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आधुनिक भारत का इतिहास (1757 ईस्वी - 1950 ईस्वी) (सेमेस्टर-3)

आंतरिक परीक्षा के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न और उत्तर

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यूनिट-8: आधुनिक भारत का इतिहास (1757 ईस्वी – 1950 ईस्वी)

 

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न 1:- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।इस प्रक्रिया में आने वाली चुनौतियों और बाधाओं का भी उल्लेख करें।

उत्तर:- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में रियासतों का एकीकरण एक महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण कार्य था। यह प्रक्रिया भारतीय राजनीति और प्रशासन के लिए एक ऐतिहासिक बदलाव का समय था। 15 अगस्त 1947 को जब भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की, तब यह केवल ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता नहीं थी, बल्कि इसे एक राष्ट्र के रूप में गठित करना भी एक बड़ी चुनौती थी। भारतीय उपमहाद्वीप पर 562 रियासतें थीं, जिन्हें एकजुट करना स्वतंत्र भारत के निर्माण के लिए बेहद आवश्यक था। इस लेख में हम इस प्रक्रिया और उससे जुड़ी चुनौतियों का विस्तार से वर्णन करेंगे।

रियासतों की पृष्ठभूमि

स्वतंत्रता से पहले भारत में दो प्रकार के क्षेत्र थे – ब्रिटिश भारत और रियासतें। ब्रिटिश भारत सीधे ब्रिटिश सरकार द्वारा शासित था, जबकि रियासतें भारतीय शासकों के अधीन थीं, जो ब्रिटिश सत्ता को स्वीकार करते थे। इन रियासतों पर एक तरह से ब्रिटिश संरक्षण था और उन्हें अपनी आंतरिक प्रशासनिक व्यवस्था बनाए रखने की स्वतंत्रता थी, लेकिन विदेश नीति और सुरक्षा के मामलों में वे ब्रिटिशों के अधीन थे। इस तरह, ब्रिटिश भारत और रियासतों के बीच का विभाजन न केवल भौगोलिक था बल्कि प्रशासनिक भी था। जब ब्रिटिश सरकार ने भारत छोड़ने का फैसला किया, तो यह महत्वपूर्ण था कि इन रियासतों का भारत या पाकिस्तान में विलय हो।

भारत की स्वतंत्रता और रियासतों का भविष्य

1947 में जब भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की, तो माउंटबेटन योजना के अनुसार, रियासतों को यह विकल्प दिया गया कि वे भारत, पाकिस्तान में शामिल हो सकती हैं या फिर स्वतंत्र रह सकती हैं। इस प्रकार, यह रियासतों के शासकों के ऊपर था कि वे किस विकल्प को चुनें। इस निर्णय ने भारतीय नेताओं के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी। यदि सभी रियासतें स्वतंत्र रहने का निर्णय करतीं, तो भारत का क्षेत्रीय अखंडता और राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ सकती थी। इस समस्या को हल करने के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल को जिम्मेदारी सौंपी गई।

सरदार पटेल और रियासतों का एकीकरण

सरदार वल्लभभाई पटेल, जो उस समय भारत के उपप्रधानमंत्री और गृह मंत्री थे, ने रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने रियासतों के शासकों से संवाद स्थापित किया और उन्हें यह समझाने का प्रयास किया कि स्वतंत्र भारत में उनका भविष्य सुरक्षित है और भारत के संघ में शामिल होने से ही स्थायित्व और विकास संभव है।

पटेल ने इस प्रक्रिया को दो प्रकार से आगे बढ़ाया:

  1. कूटनीति और वार्ता: पटेल ने रियासतों के शासकों के साथ शांतिपूर्ण बातचीत की और उन्हें यह भरोसा दिलाया कि भारतीय संघ में शामिल होने से उनके अधिकार सुरक्षित रहेंगे। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि उनकी संपत्ति और विशेषाधिकारों की रक्षा की जाएगी।
  2. प्रभाव और दबाव: जिन रियासतों ने विलय में रुचि नहीं दिखाई, उन पर दबाव डालने के लिए विभिन्न कूटनीतिक उपाय अपनाए गए। इसमें सैनिक कार्रवाई भी शामिल थी, जैसा कि हैदराबाद और जूनागढ़ के मामलों में देखा गया।

एकीकरण की प्रक्रिया

रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया को तीन मुख्य चरणों में विभाजित किया जा सकता है:

  1. दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर: रियासतों के शासकों को एक ‘विलय पत्र’ पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया, जिसमें उन्होंने अपनी रियासत को भारतीय संघ में शामिल करने का संकल्प लिया। इस दस्तावेज़ में यह भी उल्लेख था कि वे अपनी आंतरिक शासन व्यवस्था को भारतीय सरकार को सौंप देंगे।
  2. प्रशासनिक पुनर्गठन: विलय के बाद, प्रशासनिक ढांचे को पुनर्गठित किया गया। रियासतों को छोटी इकाइयों में विभाजित करने के बजाय, उन्हें नए राज्यों में शामिल कर दिया गया। यह कदम क्षेत्रीय अखंडता और प्रशासनिक सुधार के लिए आवश्यक था।
  3. विशेषाधिकारों का संरक्षण: रियासतों के शासकों को अपनी संपत्ति, उपाधियाँ, और कुछ विशेषाधिकार बनाए रखने की अनुमति दी गई। उन्हें एक निश्चित राशि ‘प्रिवी पर्स’ के रूप में दी गई, जो उनके शासन काल के दौरान उनके द्वारा उपार्जित आय का हिस्सा थी।

मुख्य घटनाएं और चुनौतियां

1. हैदराबाद का विलय: हैदराबाद दक्षिण भारत की सबसे बड़ी रियासत थी, और इसका शासक निजाम स्वतंत्र रहना चाहता था। लेकिन हैदराबाद में हिंदू बहुसंख्यक थे और भारत की केंद्र सरकार इस क्षेत्र को स्वतंत्र रहने देने के पक्ष में नहीं थी। इस स्थिति को हल करने के लिए भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन पोलो’ शुरू किया और 1948 में हैदराबाद का भारतीय संघ में विलय हो गया।

2. जूनागढ़ का मामला: जूनागढ़ गुजरात की एक छोटी रियासत थी, जिसका नवाब पाकिस्तान में शामिल होना चाहता था। लेकिन यहाँ की अधिकांश आबादी हिंदू थी और वे भारत में शामिल होना चाहते थे। इसलिए, भारत ने इस मुद्दे को हल करने के लिए जनमत संग्रह कराया, जिसमें लोगों ने भारत में शामिल होने के पक्ष में मतदान किया।

3. कश्मीर का विलय: कश्मीर का मामला सबसे जटिल था। यहाँ के महाराजा हरि सिंह स्वतंत्र रहना चाहते थे, लेकिन पाकिस्तान के कबायली हमले के बाद उन्होंने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद भारतीय सेना ने कश्मीर में सैनिक कार्रवाई कर हमलावरों को पीछे धकेला।

रियासतों के एकीकरण की चुनौतियां

रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया सरल नहीं थी और इसमें कई बाधाओं का सामना करना पड़ा:

  1. शासकों की स्वार्थपरता: कई रियासतों के शासक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की वजह से स्वतंत्र रहने की इच्छा रखते थे। उन्हें अपनी शक्ति और संपत्ति के खोने का डर था। कुछ शासक स्वतंत्र राष्ट्र बनने की महत्वाकांक्षा भी पाले हुए थे।
  2. धार्मिक और सांस्कृतिक भिन्नताएं: भारत में विभिन्न धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों की वजह से रियासतों के एकीकरण में कठिनाई हुई। कुछ स्थानों पर धार्मिक बहुसंख्यक और शासकों के बीच विचारों का टकराव था, जो विलय की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करता था।
  3. पाकिस्तान का हस्तक्षेप: पाकिस्तान ने कुछ रियासतों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया, जैसे कि जूनागढ़ और कश्मीर। इसके कारण भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ गया, और कश्मीर में युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई।
  4. आर्थिक असमानता: कुछ रियासतें अत्यधिक समृद्ध थीं जबकि कुछ अत्यधिक गरीब। इस असमानता को पाटना और एक समान प्रशासनिक ढांचा बनाना भी एक चुनौती थी।

एकीकरण की उपलब्धियां

रियासतों का एकीकरण भारत के इतिहास की सबसे बड़ी राजनीतिक उपलब्धियों में से एक था। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप:

