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भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और भारत का संविधान (सेमेस्टर-1)

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यूनिट-1: भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और भारत का संविधान

 

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न 1:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का आरंभ कैसे हुआ, और इसके विकास की प्रमुख अवस्थाएँ कौन-कौन सी थीं?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का आरंभ और इसके विकास की प्रमुख अवस्थाएँ भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय हैं। यह आंदोलन भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्ति दिलाने के लिए शुरू किया गया था और इसके विकास में कई चरण शामिल थे। इस उत्तर में हम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के आरंभ और इसके विकास की प्रमुख अवस्थाओं का विश्लेषण करेंगे।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का आरंभ

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का आरंभ 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के आरंभ में हुआ। इस आंदोलन की शुरुआत ब्रिटिश शासन की नीतियों के विरोध के रूप में हुई। ब्रिटिश शासन की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक नीतियों के कारण भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में असंतोष बढ़ने लगा। भारतीय समाज ने इन नीतियों का विरोध करते हुए एक संगठित आंदोलन की दिशा में कदम बढ़ाया।

प्रारंभिक कारण

1.     आर्थिक शोषण: ब्रिटिश सरकार ने भारतीय कृषि और उद्योग को अपने हित में उपयोग किया। भारतीय किसानों से अधिक कर वसूला गया और उनके उत्पादों को सस्ते दामों पर खरीदा गया। इसके अलावा, ब्रिटिश उद्योगों के लिए भारत को एक बाजार के रूप में इस्तेमाल किया गया, जिससे भारतीय हस्तशिल्प और छोटे उद्योग बर्बाद हो गए।

2.    सामाजिक और धार्मिक दमन: ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय संस्कृति, परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं को लगातार निशाना बनाया गया। ब्रिटिश मिशनरी गतिविधियों और उनके द्वारा भारतीय धर्मों की निंदा करने के प्रयासों ने भारतीयों के आत्मसम्मान को आहत किया।

3.   राजनीतिक दमन: ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को प्रशासन में भाग लेने का कोई अवसर नहीं दिया। उन्होंने भारतीयों को सत्ता और प्रशासनिक मामलों से दूर रखा। इसने भारतीयों के भीतर एक राजनीतिक जागरूकता को जन्म दिया और उन्हें अपने अधिकारों के लिए संगठित होने की प्रेरणा दी।

4.   शिक्षा का प्रसार: 19वीं सदी में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के कारण भारत में एक नई शिक्षित वर्ग का उदय हुआ। इस शिक्षित वर्ग ने पश्चिमी विचारों जैसे स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र के बारे में जानकारी हासिल की। इस वर्ग ने ब्रिटिश शासन की अन्यायपूर्ण नीतियों का विरोध करना शुरू किया और स्वतंत्रता की मांग की।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख चरण

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का विकास विभिन्न अवस्थाओं में हुआ, जिनमें प्रमुख रूप से तीन चरणों का उल्लेख किया जा सकता है:

1. प्रारंभिक राष्ट्रवादी चरण (1885 – 1905)

इस चरण में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) की स्थापना हुई और इसका उद्देश्य भारतीयों के हितों की रक्षा करना था। इस चरण में आंदोलन के प्रमुख नेता दादा भाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक थे। इस काल के दौरान आंदोलन में उदारवादी नीति अपनाई गई और ब्रिटिश शासन से प्रार्थना और निवेदन के माध्यम से भारतीयों के अधिकारों की मांग की गई।

·       भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885): भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में एक महत्वपूर्ण घटना कांग्रेस की स्थापना थी। इसकी स्थापना 1885 में हुई और इसका उद्देश्य भारत के विभिन्न प्रांतों के लोगों को एक मंच पर लाना था, ताकि वे ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट होकर अपने अधिकारों की मांग कर सकें।

·       आर्थिक और राजनीतिक मांगें: प्रारंभिक राष्ट्रवादी चरण में भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश शासन के सामने आर्थिक और राजनीतिक सुधारों की मांग रखी। उन्होंने भारतीयों को सरकारी नौकरियों में अधिक अवसर देने, अधिक अधिकार देने और भारतीय अर्थव्यवस्था को समृद्ध करने की मांग की।

2. उग्रवादी चरण (1905 – 1918)

इस चरण में आंदोलन में उग्रवादी रुख अपनाया गया। इसके मुख्य कारण बंगाल का विभाजन (1905) था, जिसे ब्रिटिश सरकार ने सांप्रदायिक आधार पर किया था। इस विभाजन के विरोध में भारतीयों ने आंदोलन को और उग्र रूप दिया। इस चरण में बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय जैसे नेताओं ने नेतृत्व किया और “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” का नारा दिया।

·       बंगाल विभाजन (1905): ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन किया, जिसके पीछे उनका उद्देश्य हिंदू और मुस्लिम समाज के बीच दरार पैदा करना था। इस विभाजन के विरोध में स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें भारतीयों ने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया और भारतीय उत्पादों के उपयोग को प्रोत्साहित किया।

·       स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन: स्वदेशी आंदोलन ने भारतीयों को अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए अपने उत्पादों का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया। इसके तहत विदेशी वस्त्रों और उत्पादों का बहिष्कार किया गया। इससे भारत में एक नई आत्मनिर्भरता की भावना पैदा हुई और ब्रिटिश व्यापार को नुकसान हुआ।

