्र के नियमों का अनुसरण करते हैं, लेकिन उनके काव्य में अलंकारों के साथ गहराई भी होती है।

इस प्रकार, रीतिकाल के ये तीन भेद काव्य की शैली और विषयवस्तु के आधार पर भिन्न हैं।

 

प्रश्न 7:- भक्तिकाल के प्रमुख संप्रदाय और उनके वैचारिक आधार का वर्णन करें।

उत्तर:- भक्तिकाल हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण युग माना जाता है, जो लगभग 14वीं से 17वीं शताब्दी के बीच विकसित हुआ। इस काल में भक्ति और अध्यात्म पर आधारित काव्य का प्रमुख स्थान रहा। भक्तिकाल के मुख्यतः दो प्रमुख संप्रदाय हैं: निर्गुण संप्रदाय और सगुण संप्रदाय।

1. निर्गुण संप्रदाय: इस संप्रदाय के अनुसार, ईश्वर निराकार, अज्ञान और अज्ञेय है। इस विचारधारा के प्रमुख संत कबीर, गुरुनानक और दादू हैं। इन संतों ने धार्मिक कट्टरता, अंधविश्वास और कर्मकांडों का विरोध किया। उन्होंने एक सार्वभौमिक ईश्वर की उपासना का संदेश दिया जो साकार रूप से परे है। निर्गुण संप्रदाय में ज्ञान और वैराग्य पर अधिक बल दिया गया, और समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था, धार्मिक पाखंड और बाह्याचार का विरोध किया गया।

2. सगुण संप्रदाय: इस संप्रदाय के अनुयायियों का मानना था कि ईश्वर साकार और गुणों से युक्त है। सगुण भक्ति के दो मुख्य रूप हैं—राम भक्ति और कृष्ण भक्ति। राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि तुलसीदास थे, जिन्होंने रामचरितमानस की रचना की, और कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास थे, जिन्होंने कृष्ण की बाल-लीलाओं और रासलीलाओं का सुंदर वर्णन किया। सगुण संप्रदाय की भक्ति सरल और स्नेहपूर्ण थी, जिसमें भक्त और भगवान के बीच प्रेमपूर्ण संबंध स्थापित किए गए।

इन दोनों संप्रदायों का उद्देश्य एक ही था—ईश्वर की प्राप्ति और समाज में सद्भावना फैलाना।

 

प्रश्न 8:- नाथ साहित्य और लौकिक साहित्य की प्रमुख विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालें।

उत्तर:- नाथ साहित्य और लौकिक साहित्य दोनों ही भारतीय साहित्यिक परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, लेकिन इनकी विशेषताएँ और उद्देश्यों में भिन्नताएँ होती हैं।

नाथ साहित्य का मुख्य उद्देश्य आत्मसाक्षात्कार और आध्यात्मिकता को प्रकट करना होता है। नाथ संप्रदाय के संतों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्ति को ईश्वर की ओर उन्मुख करने की कोशिश की। नाथ साहित्य में योग, ध्यान, और साधना का गहन विवरण मिलता है, जिसमें आत्मा और परमात्मा के मिलन की चर्चा की जाती है। यह साहित्य रहस्यवादी और गूढ़ शैली में रचा गया है, और इसकी भाषा साधारण किंतु भावनात्मक होती है। इसमें संसार की नश्वरता और ईश्वर के प्रति समर्पण की शिक्षा दी जाती है। गोरखनाथ जैसे संतों ने इस परंपरा को समृद्ध किया है।

वहीं, लौकिक साहित्य मानव जीवन के लौकिक अनुभवों, समाज, और संस्कृति से जुड़ा होता है। इसमें मनुष्य की दैनिक जीवन की भावनाओं, प्रेम, वीरता, करुणा, और सामाजिक व्यवस्थाओं का चित्रण मिलता है। लौकिक साहित्य में भौतिक जगत के रंग-रूप, समाज के रीति-रिवाज और मानवीय संवेदनाओं का वर्णन किया गया है। इस साहित्य में मनोरंजन के साथ-साथ नैतिक और सामाजिक संदेश भी दिए जाते हैं।

इस प्रकार, नाथ साहित्य आध्यात्मिक और आत्मिक उन्नति पर बल देता है, जबकि लौकिक साहित्य सांसारिक जीवन और मानवीय भावनाओं को अभिव्यक्त करता है।

 

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न 1:- हिंदी साहित्य का काल विभाजन कितने प्रमुख कालों में किया गया है? उनके नाम बताइए।

उत्तर:- हिंदी साहित्य को चार प्रमुख कालों में विभाजित किया गया है: आदिकाल (वीरगाथा काल), भक्तिकाल, रीतिकाल, और आधुनिक काल। प्रत्येक काल की साहित्यिक प्रवृत्तियाँ और रचनाएँ अपने-अपने समय की सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों को दर्शाती हैं।

प्रश्न 2:- सिद्ध साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?