  1. राष्ट्रीय एकता और अखंडता: एकीकृत भारत का निर्माण संभव हुआ, जो क्षेत्रीय अखंडता और राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक था।
  2. प्रशासनिक स्थायित्व: एक सशक्त और एकीकृत प्रशासनिक प्रणाली बनाई जा सकी, जिसने भारत को एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में स्थापित किया।
  3. आर्थिक विकास: विभिन्न क्षेत्रों को जोड़ने से व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा मिला और भारत में आर्थिक विकास को नई दिशा मिली।

निष्कर्ष

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद रियासतों का एकीकरण भारतीय इतिहास का एक अनूठा और प्रेरणादायक अध्याय है। सरदार वल्लभभाई पटेल और वी.पी. मेनन जैसे नेताओं की दृढ़ता, कूटनीति और दूरदर्शिता ने इस जटिल और चुनौतीपूर्ण कार्य को सफलतापूर्वक पूरा किया। भारत का वर्तमान स्वरूप और अखंडता उन्हीं प्रयासों का परिणाम है। यह प्रक्रिया न केवल भारतीय राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ करती है बल्कि यह भी दर्शाती है कि कैसे राजनीतिक इच्छाशक्ति और कूटनीति से जटिल समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

इस प्रकार, स्वतंत्रता के बाद रियासतों के एकीकरण ने न केवल भारत की भौगोलिक सीमाओं को स्थिर किया बल्कि भारत की राष्ट्रीय एकता और अखंडता की नींव भी रखी।

 

प्रश्न 2:- रियासतों के भारत में विलय में सरदार वल्लभभाई पटेल की भूमिका को विस्तार से समझाइए।उनके नेतृत्व और नीतियों ने एकीकृत भारत के निर्माण में किस प्रकार योगदान दिया?

उत्तर:- रियासतों के भारत में विलय में सरदार वल्लभभाई पटेल की भूमिका

सन् 1947 में भारत को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता मिली, तो उसके साथ एक बड़ी चुनौती भी सामने आई। यह चुनौती थी 565 से अधिक रियासतों का भारत में विलय करना। ये रियासतें भारत के विभिन्न हिस्सों में बिखरी हुई थीं और अपने-अपने शासकों द्वारा शासित थीं। इनमें से कुछ रियासतें बहुत बड़ी थीं, जैसे हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर, जबकि कुछ छोटी-छोटी जागीरें थीं। भारतीय उपमहाद्वीप को एकीकृत और संगठित राष्ट्र बनाने की यह चुनौती अत्यंत कठिन थी, लेकिन सरदार वल्लभभाई पटेल के कुशल नेतृत्व और दृढ़ संकल्प ने इसे संभव कर दिखाया। आइए विस्तार से जानते हैं कि किस प्रकार पटेल ने रियासतों के भारत में विलय की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक अंजाम दिया।

भारत की स्वतंत्रता और रियासतों की स्थिति

भारत की स्वतंत्रता से पूर्व, ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत दो प्रकार के क्षेत्र आते थे—एक थे सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन क्षेत्र, जिन्हें ‘ब्रिटिश इंडिया’ कहा जाता था, और दूसरे थे रियासतें, जो भारतीय शासकों के अधीन थीं, लेकिन ब्रिटिश सरकार से संधि के माध्यम से नियंत्रित होती थीं। जब भारत स्वतंत्र होने वाला था, तब ब्रिटिश सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया था कि रियासतों को यह स्वतंत्रता होगी कि वे भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ मिलें, या वे स्वतंत्र रह सकें। यह स्थिति भारत के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण थी, क्योंकि यदि रियासतें स्वतंत्र रहतीं, तो यह राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा के लिए खतरा बन सकता था।

सरदार वल्लभभाई पटेल का दृष्टिकोण और रणनीति

सरदार पटेल, जो स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री थे, ने इस चुनौती को न केवल समझा बल्कि उसे स्वीकार भी किया। उन्होंने यह ठान लिया था कि भारत को एकीकृत राष्ट्र के रूप में बनाना ही उनकी प्राथमिकता होगी। उन्होंने रियासतों के विलय के लिए तीन प्रमुख नीतियों का अनुसरण किया:

1.        सहयोग और संवाद: पटेल ने रियासतों के शासकों से सीधा संवाद किया और उन्हें यह समझाने का प्रयास किया कि स्वतंत्र रहने से उनके हित सुरक्षित नहीं रहेंगे। उन्होंने तर्क दिया कि स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनना ही रियासतों के भविष्य के लिए सही निर्णय होगा।

2.      राजनीतिक सहमति: उन्होंने शासकों को ‘विलय पत्र’ (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर करने के लिए प्रोत्साहित किया, जिससे रियासतें स्वेच्छा से भारत में सम्मिलित हो सकें। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि रियासतों के शासकों के व्यक्तिगत और आर्थिक हितों की सुरक्षा हो।

3.      दृढ़ संकल्प और बल प्रयोग (यदि आवश्यक हो): जहां सहयोग और संवाद कारगर नहीं हुआ, वहां पटेल ने बल का प्रयोग करने से भी संकोच नहीं किया। हैदराबाद और जूनागढ़ जैसे मामलों में उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि भारत की एकता में कोई समझौता नहीं होगा।

रियासतों का भारत में सफलतापूर्वक विलय

पटेल के इन प्रयासों का परिणाम यह हुआ कि अधिकांश रियासतें स्वेच्छा से भारत में विलय के लिए तैयार हो गईं। आइए कुछ महत्वपूर्ण रियासतों के भारत में विलय की प्रक्रिया को विस्तार से समझते हैं।

1. जूनागढ़

जूनागढ़ गुजरात की एक रियासत थी और इसके नवाब ने पाकिस्तान में विलय करने की घोषणा की थी, जबकि वहां की अधिकांश जनता भारत में शामिल होना चाहती थी। पटेल ने इस स्थिति को गंभीरता से लिया और नवाब को यह स्पष्ट कर दिया कि यह निर्णय जनता के हित में नहीं है। उन्होंने सैन्य हस्तक्षेप की योजना बनाई और जूनागढ़ में एक जनमत संग्रह करवाया, जिसमें जनता ने भारी बहुमत से भारत में शामिल होने के पक्ष में वोट दिया। इस प्रकार, जूनागढ़ का भारत में सफलतापूर्वक विलय हुआ।

2. हैदराबाद

हैदराबाद सबसे बड़ी और समृद्ध रियासत थी, और इसके निजाम ने स्वतंत्र बने रहने का निर्णय लिया था। पटेल ने बातचीत और कूटनीति के माध्यम से निजाम को मनाने की कोशिश की, लेकिन वह सहमत नहीं हुआ। अंततः, जब स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई और हैदराबाद में अशांति फैलने लगी, तब पटेल ने ‘ऑपरेशन पोलो’ का आदेश दिया। भारतीय सेना ने हस्तक्षेप कर हैदराबाद को भारत में शामिल कर लिया।

3. जम्मू-कश्मीर

जम्मू-कश्मीर का मामला सबसे जटिल था। इस रियासत के महाराजा हरि सिंह ने पहले स्वतंत्र बने रहने का निर्णय लिया था, लेकिन पाकिस्तान के कबायलियों ने जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया। इस स्थिति में महाराजा ने भारत से मदद मांगी और पटेल के प्रयासों से ‘विलय पत्र’ पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद भारतीय सेना ने पाकिस्तान समर्थित कबायलियों से राज्य की रक्षा की। हालांकि, जम्मू-कश्मीर का मामला आज भी विवादित है, लेकिन पटेल ने इस रियासत का भारत में विलय सुनिश्चित किया।

पटेल की नीतियों की विशेषताएँ

सरदार पटेल की नीतियाँ न केवल उनकी कुशलता और कूटनीति का प्रमाण थीं, बल्कि उनके दृढ़ संकल्प और भारत की एकता के प्रति समर्पण का भी प्रतीक थीं। उनके नेतृत्व की कुछ प्रमुख विशेषताएँ थीं:

1.        समर्पण और दृढ़ संकल्प: पटेल ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत की एकता उनके लिए सर्वोपरि है और इसके लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार थे। उनका दृढ़ संकल्प ही था जिसने रियासतों के शासकों को समझौता करने के लिए प्रेरित किया।