·       क्रांतिकारी गतिविधियाँ: इस चरण में कई क्रांतिकारी संगठनों का गठन हुआ, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाया। भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, बटुकेश्वर दत्त, राजगुरु और खुदीराम बोस जैसे क्रांतिकारी इस संघर्ष के प्रतीक बने।

3. गांधीवादी चरण (1919 – 1947)

महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने एक नए रूप और दिशा का विकास किया। गांधी जी ने अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों पर आधारित आंदोलन का नेतृत्व किया। इस चरण में तीन प्रमुख आंदोलनों का उल्लेख किया जा सकता है: असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन।

·       असहयोग आंदोलन (1920 – 1922): जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद गांधी जी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ असहयोग आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन में लोगों ने सरकारी नौकरियों, विद्यालयों और अदालतों का बहिष्कार किया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश शासन की नींव को हिला दिया और भारतीयों को एकजुट किया।

·       सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930 – 1934): नमक कानून के विरोध में गांधी जी ने 1930 में दांडी यात्रा शुरू की और सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की। इस आंदोलन में भारतीयों ने ब्रिटिश कानूनों का उल्लंघन किया और स्वतंत्रता की मांग की। इस आंदोलन ने भारतीयों में एक नई चेतना पैदा की और स्वतंत्रता की भावना को मजबूत किया।

·       भारत छोड़ो आंदोलन (1942): द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार से अपने देश को छोड़ने की मांग की। गांधी जी ने “भारत छोड़ो” का नारा दिया और इस आंदोलन में लाखों भारतीयों ने भाग लिया। यह आंदोलन ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सबसे बड़ा जनांदोलन था और इसने स्वतंत्रता की दिशा में अंतिम कदम बढ़ाया।

स्वतंत्रता और विभाजन (1947)

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के अंतर्गत अंततः भारत को 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिली। परंतु, स्वतंत्रता के साथ ही भारत का विभाजन भी हुआ और एक नया देश पाकिस्तान बना। इस विभाजन के पीछे सांप्रदायिक दंगे, धार्मिक तनाव और राजनीतिक असहमति थी। भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन ने लाखों लोगों को विस्थापित कर दिया और कई परिवारों को बर्बाद कर दिया।

निष्कर्ष

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने भारतीय समाज में एक नई चेतना का संचार किया और इसे एकजुट किया। इस आंदोलन ने न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता दिलाई, बल्कि भारत को एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के रूप में स्थापित किया। इस आंदोलन के दौरान भारत के नेताओं और जनता ने अपार बलिदान दिए और अपने देश के लिए संघर्ष किया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की विभिन्न अवस्थाओं ने भारत को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया और आज हम स्वतंत्र भारत में अपनी स्वतंत्रता का आनंद ले रहे हैं।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से हमें यह सिखने को मिलता है कि जब लोग एकजुट होकर किसी उद्देश्य के लिए संघर्ष करते हैं, तो कोई भी शक्ति उन्हें रोक नहीं सकती। यह भारतीय इतिहास का गौरवशाली अध्याय है, जिसने हमें अपने देश के प्रति गर्व और आत्मसम्मान का अहसास कराया।

 

प्रश्न 2:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का क्या योगदान रहा?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत से लेकर स्वतंत्रता की प्राप्ति तक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों ने स्वतंत्रता की भावना को प्रेरित और समर्थन दिया। इन प्रवृत्तियों ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम के स्वरूप को बदल दिया, बल्कि भारतीय समाज में भी एक गहरा परिवर्तन लाया। इस निबंध में, हम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न पहलुओं का अवलोकन करेंगे और देखेंगे कि कैसे इन राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों ने स्वतंत्रता संग्राम को दिशा और गति दी।

1. राजनीतिक प्रवृत्तियाँ और उनका योगदान

(क) प्रारंभिक राष्ट्रवाद का उदय

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत 19वीं सदी के उत्तरार्ध में हुई जब अंग्रेजों के अत्याचारों और शोषण से भारतीय समाज में असंतोष बढ़ने लगा। इस दौर में, भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ और उन्होंने संगठित होकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ आवाज उठाई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885) इस राष्ट्रवादी आंदोलन का पहला बड़ा कदम था। इसका उद्देश्य भारतीयों के अधिकारों की रक्षा और उन्हें राजनीतिक मंच पर आवाज देने का था।

(ख) स्वदेशी आंदोलन

स्वदेशी आंदोलन (1905) का मुख्य उद्देश्य विदेशी वस्त्रों और उत्पादों का बहिष्कार करना था, ताकि भारतीय उद्योगों का विकास हो सके। बंगाल विभाजन के विरोध में शुरू हुए इस आंदोलन ने भारतीय समाज को आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया और अंग्रेजी शासन के खिलाफ एकजुट होने का संदेश दिया। इस आंदोलन ने भारतीयों में आत्मगौरव की भावना जगाई और राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा दी।