उत्तर:- सिद्ध साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं: रहस्यवादी और योग साधना पर आधारित रचनाएँ, सरल और लोकभाषा का प्रयोग, आत्मज्ञान और मोक्ष प्राप्ति पर बल, और मानव जीवन की नश्वरता को समझाने का प्रयास। इस साहित्य में भौतिक सुखों से दूर रहकर साधना की महत्ता बताई गई है।

प्रश्न 3:- भक्ति आंदोलन के उदय के कौन-कौन से सामाजिक और सांस्कृतिक कारण थे?

उत्तर:- भक्ति आंदोलन के उदय के प्रमुख कारणों में समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव, मुस्लिम शासन के दौरान हिंदू धर्म पर संकट, और साधारण जनमानस का ईश्वर के प्रति सीधा संबंध स्थापित करने की आवश्यकता शामिल थे। इस आंदोलन ने समाज में धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया।

प्रश्न 4:- रासो साहित्य किस काल से संबंधित है और इसका मुख्य विषय क्या है?

उत्तर:- रासो साहित्य आदिकाल से संबंधित है और इसका मुख्य विषय वीरगाथाओं का वर्णन है। इसमें राजाओं और योद्धाओं की वीरता, युद्ध कौशल, और समाज की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों का चित्रण किया गया है। पृथ्वीराज रासो इसका प्रमुख उदाहरण है।

प्रश्न 5:- निर्गुण और सगुण भक्ति के बीच मुख्य अंतर क्या है?

उत्तर:- निर्गुण भक्ति में निराकार ईश्वर की उपासना की जाती है, जबकि सगुण भक्ति में साकार रूप में ईश्वर की पूजा होती है। निर्गुण भक्ति में ध्यान और ज्ञान का महत्व है, जबकि सगुण भक्ति में प्रेम, आराधना, और भक्ति का।

प्रश्न 6:- भक्ति काल के प्रमुख संप्रदाय कौन-कौन से हैं?

उत्तर:- भक्ति काल के प्रमुख संप्रदाय हैं: निर्गुण संप्रदाय और सगुण संप्रदाय। निर्गुण संप्रदाय में कबीर और गुरु नानक जैसे संत आते हैं, जबकि सगुण संप्रदाय में रामानंद, सूरदास, और तुलसीदास प्रमुख हैं।

प्रश्न 7:- मध्यकालीन हिंदी साहित्य में नाथ साहित्य का क्या महत्व है?

उत्तर:- नाथ साहित्य मध्यकालीन हिंदी साहित्य में योग और साधना पर केंद्रित है। इसने आत्मज्ञान, मोक्ष और ध्यान के महत्व को प्रमुखता दी। गोरखनाथ और उनके अनुयायियों द्वारा लिखित इस साहित्य ने लोगों को आध्यात्मिक जागरूकता की दिशा में प्रेरित किया।

प्रश्न 8:- रीति काल का साहित्य किन तीन प्रमुख भेदों में विभाजित किया गया है?

उत्तर:- रीति काल का साहित्य तीन प्रमुख भेदों में विभाजित किया गया है: रीतिबद्ध साहित्य, रीतिसिद्ध साहित्य, और रीति मुक्त साहित्य। रीतिबद्ध साहित्य में रस, अलंकार, और काव्यशास्त्र का महत्व है, जबकि रीति मुक्त साहित्य में स्वतंत्र भावनाओं को अभिव्यक्ति दी जाती है।

प्रश्न 9:- जैन साहित्य की प्रमुख विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।

उत्तर:- जैन साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं: अहिंसा, संयम, और तपस्या की महत्ता, संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का प्रयोग, तात्त्विक विषयों पर गहन चर्चा, और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग की व्याख्या। इसमें धर्म, नैतिकता, और अध्यात्म का विशद वर्णन मिलता है।

प्रश्न 10:- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, और रीति मुक्त साहित्य में क्या अंतर है?

उत्तर:- रीतिबद्ध साहित्य में काव्यशास्त्र के नियमों का कठोर पालन होता है, जबकि रीतिसिद्ध साहित्य में कवि रचना के माध्यम से इन नियमों का समर्थन करते हैं। रीति मुक्त साहित्य में काव्यशास्त्र के नियमों से स्वतंत्र होकर भावनाओं की अभिव्यक्ति की जाती है।

प्रश्न 11:- भक्तिकाल के प्रमुख निर्गुण कवि कौन-कौन थे?

उत्तर:- भक्तिकाल के प्रमुख निर्गुण कवि थे: कबीर, गुरु नानक, और दादू दयाल। इन कवियों ने ईश्वर को निराकार रूप में स्वीकार किया और साधारण भाषा में अपने विचार व्यक्त किए, जिससे वे जनमानस में व्यापक रूप से लोकप्रिय हुए।

प्रश्न 12:- रीति कालीन साहित्य के प्रमुख कवि और उनके काव्य का नाम बताइए।

उत्तर:- रीति कालीन साहित्य के प्रमुख कवि हैं बिहारी, केशवदास, और देव। बिहारी का प्रमुख काव्य ग्रंथ “सतसई” है, जिसमें नीति और शृंगार रस का उत्कृष्ट वर्णन किया गया है। केशवदास की “रसिकप्रिया” और देव का “भूषण” प्रमुख कृतियाँ हैं।

 

 

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