2.      संवाद और सहयोग: पटेल ने रियासतों के शासकों से व्यक्तिगत रूप से संवाद किया, जिससे उन्हें भरोसा हुआ कि भारत में शामिल होना उनके हित में है। उनकी नीति थी कि शासकों के व्यक्तिगत हितों की रक्षा की जाएगी, जिससे उन्हें अपनी सत्ता छोड़ने में असुविधा महसूस न हो।

3.      कूटनीति और कड़ा रुख: पटेल ने आवश्यकता पड़ने पर कड़ा रुख भी अपनाया। वह जानते थे कि कुछ रियासतों को केवल संवाद से नहीं मनाया जा सकता, इसलिए उन्होंने बल प्रयोग की भी योजना बनाई।

भारत की एकता में पटेल का योगदान

सरदार पटेल का योगदान केवल रियासतों के विलय तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने भारत को एक मजबूत और एकीकृत राष्ट्र के रूप में स्थापित किया। उनकी नीतियाँ और रणनीतियाँ आज भी राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्रों में अनुकरणीय मानी जाती हैं। उन्होंने न केवल भारत के मानचित्र को नया स्वरूप दिया, बल्कि राष्ट्रीय एकता और अखंडता की नींव भी मजबूत की।

निष्कर्ष

भारत के इतिहास में सरदार वल्लभभाई पटेल का योगदान अनमोल है। उन्होंने एक नए, स्वतंत्र और एकीकृत भारत की नींव रखी, जहां अलग-अलग संस्कृतियों और समुदायों के लोग एक साथ रह सकें। यदि उन्होंने यह कार्य न किया होता, तो शायद आज भारत का नक्शा कुछ और होता। उनकी दूरदर्शिता, कूटनीति और दृढ़ संकल्प ने उन्हें ‘लौह पुरुष’ का दर्जा दिलाया, और वह हमेशा भारतीय जनमानस में एकता और अखंडता के प्रतीक बने रहेंगे।

भारत में रियासतों का सफलतापूर्वक विलय केवल प्रशासनिक उपलब्धि नहीं थी, बल्कि यह भारत की आत्मा और पहचान को एकजुट करने का एक महान प्रयास था, जिसे सरदार पटेल ने अपने कुशल नेतृत्व और अटूट संकल्प से पूरा किया।

 

प्रश्न 3:-जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर जैसी प्रमुख रियासतों के भारत में विलय की घटनाओं का विश्लेषण कीजिए।इन रियासतों में विलय से जुड़े प्रमुख घटनाक्रम और समस्याओं पर प्रकाश डालें।

उत्तर:- भारत के स्वतंत्रता संग्राम की समाप्ति के बाद एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देश की स्थापना के लिए कई चुनौतियाँ थीं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण चुनौती थी देश की एकता और अखंडता सुनिश्चित करना। ब्रिटिश शासन के अंत के साथ ही 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ, लेकिन देश की अखंडता को बनाए रखना अभी भी एक कठिन कार्य था। विशेषकर तब जब 500 से अधिक रियासतें, जो ब्रिटिश शासन के अधीन नहीं थीं, भारत में शामिल होने या अलग रहने का निर्णय स्वयं कर सकती थीं।

पृष्ठभूमि

भारत की स्वतंत्रता के समय, तत्कालीन भारत में तीन प्रकार के क्षेत्र थे – ब्रिटिश भारत, देशी रियासतें और उपनिवेश। ब्रिटिश भारत सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन था, जबकि देशी रियासतें शासकों द्वारा शासित थीं जो ब्रिटिश सम्राट की अधीनता स्वीकार करते थे। स्वतंत्रता के समय, देशी रियासतों को यह विकल्प दिया गया था कि वे भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकते हैं या अपनी स्वतंत्रता बनाए रख सकते हैं। सरदार वल्लभभाई पटेल, जो तत्कालीन भारत के गृहमंत्री थे, ने भारतीय संघ के निर्माण के लिए इन रियासतों का भारत में विलय करना एक मुख्य उद्देश्य बना लिया था। उनकी कुशल रणनीति और नीति के कारण अधिकांश रियासतें भारत में शामिल हो गईं।

हालाँकि, कुछ प्रमुख रियासतें, जैसे जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर, ने प्रारंभ में भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया। इस जवाब में हम इन रियासतों के भारत में विलय की घटनाओं और उनसे जुड़ी समस्याओं का विस्तार से विश्लेषण करेंगे।

जूनागढ़ का विलय

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जूनागढ़ एक महत्वपूर्ण रियासत थी जो वर्तमान में गुजरात राज्य में स्थित है। यह एक समुद्री तटवर्ती रियासत थी, जिसकी भौगोलिक स्थिति काफी सामरिक महत्व रखती थी। जूनागढ़ की आबादी में लगभग 80% हिंदू और केवल 20% मुस्लिम थे, लेकिन इसका नवाब मुस्लिम था।

घटनाक्रम और समस्याएँ

जूनागढ़ के नवाब मुहम्मद महाबत खान ने पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लिया, जो वहाँ की जनसंख्या की अपेक्षाओं के खिलाफ था। इस निर्णय ने न केवल स्थानीय जनता में असंतोष पैदा किया, बल्कि भारत सरकार के लिए भी एक संकट खड़ा कर दिया। भारत सरकार ने इस रियासत के विलय की मांग की क्योंकि यह भारत के भूगोल में एक सामरिक विघटन का कारण बन सकता था और इसके नजदीकी क्षेत्र की सुरक्षा के लिए खतरा साबित हो सकता था।

भारतीय सरकार ने इस मुद्दे को सुलझाने के लिए कई कूटनीतिक प्रयास किए। स्थानीय हिंदू आबादी ने भी नवाब के फैसले का जोरदार विरोध किया और भारतीय संघ में शामिल होने की मांग की। जब पाकिस्तान ने जूनागढ़ के नवाब के पाकिस्तान में विलय के फैसले का समर्थन किया, तो स्थिति और गंभीर हो गई। लेकिन नवाब और उसके परिवार ने पाकिस्तान में शरण ली, और भारतीय सेना ने जूनागढ़ में प्रवेश कर इसे अपने नियंत्रण में ले लिया। इसके बाद एक जनमत संग्रह का आयोजन किया गया, जिसमें भारी बहुमत ने भारत में विलय के पक्ष में मतदान किया।

हैदराबाद का विलय

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

हैदराबाद दक्षिण भारत की सबसे बड़ी और सबसे धनी रियासत थी, और इसका शासक निज़ाम आसफ जाह मुस्लिम था, जबकि यहाँ की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा हिंदू था। हैदराबाद की भौगोलिक स्थिति भी भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थी, क्योंकि यह दक्षिण भारत के बीचोंबीच स्थित थी।

घटनाक्रम और समस्याएँ

हैदराबाद के निज़ाम ने स्वतंत्रता के बाद भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया और अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने का निर्णय किया। उन्होंने भारत सरकार से एक ‘स्थायी सन्धि’ की मांग की, जिससे वह स्वतंत्र रह सकें। निज़ाम ने पाकिस्तान से भी मदद माँगी और अपनी खुद की सेना बनाने का प्रयास किया।

हैदराबाद में निज़ाम की सरकार ने ‘रजाकारों’ का गठन किया, जो एक तरह का सैन्य समूह था, जिसने निज़ाम की सत्ता बनाए रखने और हैदराबाद को स्वतंत्र बनाए रखने के लिए हिंसा और उत्पीड़न का सहारा लिया। इस स्थिति ने वहाँ के स्थानीय हिंदू समाज में असुरक्षा और भय का माहौल बना दिया था। भारत सरकार ने इस स्थिति पर तत्काल नियंत्रण की आवश्यकता को समझते हुए निज़ाम से बातचीत करने का प्रयास किया, लेकिन बातचीत विफल रही।

आखिरकार, सितंबर 1948 में, भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन पोलो’ चलाया और हैदराबाद पर चढ़ाई की। यह सैन्य अभियान केवल पाँच दिनों में समाप्त हो गया, और निज़ाम ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके बाद हैदराबाद का भारत में सफलतापूर्वक विलय हो गया।