(ग) होमरूल आंदोलन और गांधीजी का आगमन

होमरूल आंदोलन (1916) का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट ने किया था। इस आंदोलन का उद्देश्य भारत में स्वशासन की स्थापना करना था। इसके साथ ही, महात्मा गांधी के भारत आगमन (1915) ने राष्ट्रीय आंदोलन में एक नया मोड़ दिया। गांधीजी के नेतृत्व में, असहयोग आंदोलन (1920), सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) जैसे महत्वपूर्ण आंदोलनों ने अंग्रेजी शासन की नींव को हिलाकर रख दिया। गांधीजी की सत्य और अहिंसा की नीति ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को एक व्यापक जनसमर्थन प्रदान किया।

(घ) मुस्लिम लीग और सांप्रदायिकता का उदय

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान सांप्रदायिकता एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रवृत्ति थी। मुस्लिम लीग का गठन (1906) सांप्रदायिक राजनीति का प्रतीक था। इसके परिणामस्वरूप भारत के विभाजन की संभावना बढ़ गई, जो अंततः 1947 में वास्तविकता बनी। सांप्रदायिकता की इस प्रवृत्ति ने राष्ट्रीय एकता को प्रभावित किया, लेकिन इससे भारतीय समाज में धर्मनिरपेक्षता और एकता की आवश्यकता का बोध भी हुआ।

(ङ) साम्यवाद और समाजवाद का प्रभाव

1920 के दशक में साम्यवादी और समाजवादी विचारधाराओं ने भी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को प्रभावित किया। भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी नेताओं ने समाजवादी विचारधारा को अपनाकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का मार्ग चुना। इन नेताओं ने भारतीय समाज में समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा का प्रसार किया और स्वतंत्रता के बाद के भारत में समाजवादी राजनीति की नींव रखी।

2. सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ और उनका योगदान

(क) पुनर्जागरण और भारतीय सांस्कृतिक जागृति

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सांस्कृतिक जागृति का एक महत्वपूर्ण दौर देखा गया। 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में, भारतीय समाज में पुनर्जागरण की लहर चली। इस पुनर्जागरण का उद्देश्य भारतीय संस्कृति, परंपराओं और धर्म को पुनः प्रतिष्ठित करना था। राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, और दयानंद सरस्वती जैसे संतों ने भारतीय समाज में एक नई जागरूकता पैदा की और लोगों को अपने सांस्कृतिक और धार्मिक गौरव के प्रति जागरूक किया।

(ख) हिंदी साहित्य और साहित्यिक आंदोलन

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी साहित्य ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, और महादेवी वर्मा जैसे साहित्यकारों ने अपने लेखन के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित किया। उनके साहित्यिक रचनाओं ने भारतीय समाज को जागरूक किया और स्वाधीनता की भावना को बल दिया। उनकी कविताओं, नाटकों, और कहानियों ने समाज में राष्ट्रवाद की भावना को जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

(ग) राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन

राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का उद्देश्य भारतीयों को उनकी सांस्कृतिक धरोहर और परंपराओं के बारे में जागरूक करना था। ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली का विरोध करते हुए, भारतीय नेताओं ने अपने देशवासियों के लिए एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का विकास किया, जो भारतीय संस्कृति और इतिहास को महत्व देती हो। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और अन्य संस्थानों की स्थापना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम थे।

(घ) धार्मिक सुधार आंदोलन

सती प्रथा, बाल विवाह और जाति-व्यवस्था जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए धार्मिक सुधार आंदोलनों की शुरुआत की गई। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, और रामकृष्ण मिशन जैसे संगठनों ने धार्मिक सुधारों के माध्यम से भारतीय समाज को संगठित किया और सांस्कृतिक चेतना का विकास किया। इन सुधार आंदोलनों ने समाज में सहिष्णुता, समानता और भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित किया।

(ङ) लोक संगीत और लोकनृत्य

लोक संगीत और लोकनृत्य ने भी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लोक कलाकारों ने अपने गायन और नृत्य के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम के संदेश को आम जनता तक पहुँचाया। लोक संगीत और नृत्य ने भारतीय समाज को एकता के सूत्र में बाँधा और उन्हें अपनी सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व महसूस करने का अवसर दिया।

3. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और आधुनिक भारत

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने आधुनिक भारत की नींव रखी। इस आंदोलन ने भारतीयों को एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ संगठित संघर्ष का पाठ पढ़ाया। भारतीय समाज में राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का संयोजन करके, इस आंदोलन ने एक नई भारतीय पहचान का निर्माण किया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विकसित हुई राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों ने स्वतंत्रता के बाद के भारत में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

(क) धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक समानता

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही भारतीय समाज में धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक समानता का विचार प्रबल हुआ। स्वतंत्रता के बाद, भारतीय संविधान ने धर्मनिरपेक्षता, समानता, और स्वतंत्रता को अपने मौलिक सिद्धांतों के रूप में अपनाया। यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान विकसित हुए विचारों का ही प्रतिफल है।

(ख) सांस्कृतिक विविधता और राष्ट्रीय एकता

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने भारतीय समाज की सांस्कृतिक विविधता को स्वीकार किया और राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया। इस आंदोलन ने विभिन्न धर्मों, भाषाओं, और संस्कृतियों के लोगों को एकजुट कर एक राष्ट्र की भावना को जन्म दिया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विकसित हुई सांस्कृतिक प्रवृत्तियों ने स्वतंत्र भारत में विविधता में एकता के सिद्धांत को स्थापित किया।

निष्कर्ष

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का योगदान अविस्मरणीय है। इन प्रवृत्तियों ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित किया, बल्कि भारतीय समाज में एक नई चेतना का संचार भी किया। राजनीतिक प्रवृत्तियों ने भारतीयों को अपने अधिकारों के प्रति सजग बनाया और उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ संगठित संघर्ष के लिए प्रेरित किया। वहीं, सांस्कृतिक प्रवृत्तियों ने भारतीय समाज को अपनी सांस्कृतिक धरोहर के प्रति जागरूक किया और उन्हें आत्मगौरव का पाठ पढ़ाया। इस प्रकार, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता में राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है।

 

प्रश्न 3:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन करें और उनका भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण घटनाओं और बदलावों का एक व्यापक इतिहास है। ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय समाज द्वारा संगठित किए गए आंदोलनों और संघर्षों ने न केवल स्वतंत्रता दिलाई बल्कि भारतीय समाज की संरचना, राजनीति, और सांस्कृतिक मूल्यों को भी गहराई से प्रभावित किया। इस उत्तर में, हम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की प्रमुख घटनाओं का वर्णन करेंगे और उनके समाज पर पड़े प्रभावों का विश्लेषण करेंगे।

1. 1857 का विद्रोह (प्रथम स्वतंत्रता संग्राम)

1857 का विद्रोह भारतीय इतिहास की पहली संगठित क्रांति मानी जाती है। इसे सिपाही विद्रोह, महान विद्रोह या प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम से भी जाना जाता है। ब्रिटिश सरकार के अन्यायपूर्ण नीतियों और भारतीय सैनिकों के साथ हुए अत्याचारों के कारण यह विद्रोह भड़का। मंगल पांडेय द्वारा पहली बार विरोध का स्वर उठाने के बाद यह विद्रोह तेजी से फैल गया और दिल्ली, कानपुर, झांसी, और अवध जैसे कई स्थानों पर हिंसक संघर्ष हुए। हालांकि यह विद्रोह असफल रहा, परन्तु इसने भारतीय समाज में ब्रिटिश शासन के प्रति आक्रोश को उजागर किया और आगे के संघर्षों के लिए प्रेरणा दी।

समाज पर प्रभाव:

·       इस विद्रोह ने भारतीय समाज में राष्ट्रीयता की भावना को जन्म दिया।

·       इसने भारतीय समाज को यह दिखाया कि संगठित होकर वे ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ खड़े हो सकते हैं।

·       भारतीय रजवाड़ों और जनता के बीच एकजुटता बढ़ी और यह भविष्य के आंदोलनों के लिए प्रेरणा बनी।

2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन (1885)

1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भारतीय समाज के शिक्षित वर्ग द्वारा की गई। इस संगठन का उद्देश्य भारतीयों के अधिकारों की रक्षा करना और उन्हें ब्रिटिश सरकार के सामने रखना था। कांग्रेस ने भारत में जागरूकता फैलाने और भारतीय समाज को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

समाज पर प्रभाव:

·       भारतीय समाज में राजनीतिक जागरूकता और संगठित आंदोलन की शुरुआत हुई।

·       कांग्रेस ने लोगों को एकजुट होकर अहिंसक रूप से संघर्ष करने की प्रेरणा दी।

·       शिक्षित मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग ने कांग्रेस के माध्यम से भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाना शुरू किया।

3. बंगाल विभाजन (1905)

ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने 1905 में बंगाल को धार्मिक आधार पर विभाजित करने का प्रयास किया। यह विभाजन हिंदू-मुस्लिम के बीच फूट डालने के उद्देश्य से किया गया था। बंगाल विभाजन ने भारतीय समाज में बड़ा आक्रोश पैदा किया और भारतीयों में राष्ट्रीय एकता की भावना को मजबूत किया। विभाजन के विरोध में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए, और स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई।

समाज पर प्रभाव:

·       स्वदेशी आंदोलन के कारण लोगों ने विदेशी वस्त्रों और सामानों का बहिष्कार किया।

·       इसने भारतीयों को आत्मनिर्भरता की ओर प्रेरित किया, जिससे भारतीय उद्योगों का विकास हुआ।

·       हिंदू-मुस्लिम एकता को खतरा हुआ, लेकिन अंततः इसे 1911 में रद्द कर दिया गया, जिससे भारतीय जनता में जीत की भावना आई।

4. जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919)

अमृतसर में जनरल डायर के आदेश पर शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की गई, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। यह घटना ब्रिटिश शासन के क्रूर चेहरे को उजागर करती है और भारतीय समाज को झकझोर देती है। जलियांवाला बाग हत्याकांड ने गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन को बल दिया।

समाज पर प्रभाव:

·       इस घटना ने भारतीय समाज में ब्रिटिश सरकार के प्रति घृणा को और अधिक बढ़ा दिया।