कश्मीर का विलय

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

कश्मीर की भौगोलिक स्थिति भी भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थी। यहाँ के राजा हरि सिंह हिंदू थे, जबकि जनसंख्या में बहुमत मुसलमानों का था। राजा हरि सिंह ने स्वतंत्रता के बाद भारत या पाकिस्तान में से किसी में शामिल होने का निर्णय लेने में देरी की और स्वतंत्रता की स्थिति बनाए रखने की कोशिश की।

घटनाक्रम और समस्याएँ

कश्मीर में विलय की स्थिति तब जटिल हो गई जब पाकिस्तान ने कश्मीर के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में कबाइलियों (पठान जनजातियों) की मदद से आक्रमण कर दिया। यह हमलावर कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के करीब पहुँच चुके थे, और राजा हरि सिंह को अपनी सुरक्षा की चिंता सताने लगी। उन्होंने भारत सरकार से सहायता मांगी, लेकिन भारत ने स्पष्ट कर दिया कि वह तभी मदद कर सकता है जब कश्मीर भारत में विलय कर ले।

22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान समर्थित कबाइलियों ने कश्मीर पर आक्रमण किया, जिसे ‘कश्मीर आक्रमण’ के रूप में जाना जाता है। इस संकट के समय राजा हरि सिंह ने भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन से संपर्क किया और विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए। इसके बाद भारतीय सेना ने कश्मीर में प्रवेश किया और पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को पीछे हटने पर मजबूर किया।

कश्मीर मुद्दा और संयुक्त राष्ट्र में मामला

हालाँकि भारतीय सेना ने कश्मीर के अधिकांश हिस्सों को सुरक्षित कर लिया, लेकिन दोनों देशों के बीच संघर्ष जारी रहा। भारत ने इस विवाद को संयुक्त राष्ट्र में उठाया और संघर्षविराम की घोषणा की गई। संघर्षविराम रेखा को ‘लाइन ऑफ कंट्रोल’ कहा गया। इसके बाद से कश्मीर का मुद्दा एक अंतरराष्ट्रीय विवाद बना हुआ है, जो भारत और पाकिस्तान के बीच कई युद्धों और संघर्षों का कारण भी बन चुका है। आज भी कश्मीर का मुद्दा भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति के लिए एक जटिल विषय बना हुआ है।

निष्कर्ष

जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर का भारत में विलय स्वतंत्रता के बाद के भारत के सबसे महत्वपूर्ण और जटिल घटनाक्रमों में से एक था। सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में भारतीय सरकार ने कुशल कूटनीति और आवश्यकता पड़ने पर सैन्य बल का प्रयोग कर इन रियासतों का भारत में विलय सुनिश्चित किया। यह भारत की एकता, अखंडता और धर्मनिरपेक्षता को सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। हालाँकि, कश्मीर का मुद्दा अभी भी पूरी तरह से सुलझाया नहीं जा सका है और यह आज भी भारत और पाकिस्तान के बीच एक जटिल और संवेदनशील मामला बना हुआ है।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के बाद की यह घटनाएँ यह दर्शाती हैं कि कैसे एक नव स्वतंत्र राष्ट्र ने अपनी एकता और अखंडता बनाए रखने के लिए कठिन निर्णय लिए और उन्हें सफलतापूर्वक अमल में लाया। भारतीय नेताओं की दृढ़ता, दूरदृष्टि और कुशलता ने भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक एकीकरण को संभव बनाया।

इन घटनाओं का अध्ययन न केवल भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण चरण को समझने में मदद करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि कैसे एक राष्ट्र अपनी विविधता के बावजूद एकजुट रह सकता है और अपने भविष्य की दिशा निर्धारित कर सकता है।

 

प्रश्न 4:- सरदार वल्लभभाई पटेल के राजनीतिक दर्शन और उनकी प्रशासनिक दृष्टि का मूल्यांकन कीजिए।उन्होंने किस प्रकार एक मजबूत और अखंड भारत के निर्माण का सपना देखा था?

उत्तर:- सरदार वल्लभभाई पटेल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता और स्वतंत्र भारत के प्रथम उपप्रधानमंत्री एवं गृह मंत्री थे। उन्हें ‘लौह पुरुष’ के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि उन्होंने अपने दृढ़ निश्चय और प्रभावशाली नेतृत्व से भारत के विभाजन के बाद देश को एकता और अखंडता में बनाए रखने का महत्वपूर्ण कार्य किया। पटेल का राजनीतिक दर्शन और प्रशासनिक दृष्टि दोनों ही भारतीय राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, और अखंडता के आदर्शों पर आधारित थे। उनके दृष्टिकोण का विश्लेषण करना यह समझने के लिए आवश्यक है कि उन्होंने किस प्रकार एक मजबूत और अखंड भारत के निर्माण का सपना देखा और उसे वास्तविकता में बदलने का प्रयास किया।

राजनीतिक दर्शन

सरदार पटेल का राजनीतिक दर्शन मुख्यतः राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, और भारतीय सांस्कृतिक एकता पर आधारित था। वे महात्मा गांधी के अनुयायी थे और अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों में विश्वास करते थे, लेकिन वे यह भी मानते थे कि कभी-कभी शक्ति का प्रयोग करना भी आवश्यक होता है। उनके लिए स्वतंत्रता केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं थी, बल्कि आर्थिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक स्वतंत्रता भी थी।

उनके राजनीतिक दर्शन के मुख्य पहलू निम्नलिखित हैं:

1.        राष्ट्रवाद और एकता: पटेल का मानना था कि भारत की विविधता ही उसकी शक्ति है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भारत को एकजुट रखने के लिए सभी समुदायों, जातियों, और भाषाओं के बीच भाईचारे और एकता की भावना विकसित करनी होगी। वह सांस्कृतिक विविधता को समृद्धि मानते थे और इसे संरक्षित रखना चाहते थे।

2.      धर्मनिरपेक्षता: सरदार पटेल एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के पक्षधर थे। उनके अनुसार, भारत की धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह था कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा, और सभी धर्मों के लोगों को समान अधिकार मिलेंगे। उन्होंने विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द्र और आपसी विश्वास को बढ़ावा देने का प्रयास किया।

3.      सामाजिक न्याय: पटेल ने जाति-व्यवस्था के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखा और समाज में सभी के लिए समान अवसरों की वकालत की। उनके राजनीतिक दृष्टिकोण में सामाजिक सुधार और समता का एक विशेष स्थान था, जहां हर व्यक्ति को उसके अधिकार प्राप्त हों।

4.      विकेंद्रीकरण: पटेल का मानना था कि देश का विकास तभी संभव है जब प्रशासनिक शक्तियाँ विकेन्द्रीकृत हों और स्थानीय स्तर पर नागरिकों को अधिकतम निर्णय लेने का अधिकार हो। इसके लिए उन्होंने पंचायतों और ग्राम सभाओं को मजबूत करने की दिशा में काम किया।

प्रशासनिक दृष्टि

सरदार पटेल की प्रशासनिक दृष्टि उनके स्पष्ट और प्रभावी नेतृत्व में दिखाई देती है। उन्होंने अपनी प्रशासनिक क्षमता के माध्यम से भारत की राजनीतिक एकता और अखंडता को सुनिश्चित किया। उनके कुछ महत्वपूर्ण प्रशासनिक निर्णय निम्नलिखित हैं:

1.        रियासतों का एकीकरण: भारत के विभाजन के समय देश में लगभग 562 रियासतें थीं, जो स्वतंत्रता के बाद या तो भारत संघ में शामिल हो सकती थीं या स्वतंत्र रह सकती थीं। यह एक गंभीर चुनौती थी क्योंकि यदि ये रियासतें स्वतंत्र रह जातीं तो भारत की राजनीतिक एकता संकट में पड़ जाती। पटेल ने अपनी अद्वितीय कूटनीति और साहसिक निर्णयों से रियासतों को भारत में मिलाने का कार्य किया। उन्होंने विभिन्न रियासतों के शासकों के साथ बातचीत की, उन्हें विश्वास में लिया और आवश्यकतानुसार सैन्य बल का भी प्रयोग किया।

पटेल के इस कार्य ने न केवल भारत को भौगोलिक रूप से एकीकृत किया बल्कि इसे एक मजबूत और एकता में बंधा हुआ राष्ट्र भी बनाया। हैदराबाद, जूनागढ़, और जम्मू-कश्मीर जैसी रियासतों को भारत में शामिल करना उनके प्रशासनिक कौशल का एक प्रमुख उदाहरण है।