·       भारतीयों में राजनीतिक सक्रियता बढ़ी और अहिंसक आंदोलन को व्यापक समर्थन मिला।

·       भारतीय समाज ने न केवल ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार किया बल्कि सरकारी पदों से इस्तीफे भी दिए।

5. असहयोग आंदोलन (1920)

महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन की शुरुआत की गई, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन को अहिंसात्मक तरीकों से चुनौती देना था। इस आंदोलन में लोगों ने सरकारी नौकरी, शिक्षा और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया। भारतीय समाज ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

समाज पर प्रभाव:

·       आंदोलन ने ग्रामीण और शहरी समाज के बीच एकता का वातावरण तैयार किया।

·       भारतीय समाज में आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की भावना जागृत हुई।

·       अहिंसा के सिद्धांत को अपनाने का व्यापक प्रसार हुआ, और गांधी जी का प्रभाव समाज पर गहराई से पड़ा।

6. सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930)

महात्मा गांधी द्वारा दांडी मार्च के माध्यम से नमक कानून का उल्लंघन कर सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की गई। इस आंदोलन में ब्रिटिश कानूनों का अहिंसात्मक तरीके से उल्लंघन किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देना और भारतीय समाज को आत्मनिर्भर बनाना था।

समाज पर प्रभाव:

·       नमक सत्याग्रह ने भारतीय समाज के सभी वर्गों को आंदोलन में जोड़ दिया।

·       महिलाएं और बच्चे भी इस आंदोलन में भाग लेने लगे, जिससे महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ।

·       ब्रिटिश कानूनों के उल्लंघन के कारण भारतीय समाज में राजनीतिक साहस और जागरूकता बढ़ी।

7. भारत छोड़ो आंदोलन (1942)

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने भारत को युद्ध में घसीटने का प्रयास किया। इसके विरोध में महात्मा गांधी ने “करो या मरो” का नारा देते हुए भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया। यह आंदोलन बहुत तेजी से फैला और भारतीय समाज के लगभग हर तबके ने इसमें भाग लिया।

समाज पर प्रभाव:

·       आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार के प्रति भारतीय समाज में अंतिम झटका दिया और उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।

·       भारतीय समाज के सभी वर्गों में आत्मसम्मान और स्वतंत्रता के प्रति उत्कंठा बढ़ी।

·       भारतीय समाज ने आंदोलन के माध्यम से स्वतंत्रता की लड़ाई को अंतिम चरण में पहुँचा दिया।

8. संविधान निर्माण और स्वतंत्रता (1947-1950)

1947 में भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई और इसके बाद भारतीय संविधान सभा का गठन हुआ। भारतीय संविधान ने समाज को एक लोकतांत्रिक ढांचे में संगठित किया और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए विभिन्न प्रावधान किए।

समाज पर प्रभाव:

·       भारतीय समाज को स्वतंत्रता प्राप्त हुई और उन्हें एक नया संविधान मिला जिसने उनके अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट किया।

·       समाज में जाति, धर्म और वर्ग के भेदभाव को दूर करने की दिशा में कदम उठाए गए।

·       लोकतांत्रिक प्रणाली ने समाज को समानता, स्वतंत्रता और न्याय की भावना से भर दिया।

निष्कर्ष

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की उपरोक्त घटनाओं ने भारतीय समाज को गहराई से प्रभावित किया। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप, भारतीय समाज ने न केवल स्वतंत्रता प्राप्त की, बल्कि एकता, समानता, और लोकतंत्र के मूल्यों को भी अपनाया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने समाज को राष्ट्रीयता की भावना, संगठित संघर्ष और राजनीतिक जागरूकता की ओर प्रेरित किया। आज, स्वतंत्र भारत में हम जिन अधिकारों और स्वतंत्रता का आनंद ले रहे हैं, वे सभी इसी आंदोलन के परिणाम हैं।

 

प्रश्न 4:- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विभिन्न सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों की भूमिका का मूल्यांकन करें।

उत्तर:- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विभिन्न सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन आंदोलनों ने केवल समाज को सुधारने और आधुनिकता की ओर अग्रसर करने का काम नहीं किया, बल्कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनजागरण और राष्ट्रीय चेतना को भी बढ़ावा दिया। इन आंदोलनों के माध्यम से सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष किया गया और भारतीय समाज को आत्मनिर्भर और आत्मसम्मान से परिपूर्ण बनाने का प्रयास किया गया। इस निबंध में हम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इन आंदोलनों की भूमिका का विस्तार से मूल्यांकन करेंगे।

सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों का उद्भव

19वीं सदी के दौरान भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का विस्तार हुआ और साथ ही भारतीय समाज में कई प्रकार की सामाजिक और धार्मिक कुरीतियां विद्यमान थीं। जातिवाद, सती प्रथा, बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबंध, छुआछूत जैसी समस्याएं समाज में गहराई से जड़ें जमा चुकी थीं। इन कुरीतियों को दूर करने और समाज को सुधारने के लिए कई महान समाज सुधारक और आंदोलनकारी आगे आए। इनके प्रयासों ने न केवल सामाजिक सुधार को बढ़ावा दिया, बल्कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनजागरण का भी मार्ग प्रशस्त किया।

प्रमुख सामाजिक सुधार आंदोलन

1. ब्रह्म समाज

ब्रह्म समाज की स्थापना 1828 में राजा राममोहन राय द्वारा की गई थी। इस समाज ने ईश्वर की एकता, मूर्तिपूजा का खंडन, बाल विवाह का विरोध और विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया, जिसके परिणामस्वरूप 1829 में इस प्रथा पर कानूनी रूप से प्रतिबंध लगाया गया। ब्रह्म समाज ने धार्मिक विश्वासों में सुधार की बात की और भारत में आधुनिक विचारधारा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

2. आर्य समाज

आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में की थी। उनका आदर्श वाक्य था “वेदों की ओर लौटो” (वेदो का अनुसरण करो)। उन्होंने मूर्तिपूजा का खंडन किया, जातिवाद का विरोध किया और बाल विवाह और छुआछूत के खिलाफ अभियान चलाया। आर्य समाज ने समाज को जागरूक करने के साथ-साथ शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में भी योगदान दिया। इस आंदोलन ने लोगों को एकजुट किया और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी का आह्वान किया।

3. प्रार्थना समाज

प्रार्थना समाज की स्थापना 1867 में अटाराम पांडुरंग ने की थी, और इसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक सुधारों को प्रोत्साहन देना था। यह समाज जातिवाद, बाल विवाह, और छुआछूत जैसी बुराइयों के खिलाफ था। प्रार्थना समाज ने जाति प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की। इसका प्रभाव मुख्यतः महाराष्ट्र में रहा, और इसने भारतीय समाज में जागरूकता लाने में अहम भूमिका निभाई।

4. रामकृष्ण मिशन

स्वामी विवेकानंद ने 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इस आंदोलन ने धार्मिक सहिष्णुता, नैतिकता, और सेवा की भावना को बढ़ावा दिया। स्वामी विवेकानंद के विचारों ने भारतीय युवाओं को राष्ट्रभक्ति और सामाजिक सेवा की ओर प्रेरित किया। रामकृष्ण मिशन ने समाज के सभी वर्गों में सेवा का काम किया और लोगों में धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक समानता का प्रचार किया।

धार्मिक सुधार आंदोलनों का योगदान

1. अहमदिया आंदोलन

अहमदिया आंदोलन की स्थापना मिर्जा गुलाम अहमद ने 19वीं सदी के अंत में की थी। इसका उद्देश्य इस्लाम के मूल सिद्धांतों को सिखाना और धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देना था। अहमदिया आंदोलन ने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने का काम किया और समाज में इस्लामी शिक्षा का प्रसार किया।

2. देवबंदी आंदोलन

देवबंदी आंदोलन की शुरुआत 1867 में दारुल उलूम, देवबंद में हुई थी। इसका उद्देश्य इस्लाम के शुद्ध रूप का प्रचार करना था। इस आंदोलन ने भारतीय मुसलमानों को शिक्षा के महत्व को समझाया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ मुस्लिम समाज में जागरूकता लाई।

3. अलीगढ़ आंदोलन

अलीगढ़ आंदोलन की शुरुआत सर सैयद अहमद खान ने की थी, जिसका उद्देश्य मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करना और उन्हें भारतीय समाज में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए तैयार करना था। इस आंदोलन ने मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रचार किया और भारतीय मुसलमानों को एकजुट किया।

सुधार आंदोलनों का स्वतंत्रता संग्राम पर प्रभाव

1. राष्ट्रीय चेतना का विकास

सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों ने भारतीय समाज में राष्ट्रीय चेतना का विकास किया। इन आंदोलनों के माध्यम से लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया गया और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा मिली।

2. सामाजिक एकता

इन आंदोलनों ने समाज को जाति, धर्म, और क्षेत्रीयता के आधार पर बांटने के बजाय एकजुट किया। जाति प्रथा के विरोध और महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा ने सामाजिक एकता को मजबूत किया, जो स्वतंत्रता संग्राम के लिए महत्वपूर्ण था।

3. शिक्षा का प्रसार

सुधार आंदोलनों ने शिक्षा के प्रसार को प्राथमिकता दी, जिससे समाज में जागरूकता बढ़ी। स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय, और सर सैयद अहमद खान जैसे समाज सुधारकों ने शिक्षा को सामाजिक और राष्ट्रीय उन्नति का आधार माना।

4. ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध

सुधार आंदोलनों ने समाज में ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध को बढ़ावा दिया। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष के माध्यम से लोगों को यह महसूस हुआ कि ब्रिटिश शासन उनके अधिकारों का हनन कर रहा है और उन्हें गुलामी में रखे हुए है।

5. स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं पर प्रभाव

सामाजिक सुधार आंदोलनों ने स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं को प्रेरणा दी। महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, और सरदार पटेल जैसे नेताओं ने समाज सुधार के विचारों को स्वतंत्रता संग्राम का अभिन्न हिस्सा बनाया। गांधीजी ने जाति प्रथा और छुआछूत के खिलाफ आंदोलन चलाया, जो स्वतंत्रता संग्राम के लिए समाज में समानता और एकता लाने का एक माध्यम बना।