2.      संवैधानिक प्रावधानों का पालन: सरदार पटेल का मानना था कि लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए संविधान का पालन और उसे सुदृढ़ करना आवश्यक है। उन्होंने भारतीय संविधान सभा में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया और भारतीय संविधान के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि संविधान सभी भारतीयों को समान अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान करे।

3.      कानून और व्यवस्था: स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत को कानून और व्यवस्था बनाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ा। विभाजन के कारण हुए साम्प्रदायिक दंगों और हिंसा को नियंत्रित करने के लिए पटेल ने कड़ी कार्रवाई की और पूरे देश में शांति स्थापित करने के लिए प्रभावी कदम उठाए।

4.      लोक प्रशासन और व्यवस्था: पटेल ने स्वतंत्र भारत के प्रशासनिक ढांचे को सुदृढ़ करने के लिए सिविल सेवा के महत्त्व को समझा। उन्होंने भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) को भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) और भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) में बदलने की पहल की। उनका मानना था कि एक कुशल और निष्पक्ष प्रशासनिक सेवा राष्ट्र की प्रगति के लिए आवश्यक है।

मजबूत और अखंड भारत के निर्माण का सपना

सरदार पटेल का सपना एक ऐसा भारत बनाने का था जो न केवल राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो बल्कि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी सशक्त और आत्मनिर्भर हो। इसके लिए उन्होंने निम्नलिखित कदम उठाए:

1.        एकीकरण और अखंडता: पटेल ने स्वतंत्रता के बाद भारत के राजनीतिक एकीकरण को अपनी प्राथमिकता बनाया। उनका मानना था कि जब तक पूरा देश एकजुट नहीं होगा, तब तक वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सकती। रियासतों का एकीकरण और प्रशासनिक सुधार उनके इस लक्ष्य की दिशा में महत्वपूर्ण कदम थे।

2.      आर्थिक विकास: पटेल का विचार था कि एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण आर्थिक विकास के बिना संभव नहीं है। उन्होंने कृषि और उद्योग दोनों के विकास पर बल दिया। उनके नेतृत्व में भारत ने प्रारंभिक चरण में ही कृषि सुधारों और औद्योगिक विकास की दिशा में कदम बढ़ाए।

3.      सांस्कृतिक एकता: पटेल ने भारतीय संस्कृति और सभ्यता की समृद्ध परंपराओं को बनाए रखने पर जोर दिया। उनका मानना था कि विविधता में एकता भारत की सबसे बड़ी ताकत है और इसे संरक्षित करना आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने भाषायी, धार्मिक और सांस्कृतिक मतभेदों के बावजूद भारतीयों के बीच राष्ट्रीयता की भावना का विकास किया।

4.      सुरक्षा: पटेल ने भारत की सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए भी कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए। उन्होंने भारतीय सेना और पुलिस बल को पुनर्गठित करने की दिशा में कार्य किया और सुनिश्चित किया कि राष्ट्र की रक्षा में कोई कमी न हो।

निष्कर्ष

सरदार वल्लभभाई पटेल का राजनीतिक दर्शन और प्रशासनिक दृष्टि भारत की एकता, अखंडता, और धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांतों पर आधारित थे। उन्होंने अपने दृढ़ निश्चय, कूटनीति और प्रशासनिक कुशलता के माध्यम से स्वतंत्रता के बाद के भारत को एकजुट रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके प्रयासों ने भारत को न केवल राजनीतिक रूप से बल्कि सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से भी मजबूत किया।

उनका सपना एक ऐसा भारत था जो विभिन्नता में एकता को बनाए रखते हुए आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त हो। उनके इस दृष्टिकोण का प्रभाव आज भी भारत की नीति और शासन प्रणाली में देखा जा सकता है। वे एक सच्चे राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने भारत की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने के लिए अपने जीवन का सर्वस्व अर्पण कर दिया। उनके प्रयासों के कारण ही आज भारत एक सशक्त और स्थिर राष्ट्र के रूप में खड़ा है।

इस प्रकार, सरदार वल्लभभाई पटेल के राजनीतिक दर्शन और प्रशासनिक दृष्टि का अध्ययन करना उनके योगदानों की सराहना के साथ-साथ यह समझने के लिए भी आवश्यक है कि किस प्रकार एक नेता ने एक मजबूत, सशक्त, और अखंड भारत के निर्माण का सपना देखा और उसे साकार किया।

 

प्रश्न 5:- रियासतों के एकीकरण के महत्व और प्रभाव पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।एकीकृत भारत के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास में इस एकीकरण का क्या योगदान रहा?

 उत्तर:- रियासतों का एकीकरण भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है, जिसने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत को एक एकीकृत और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 15 अगस्त 1947 को जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो इसके साथ ही एक नई चुनौती उभरी: 562 से अधिक रियासतों का एकीकरण, जो ब्रिटिश शासन के अंतर्गत नहीं थीं बल्कि उनके साथ अलग-अलग संधियों के माध्यम से जुड़ी हुई थीं। इन रियासतों को भारतीय संघ में मिलाना न केवल आवश्यक था बल्कि भारत की राष्ट्रीय एकता, सामाजिक स्थायित्व और आर्थिक समृद्धि के लिए भी महत्वपूर्ण था। इस लेख में हम रियासतों के एकीकरण के महत्व और इसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रभावों का विस्तार से वर्णन करेंगे।

रियासतों के एकीकरण का महत्व

स्वतंत्रता के समय भारत के सामने कई समस्याएं थीं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण था एक स्वतंत्र और एकीकृत राष्ट्र का निर्माण। ब्रिटिश भारत और रियासतों के बीच विभाजन ने भारतीय राष्ट्र की अवधारणा को जटिल बना दिया था। रियासतों के एकीकरण के कई महत्वपूर्ण पहलू थे, जो इस प्रकार हैं:

1.        राष्ट्रीय एकता और अखंडता: रियासतों के एकीकरण ने भारत को एक सशक्त और एकीकृत राष्ट्र बनाने में मदद की। स्वतंत्रता के समय भारत कई छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था, जिनके अपने-अपने शासक और प्रशासनिक व्यवस्थाएं थीं। इस विभाजन को समाप्त कर एक एकीकृत राष्ट्र का निर्माण करना, राष्ट्रीय एकता और अखंडता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक था। रियासतों के एकीकरण ने भारत को एक एकजुट पहचान दी और इससे यह सुनिश्चित हुआ कि भारत एक अखंड राष्ट्र के रूप में विश्व पटल पर अपनी स्थिति मजबूत कर सके।

2.      प्रशासनिक स्थायित्व और सुव्यवस्था: यदि रियासतें स्वतंत्र रहतीं या अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मांग करतीं, तो प्रशासनिक अस्थिरता उत्पन्न होती। रियासतों के एकीकरण ने देश में एक सुसंगत प्रशासनिक ढांचे की स्थापना की, जिससे सुचारू शासन व्यवस्था लागू की जा सकी। इसके माध्यम से भारत में एक सामान्य न्यायपालिका, पुलिस, और प्रशासनिक प्रणाली स्थापित की गई, जो पूरे देश में समान रूप से कार्य करती है।

3.      रक्षा और सुरक्षा के दृष्टिकोण से: भारतीय उपमहाद्वीप में रियासतों का स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखना, भारत की रक्षा और सुरक्षा के लिए एक बड़ी चुनौती होती। अगर रियासतें स्वतंत्र होतीं, तो बाहरी शक्तियों द्वारा उनमें हस्तक्षेप की संभावना अधिक रहती, जिससे भारत की संप्रभुता खतरे में पड़ सकती थी। रियासतों के एकीकरण ने भारत की सीमाओं को एकीकृत किया और इसे बाहरी खतरों से बचाने में मदद की।

रियासतों के एकीकरण का सामाजिक प्रभाव

1.        सामाजिक समानता और एकता: रियासतों के एकीकरण से विभिन्न सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई विविधताओं के बावजूद लोगों के बीच सामाजिक एकता का विकास हुआ। भारत एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक राष्ट्र है, और विभिन्न रियासतों के एकीकरण ने सामाजिक समन्वय और सह-अस्तित्व की भावना को बढ़ावा दिया। इससे देश में राष्ट्रीयता की भावना मजबूत हुई और सांप्रदायिकता तथा क्षेत्रीयता के आधार पर बंटवारे की संभावनाएं कम हुईं।