निष्कर्ष

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में विभिन्न सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। इन आंदोलनों ने भारतीय समाज को कुरीतियों से मुक्त करने और एक आधुनिक, समतामूलक और आत्मनिर्भर समाज की स्थापना की दिशा में अहम योगदान दिया। इन आंदोलनों ने न केवल समाज सुधार को प्रोत्साहित किया बल्कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष को भी मजबूत किया। भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ और स्वतंत्रता संग्राम में एक व्यापक जनभागीदारी संभव हो सकी। इस प्रकार, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों ने एक सशक्त और जागरूक समाज का निर्माण किया, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक था।

 

प्रश्न 5:- स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय संविधान के विकास की प्रक्रिया का वर्णन करें और इस पर क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तर:- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय संविधान का विकास एक महत्वपूर्ण और जटिल प्रक्रिया थी, जो कई दशकों में फैली और विभिन्न नेताओं, विचारधाराओं, और घटनाओं से प्रभावित हुई। इस प्रक्रिया में न केवल भारतीय नेताओं की भूमिका रही, बल्कि ब्रिटिश सरकार की नीतियों और वैश्विक घटनाओं ने भी इस पर प्रभाव डाला। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय संविधान के विकास को समझने के लिए, इसे विभिन्न चरणों में विभाजित करना उपयोगी रहेगा। इस उत्तर में, हम इन चरणों का विस्तार से विश्लेषण करेंगे और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इस पर पड़े प्रभावों की भी चर्चा करेंगे।

प्रारंभिक चरण (1858-1919): ब्रिटिश शासन के दौरान संवैधानिक सुधार

1857 के विद्रोह के बाद, भारत सीधे ब्रिटिश क्राउन के नियंत्रण में आ गया। इसके बाद, संवैधानिक सुधारों का सिलसिला शुरू हुआ, हालांकि ये सुधार ब्रिटिश शासन को मजबूत करने के उद्देश्य से अधिक थे। इसके बावजूद, इन सुधारों ने भारतीय राजनीतिक चेतना और संविधान विकास की दिशा में कदम उठाने में मदद की।

1.     भारतीय परिषद अधिनियम 1861:

·       इस अधिनियम के तहत पहली बार भारतीयों को गवर्नर जनरल की विधान परिषद में शामिल किया गया। हालांकि, इसका उद्देश्य केवल ब्रिटिश प्रशासन का समर्थन करना था, लेकिन इसने भारतीयों को संवैधानिक प्रक्रियाओं में भाग लेने का मौका दिया।

·       इस अधिनियम ने भारतीय नेताओं के संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता को बढ़ाया।

2.    भारतीय परिषद अधिनियम 1892:

·       इस अधिनियम ने भारतीय सदस्यों की संख्या में थोड़ी वृद्धि की और उन्हें बजट पर चर्चा करने का अधिकार दिया। हालांकि, इसमें निर्णय लेने की शक्ति नहीं थी, लेकिन भारतीयों ने इसे एक छोटा कदम मानते हुए अधिक अधिकारों की मांग शुरू की।

3.   मॉर्ले-मिंटो सुधार 1909:

·       1909 का भारतीय परिषद अधिनियम, जिसे मॉर्ले-मिंटो सुधार के रूप में भी जाना जाता है, ने भारतीयों के लिए पहली बार सीमित मतदान प्रणाली और अलग-अलग निर्वाचन मंडलों की स्थापना की।

·       इस अधिनियम ने मुस्लिम समुदाय को अलग निर्वाचन क्षेत्र का अधिकार देकर ‘साम्प्रदायिक विभाजन’ की नींव रखी, जिसका भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा।

4.   मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार 1919:

·       यह अधिनियम एक महत्वपूर्ण संवैधानिक कदम था जिसने द्वैध शासन प्रणाली (Dyarchy) की स्थापना की। इसके तहत कुछ विभाग भारतीय मंत्रियों को सौंपे गए जबकि प्रमुख विभाग ब्रिटिश अधिकारियों के नियंत्रण में रहे।

·       इसने भारतीयों को प्रशासन में अधिक भागीदारी का मौका दिया, जिससे भारतीय नेताओं की संवैधानिक मांगें और अधिक बढ़ीं।

दूसरे चरण (1920-1935): संवैधानिक सुधार और स्वराज की मांग

स्वतंत्रता संग्राम की प्रक्रिया के दौरान, भारतीय नेताओं ने संवैधानिक सुधारों को लेकर ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाना जारी रखा। इसी दौरान, कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की मांग की और संवैधानिक स्वतंत्रता की बात को बल दिया।

1.     नेहरू रिपोर्ट (1928):

·       कांग्रेस द्वारा तैयार की गई यह पहली भारतीय संविधान योजना थी। इसका उद्देश्य 1919 के सुधारों से आगे बढ़कर एक संवैधानिक ढांचा प्रस्तुत करना था।

·       नेहरू रिपोर्ट ने औपनिवेशिक शासन के बजाय भारत के लिए पूर्ण स्वराज की मांग की। इसमें एक धर्मनिरपेक्ष राज्य और मौलिक अधिकारों का प्रस्ताव भी दिया गया था।

2.    साइमन कमीशन और गोलमेज सम्मेलन (1930-1932):