2.      जाति और क्षेत्रीय विभाजन का उन्मूलन: भारत में रियासतों का विभाजन अक्सर जाति और क्षेत्रीय विभाजन को बढ़ावा देता था। लेकिन एकीकरण के बाद, जाति और क्षेत्रीय विभाजन की राजनीति कम हुई, और एक राष्ट्र के रूप में लोगों के बीच बराबरी और भाईचारे की भावना विकसित हुई। भारतीय समाज में सुधार और पुनर्गठन की प्रक्रिया को भी इसने बल दिया, जिससे एक मजबूत और संगठित समाज का निर्माण हो सका।

3.      शिक्षा और सांस्कृतिक विकास: एकीकृत भारत में शिक्षा और सांस्कृतिक गतिविधियों का विस्तार भी हुआ। पहले जो रियासतें अपने-अपने ढंग से शिक्षा और सांस्कृतिक विकास में लगी हुई थीं, अब वे एक संगठित और राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का हिस्सा बन गईं। इससे समाज में शिक्षा का स्तर ऊँचा हुआ और सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करने का अवसर मिला।

रियासतों के एकीकरण का राजनीतिक प्रभाव

1.        राजनीतिक स्थायित्व: रियासतों का एकीकरण भारत में राजनीतिक स्थायित्व लाने के लिए अत्यंत आवश्यक था। स्वतंत्रता के समय, रियासतें भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकती थीं, या फिर स्वतंत्र रह सकती थीं। यह स्थिति भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरनाक थी। सरदार वल्लभभाई पटेल की कुशल कूटनीति और नेतृत्व ने रियासतों को भारतीय संघ में शामिल होने के लिए प्रेरित किया, जिससे राजनीतिक स्थायित्व आया और भारत एक मजबूत लोकतंत्र के रूप में उभरा।

2.      संविधान और लोकतंत्र की स्थापना: रियासतों के एकीकरण के बाद, भारतीय संविधान के तहत सभी क्षेत्रों को एक समान कानूनी और राजनीतिक ढांचे के तहत लाया गया। इससे भारत में लोकतंत्र की स्थापना आसान हुई और सभी नागरिकों को समान अधिकार मिले। एकीकृत भारत ने अपने सभी नागरिकों को एक समान लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत लाकर राजनीतिक जागरूकता और सहभागिता को बढ़ावा दिया।

3.      सत्तावादी शासन का अंत: रियासतों का शासन अक्सर शासकों की मर्जी पर आधारित था, और जनता को राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा जाता था। एकीकरण के बाद, इन रियासतों में भी लोकतांत्रिक प्रणाली लागू की गई, जिससे लोगों को अपनी सरकार चुनने और अपनी बात कहने का अधिकार मिला। यह भारत में लोकतांत्रिक मूल्य और आदर्शों की स्थापना के लिए एक बड़ी सफलता थी।

रियासतों के एकीकरण का आर्थिक प्रभाव

1.        आर्थिक एकीकरण: रियासतों का एकीकरण भारत के आर्थिक विकास के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण था। स्वतंत्रता से पहले, रियासतों की अपनी-अपनी मुद्रा, टैरिफ, और व्यापार नीतियां थीं, जो आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न करती थीं। एकीकरण के बाद, भारत में एक समान आर्थिक नीति और कर प्रणाली लागू की गई, जिससे देश में व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा मिला। इससे देश में एक एकीकृत आर्थिक बाजार का निर्माण हुआ, जिसने उद्योगों और व्यापार को विकास की दिशा में अग्रसर किया।

2.      संवृद्धि और विकास का विस्तार: रियासतों के एकीकरण से छोटे-छोटे क्षेत्रों में भी बुनियादी ढांचे का विकास हुआ। इसके माध्यम से सड़कों, रेलमार्गों, विद्युत् आपूर्ति, और जल वितरण की सुविधाएं एकीकृत रूप से विकसित की गईं। इससे स्थानीय उद्योगों और कृषि को बढ़ावा मिला, और पूरे देश में विकास का एक संतुलित मॉडल तैयार किया गया।

3.      निवेश और औद्योगीकरण: पहले रियासतें अपने-अपने तरीके से व्यापार और औद्योगिक नीतियाँ लागू करती थीं, जिससे भारत के आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न होती थी। एकीकरण के बाद, पूरे देश में निवेश और उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय नीतियां लागू की गईं। इसने न केवल रोजगार के नए अवसर प्रदान किए बल्कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच की आर्थिक खाई को भी कम किया।

निष्कर्ष

रियासतों का एकीकरण भारतीय इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ। इसने न केवल भारत की भौगोलिक सीमाओं को सुरक्षित किया बल्कि देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संरचना को भी एक नई दिशा दी। यह प्रक्रिया भारतीय राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थी और इसे सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल और उनके सहयोगियों का योगदान अनमोल था।

रियासतों के एकीकरण ने एक ऐसी राष्ट्रीय एकता और सामंजस्य स्थापित किया, जिसने भारत को न केवल एक मजबूत लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में स्थापित किया बल्कि इसे वैश्विक मंच पर एक शक्तिशाली और संगठित राष्ट्र भी बनाया। इससे यह भी सिद्ध होता है कि भारत विविधताओं में एकता के सिद्धांत पर आधारित है और यह प्रक्रिया इसकी वास्तविकता को मजबूत करती है। इसके साथ ही, आर्थिक और सामाजिक विकास की दिशा में भी यह एकीकरण महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ, जिससे भारत की वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने की यात्रा का आरंभ हुआ।

 

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न 1:- स्वतंत्रता के बाद भारत में रियासतों का विलय क्यों आवश्यक था?

उत्तर:- स्वतंत्रता के बाद भारत में रियासतों का विलय आवश्यक था क्योंकि यह देश की एकता और अखंडता के लिए महत्वपूर्ण था। भारत जब 1947 में स्वतंत्र हुआ, तब देश में 565 से अधिक रियासतें थीं, जो ब्रिटिश शासन के अधीन नहीं थीं, बल्कि स्थानीय शासकों द्वारा संचालित होती थीं। ब्रिटिश सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया था कि इन रियासतों के शासकों को यह स्वतंत्रता होगी कि वे भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ मिल सकते हैं या फिर स्वतंत्र रह सकते हैं।

यदि रियासतें स्वतंत्र रहतीं, तो यह भारत की राजनीतिक और आर्थिक एकता के लिए बड़ा खतरा होता। रियासतों का स्वतंत्र रहना न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती था, बल्कि इससे देश की प्रशासनिक व्यवस्था भी कमजोर हो जाती। इसके अलावा, एक संगठित और एकीकृत राष्ट्र के निर्माण के लिए सभी क्षेत्रों का एक ही शासन के अंतर्गत होना आवश्यक था।

इसलिए, सरदार वल्लभभाई पटेल ने दृढ़ संकल्प और कूटनीति के माध्यम से रियासतों के शासकों को भारत में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित किया। उनकी कुशलता और नेतृत्व के कारण अधिकांश रियासतें स्वेच्छा से भारत में शामिल हो गईं, जिससे एक मजबूत और एकीकृत राष्ट्र का निर्माण हुआ।

 

प्रश्न 2:- भारत में रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया में आने वाली प्रमुख चुनौतियाँ क्या थीं?

उत्तर:- भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद रियासतों का एकीकरण एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य था। 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के समय देश में लगभग 565 रियासतें थीं, जिनका भारत में एकीकरण सुनिश्चित करना एक जटिल कार्य था। इस प्रक्रिया में कई प्रमुख चुनौतियाँ सामने आईं:

1.        रियासतों के शासकों की स्वतंत्रता की इच्छा: कई रियासतों के शासक स्वतंत्रता के बाद अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखना चाहते थे। हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर जैसी रियासतों ने प्रारंभ में भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया, जिससे एकीकरण की प्रक्रिया कठिन हो गई।

2.      धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता: कई रियासतें धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भिन्न थीं। कुछ रियासतों के शासक मुस्लिम थे जबकि उनकी आबादी हिंदू बहुल थी, जिससे भारत में शामिल होने के निर्णय में दुविधा उत्पन्न हुई।

3.      भौगोलिक चुनौतियाँ: कुछ रियासतें भारत के केंद्र में स्थित थीं, जबकि कुछ सीमांत क्षेत्रों में। इनके भूगोलिक स्थिति के कारण सामरिक और सुरक्षा से जुड़े मुद्दे सामने आए।

4.      पाकिस्तान का हस्तक्षेप: पाकिस्तान ने भी कुछ रियासतों, जैसे कि जूनागढ़ और कश्मीर, को अपने में मिलाने की कोशिश की, जिससे भारत के लिए संकट की स्थिति पैदा हो गई।

इन सभी चुनौतियों के बावजूद, सरदार वल्लभभाई पटेल के कुशल नेतृत्व और कूटनीति के कारण भारत ने सफलतापूर्वक इन रियासतों का एकीकरण कर देश की अखंडता और एकता को सुनिश्चित किया।

 

प्रश्न 3:- हैदराबाद रियासत का भारत में विलय कैसे हुआ?

उत्तर:- हैदराबाद रियासत का भारत में विलय भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, हैदराबाद के निज़ाम, मीर उस्मान अली ख़ान, भारत में विलय के लिए तैयार नहीं थे और उन्होंने स्वतंत्र रहने की इच्छा व्यक्त की। हैदराबाद उस समय की सबसे बड़ी रियासत थी और यह भू-भाग के हिसाब से भी भारत के बीचोबीच स्थित थी। यदि यह स्वतंत्र रहता, तो भारत की राजनीतिक और भौगोलिक अखंडता को गंभीर खतरा हो सकता था।

सरदार वल्लभभाई पटेल ने इस समस्या का समाधान कूटनीति और बल दोनों के माध्यम से किया। जब बातचीत से कोई हल नहीं निकला, तो पटेल ने ‘ऑपरेशन पोलो’ नामक सैन्य अभियान चलाया। 13 सितंबर 1948 को भारतीय सेना ने हैदराबाद में प्रवेश किया और पांच दिनों के भीतर ही निज़ाम की सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके बाद हैदराबाद को भारतीय संघ में शामिल कर लिया गया।

इस प्रकार, सरदार पटेल की दृढ़ निश्चयता और रणनीतिक कौशल ने हैदराबाद रियासत का भारत में सफलतापूर्वक विलय सुनिश्चित किया, जिससे देश की एकता और अखंडता बनी रही।

 

प्रश्न 4:- जूनागढ़ रियासत के एकीकरण से जुड़े प्रमुख मुद्दे क्या थे?

उत्तर:- जूनागढ़ रियासत का एकीकरण भारतीय उपमहाद्वीप में विभाजन के बाद उत्पन्न एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद मुद्दा था। जूनागढ़, जो वर्तमान गुजरात में स्थित था, एक हिंदू बहुल क्षेत्र था, लेकिन इसका शासक नवाब मुहम्मद महाबत खान तृतीय मुसलमान था। भारत की स्वतंत्रता के समय नवाब ने पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लिया, जो एक अस्वाभाविक निर्णय था क्योंकि रियासत की अधिकांश जनता हिंदू थी और वे भारत में शामिल होना चाहते थे।

यह निर्णय भारतीय नेताओं के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया। सरदार वल्लभभाई पटेल, जो उस समय गृह मंत्री थे, ने यह स्पष्ट कर दिया कि जूनागढ़ का पाकिस्तान में विलय स्वीकार्य नहीं होगा। भारत ने इस विवाद का हल निकालने के लिए रियासत के शासक पर दबाव डाला और अंततः भारतीय सेना ने जूनागढ़ में प्रवेश किया। इसके बाद एक जनमत संग्रह कराया गया, जिसमें जनता ने भारत में शामिल होने के पक्ष में मतदान किया।

इस तरह, जूनागढ़ का एकीकरण भारत की क्षेत्रीय अखंडता के लिए महत्वपूर्ण था और इसने यह संदेश दिया कि जनभावनाओं का सम्मान करते हुए भारत अपने क्षेत्रीय हितों की रक्षा के लिए तत्पर है।

 

प्रश्न 5:- सरदार वल्लभभाई पटेल ने रियासतों के भारत में विलय के लिए कौन-कौन से प्रयास किए?

उत्तर:- सरदार वल्लभभाई पटेल ने रियासतों के भारत में विलय के लिए कई महत्वपूर्ण प्रयास किए, जिनका मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता के बाद भारत को एक एकीकृत और संगठित राष्ट्र बनाना था। उनके नेतृत्व और कुशल रणनीति ने 565 से अधिक रियासतों को भारत में शामिल करने का मार्ग प्रशस्त किया।

पहला प्रयास था सीधा संवाद और कूटनीति। पटेल ने रियासतों के शासकों से व्यक्तिगत रूप से मुलाकात की और उन्हें यह समझाने का प्रयास किया कि स्वतंत्र रियासत के रूप में रहना उनके और उनके प्रजा के हित में नहीं होगा। उन्होंने शासकों को यह आश्वासन दिया कि उनके निजी और आर्थिक हितों की रक्षा की जाएगी, जिससे वे भारत में सम्मिलित होने के लिए सहमत हुए।

दूसरा प्रयास था विलय पत्र (Instrument of Accession)। पटेल ने एक कानूनी दस्तावेज तैयार करवाया, जिस पर रियासतों के शासकों ने हस्ताक्षर किए। इस दस्तावेज के माध्यम से रियासतें स्वेच्छा से भारत का हिस्सा बन गईं।

तीसरा प्रयास था दृढ़ संकल्प और बल प्रयोग। कुछ रियासतें, जैसे हैदराबाद और जूनागढ़, विलय के लिए तैयार नहीं थीं। ऐसी स्थिति में पटेल ने बल का भी उपयोग किया, ताकि भारत की एकता को बनाए रखा जा सके।

इन प्रयासों के माध्यम से पटेल ने भारत को एक संगठित और मजबूत राष्ट्र के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 

प्रश्न 6:- ‘लौह पुरुष’ के रूप में सरदार पटेल को क्यों जाना जाता है?

उत्तर:- सरदार वल्लभभाई पटेल को ‘लौह पुरुष’ (Iron Man) के रूप में जाना जाता है क्योंकि उन्होंने भारत के एकीकरण में दृढ़ संकल्प, अदम्य साहस और कुशल नेतृत्व का प्रदर्शन किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी 565 से अधिक रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करना। कई रियासतों के शासक अपनी स्वतंत्रता बनाए रखना चाहते थे और कुछ तो पाकिस्तान में शामिल होने के इच्छुक थे। ऐसे कठिन समय में सरदार पटेल ने बिना किसी डर और दृढ़ता के साथ एकीकरण की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक अंजाम दिया।

उन्होंने अपनी कुशल कूटनीति और बातचीत की क्षमता का प्रयोग कर जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और अन्य रियासतों को भारत में मिलाने का कार्य किया। उनके इस साहसी और कठोर निर्णय लेने की क्षमता ने उन्हें ‘लौह पुरुष’ की उपाधि दी। उन्होंने ‘ऑपरेशन पोलो’ जैसे सैन्य अभियानों के जरिए भी यह सुनिश्चित किया कि कोई भी रियासत भारत की अखंडता के खिलाफ न जाए।

सरदार पटेल के कठोर और दृढ़ नेतृत्व ने एक नए भारत का निर्माण किया और इसीलिए उन्हें भारतीय एकता के रक्षक के रूप में भी सम्मानित किया जाता है। उनके योगदान के कारण ही भारत एक मजबूत और अखंड राष्ट्र बना।

 

प्रश्न 7:- भारत के एकीकरण में ‘राज्य पुनर्गठन नीति’ का क्या महत्व था?

उत्तर:- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक था देश की एकता और अखंडता को बनाए रखना। उस समय भारत में कई छोटी-बड़ी रियासतें और प्रांत थे, जिनकी भाषाएं, संस्कृतियां, और प्रशासनिक व्यवस्थाएं अलग-अलग थीं। इस विविधता ने प्रशासनिक जटिलताओं और राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया। ऐसे में सरदार वल्लभभाई पटेल ने ‘राज्य पुनर्गठन नीति’ की नींव रखी, जिसका उद्देश्य देश को एकजुट और संगठित करना था।

1956 में ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ की सिफारिशों के आधार पर भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया। इस नीति के माध्यम से भाषाई और सांस्कृतिक आधार पर राज्यों की सीमाओं को पुनर्निर्धारित किया गया, जिससे राज्यों के भीतर एकता और प्रशासनिक सुगमता बनी रहे। यह नीति न केवल भाषाई और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए थी, बल्कि एक मजबूत संघीय ढांचे को भी स्थापित करने का प्रयास था।

राज्य पुनर्गठन नीति ने स्थानीय जनता की भावनाओं का सम्मान करते हुए देश की अखंडता को सुरक्षित रखा और इसके माध्यम से भारत एक सशक्त, संगठित और एकजुट राष्ट्र के रूप में उभर सका। इस नीति के कारण ही आज भारत की विविधता में एकता के सिद्धांत को बनाए रखना संभव हो सका है।

 

प्रश्न 8:- सरदार पटेल के योगदान के बिना आधुनिक भारत का निर्माण किस प्रकार प्रभावित होता?

उत्तर:- सरदार वल्लभभाई पटेल के योगदान के बिना आधुनिक भारत का निर्माण अत्यधिक कठिन और संभवतः अव्यवस्थित होता। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत में लगभग 562 रियासतें थीं, जो स्वतंत्र या पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय ले सकती थीं। सरदार पटेल ने अपनी कुशल कूटनीति और दृढ़ निश्चय के माध्यम से इन रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने का महान कार्य किया। यदि उन्होंने यह प्रयास नहीं किया होता, तो भारत एक संगठित और एकीकृत राष्ट्र नहीं बन पाता। कई रियासतें स्वतंत्र रह जातीं या भारत के अंदर अलग-अलग स्वतंत्र क्षेत्र होते, जिससे देश की राजनीतिक और भौगोलिक एकता कमजोर हो जाती।

पटेल ने ‘ऑपरेशन पोलो’ के माध्यम से हैदराबाद जैसी बड़ी रियासत का भारत में विलय सुनिश्चित किया और जूनागढ़ जैसी रियासतों को शांतिपूर्ण तरीके से भारतीय संघ में शामिल किया। इसके अलावा, उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) और भारतीय पुलिस सेवा (IPS) की स्थापना कर प्रशासनिक ढांचे को मजबूत किया, जिससे देश के विकास और स्थायित्व की नींव पड़ी।

सरदार पटेल के नेतृत्व के बिना, भारत न केवल भौगोलिक रूप से बंटा होता, बल्कि प्रशासनिक ढांचा भी कमजोर होता, जिससे देश की एकता और अखंडता के समक्ष गंभीर चुनौतियाँ खड़ी होतीं। उनके अभूतपूर्व योगदान के बिना एक सशक्त और एकजुट भारत की कल्पना करना कठिन होता।

 

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न 1:- स्वतंत्रता के बाद भारत में रियासतों के विलय की आवश्यकता क्यों पड़ी?

उत्तर:- स्वतंत्रता के बाद भारत में रियासतों के विलय की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि देश विभाजित रियासतों में बंटा हुआ था, जो राजनीतिक अखंडता, प्रशासनिक एकता और आर्थिक समृद्धि के लिए बाधक थे। विलय से एक सशक्त, एकीकृत राष्ट्र निर्माण संभव हो सका।

 

प्रश्न 2:- रियासतों के भारत में विलय के लिए किस सरकारी नीति का पालन किया गया?

उत्तर:- रियासतों के भारत में विलय के लिए सरकारी नीति ‘न्यूपेलॉन आई के सिद्धांतों’ का पालन किया गया। इसमें स्वैच्छिक विलय, संधि और बातचीत के माध्यम से रियासतों को भारतीय संघ में शामिल किया गया, जिससे शांतिपूर्ण और संगठित एकीकरण सुनिश्चित हो सके।

 

प्रश्न 3:- सरदार वल्लभभाई पटेल को किस उपाधि से सम्मानित किया जाता है?

उत्तर:- सरदार वल्लभभाई पटेल को ‘लौह पुरुष’ (Iron Man) की उपाधि से सम्मानित किया जाता है। यह उपाधि उनकी दृढ़ता, नेतृत्व क्षमता और रियासतों के सफल एकीकरण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण दी गई है।

 

प्रश्न 4:- रियासतों के एकीकरण में सरदार पटेल की भूमिका क्यों महत्वपूर्ण मानी जाती है?

उत्तर:- रियासतों के एकीकरण में सरदार पटेल की भूमिका इसलिए महत्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि उन्होंने न केवल राजनीतिक कुशलता दिखाई बल्कि मजबूत नेतृत्व के साथ विभिन्न रियासतों को भारतीय संघ में जोड़ने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी रणनीतिक सोच ने देश के अखंडता को सुनिश्चित किया।

 

प्रश्न 5:- ‘संघर्ष के बिना एकीकरण’ (Integration without Conflict) से आप क्या समझते हैं?

उत्तर:- ‘संघर्ष के बिना एकीकरण’ का अर्थ है कि रियासतों को बिना किसी हिंसात्मक संघर्ष या लड़ाई के भारतीय संघ में सम्मिलित करना। यह शांति, समझौते और कूटनीति के माध्यम से सफल एकीकरण को दर्शाता है, जो सरदार पटेल की नीतियों का परिणाम था।

 

प्रश्न 6:- भारत की आज़ादी के समय कितनी रियासतें मौजूद थीं?

उत्तर:- भारत की आज़ादी के समय लगभग 562 रियासतें मौजूद थीं। इनमें से लगभग 565 रियासतों को स्वतंत्रता के बाद भारतीय संघ में विलय करना था, जिसमें से अधिकांश रियासतें बाद में एकीकृत हो गईं।

 

प्रश्न 7:- हैदराबाद राज्य के विलय के लिए कौन-सा सैन्य अभियान चलाया गया था?

उत्तर:- हैदराबाद राज्य के विलय के लिए ‘ऑपरेशन पोलारा’ नामक सैन्य अभियान चलाया गया था। यह अभियान 1948 में संचालित किया गया था, जिससे हैदराबाद को भारत में सम्मिलित किया गया और राज्य का अखंडता सुनिश्चित हुआ।

 

प्रश्न 8:- ‘लौह पुरुष’ (Iron Man) की उपाधि सरदार पटेल को क्यों दी गई?

उत्तर:- ‘लौह पुरुष’ की उपाधि सरदार पटेल को उनकी दृढ़ता, साहस और रियासतों के एकीकरण में उनकी कठोर नीतियों के कारण दी गई। उनकी अडिग नेतृत्व क्षमता और समस्याओं के समाधान के प्रति उनके संकल्प ने इस उपाधि को उचित बनाया।

 

प्रश्न 9:- जूनागढ़ रियासत का भारत में विलय कैसे हुआ?

उत्तर:- जूनागढ़ रियासत का भारत में विलय तब हुआ जब महाराजा हुमायूं शाह ने 1948 में जनता के बहुमत से भारत में विलय का निर्णय लिया। इसके बाद, सैनिक हस्तक्षेप और राजनीतिक समझौते के माध्यम से रियासत को शांतिपूर्ण रूप से भारत में शामिल किया गया।

 

प्रश्न 10:- सरदार पटेल के साथ रियासतों के एकीकरण में किस वरिष्ठ नौकरशाह ने सहयोग दिया?

उत्तर:- सरदार पटेल के साथ रियासतों के एकीकरण में बाल गंगाधर तिलक जैसे वरिष्ठ नौकरशाह ने सहयोग दिया। तिलक ने प्रशासनिक अनुभव और रणनीतिक समर्थन प्रदान करके इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 

प्रश्न 11:- रियासतों के एकीकरण के लिए किस वर्ष ‘राज्य विभाग’ (States Department) की स्थापना की गई?

उत्तर:- रियासतों के एकीकरण के लिए 1950 में ‘राज्य विभाग’ की स्थापना की गई थी। इस विभाग का उद्देश्य रियासतों के विलय की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना और एकीकृत भारतीय संघ की स्थापना में सहायता करना था।

 

प्रश्न 12:- कश्मीर का भारत में विलय किन परिस्थितियों में हुआ?

उत्तर:- कश्मीर का भारत में विलय तब हुआ जब महाराजा हिमाचल का शासन छोड़कर उन्होंने भारत को अपना अभिन्न हिस्सा घोषित किया। इसके पश्चात, सेना का हस्तक्षेप और अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करते हुए, कश्मीर भारत में शामिल हो गया।

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