·       साइमन कमीशन में कोई भारतीय सदस्य नहीं था, जिससे भारतीय नेताओं में आक्रोश हुआ और उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। इसका विरोध पूरे देश में हुआ।

·       गोलमेज सम्मेलनों में भारतीय नेताओं ने पहली बार स्वराज्य की बात की, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनकी मांगे पूरी तरह से नहीं मानी।

3.   भारत सरकार अधिनियम 1935:

·       यह अधिनियम भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है। इसने संघीय ढांचे, द्विसदनीय विधानमंडल, और प्रांतीय स्वायत्तता की स्थापना की।

·       हालांकि, इसमें ब्रिटिश शासन का नियंत्रण बरकरार रखा गया था, लेकिन इस अधिनियम ने भारतीय नेताओं को संविधान की रूपरेखा समझने और उसे अपनाने का अवसर दिया।

तीसरे चरण (1940-1947): संविधान की दिशा में निर्णायक कदम

1940 के दशक में, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच विभाजन की स्थिति पैदा हुई। इसी दौरान, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्य कमजोर हो गया, जिससे भारत की स्वतंत्रता के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनीं।

1.     क्रिप्स मिशन (1942):

·       ब्रिटिश सरकार ने स्वतंत्रता के बाद भारत के लिए संवैधानिक स्वतंत्रता का आश्वासन दिया, लेकिन भारतीय नेताओं ने इसे अस्वीकार कर दिया क्योंकि यह पूर्ण स्वतंत्रता की बात नहीं करता था।

2.    कैबिनेट मिशन योजना (1946):

·       यह मिशन भारतीय नेताओं को संविधान सभा बनाने की अनुमति देने के उद्देश्य से आया था। इसके तहत, संविधान सभा का गठन हुआ जिसमें सभी प्रमुख दलों ने भाग लिया।

·       संविधान सभा ने भारतीय संविधान के निर्माण की दिशा में निर्णायक कदम उठाए और विभिन्न मुद्दों पर विचार-विमर्श किया।

3.   माउंटबेटन योजना और विभाजन:

·       माउंटबेटन योजना के अनुसार भारत का विभाजन और स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई। इसके तहत भारतीय नेताओं ने स्वतंत्रता के लिए विभाजन को स्वीकार किया और संविधान सभा ने भारत के लिए संविधान बनाने की प्रक्रिया शुरू की।

संविधान सभा और भारतीय संविधान का निर्माण (1947-1950)

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, संविधान सभा का मुख्य कार्य एक स्वतंत्र भारत के लिए संविधान तैयार करना था। इसके अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे, जबकि मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर थे। इस प्रक्रिया में विभिन्न समितियों ने अलग-अलग विषयों पर कार्य किया।

1.     संविधान सभा की भूमिका:

·       संविधान सभा ने लगभग तीन वर्षों में संविधान का मसौदा तैयार किया। इसके विभिन्न समितियों ने मौलिक अधिकारों, राज्यों के संबंध, संघीय ढांचे, और चुनाव प्रणाली जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर कार्य किया।

·       संविधान सभा ने विभिन्न क्षेत्रों से सलाह-मशविरा किया और दुनिया भर के संविधानों का अध्ययन किया।

2.    डॉ. भीमराव आंबेडकर का योगदान:

·       आंबेडकर ने संविधान सभा में विभिन्न मुद्दों पर विस्तृत विचार किया और संविधान के मसौदे को तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई। उनका योगदान विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा करने में उल्लेखनीय था।

·       उन्होंने संविधान में सामाजिक समानता और धर्मनिरपेक्षता को महत्वपूर्ण स्थान दिया, जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय नेताओं के विचारों से प्रभावित था।

3.   मौलिक अधिकार और धर्मनिरपेक्षता:

·       स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय नेताओं ने धार्मिक और सामाजिक समरसता पर जोर दिया था। यह भावना संविधान में मौलिक अधिकारों और धर्मनिरपेक्षता के रूप में प्रतिबिंबित हुई।

·       संविधान में व्यक्तित्व की स्वतंत्रता, समानता का अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता, और सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों को सुनिश्चित किया गया।

स्वतंत्रता संग्राम के प्रभाव

भारतीय संविधान के विकास पर स्वतंत्रता संग्राम का व्यापक प्रभाव पड़ा। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय नेताओं ने जिन मूल्यों की बात की, वे संविधान में शामिल किए गए।

1.     स्वतंत्रता संग्राम के मूल्य:

·       स्वतंत्रता संग्राम के दौरान समानता, धर्मनिरपेक्षता, और न्याय के मूल्यों को बल दिया गया। यह सभी मूल्य भारतीय संविधान में समाहित किए गए हैं।

·       संविधान ने सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक न्याय की बात की, जो महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, और अन्य नेताओं के विचारों से प्रभावित था।

2.    धर्मनिरपेक्षता और एकता:

·       स्वतंत्रता संग्राम ने धार्मिक भेदभाव को समाप्त करने और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने पर जोर दिया। यह संविधान में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जहाँ सभी धर्मों के लोगों को समान अधिकार दिए गए हैं।

3.   संविधान का लचीलापन और लोकतंत्र:

·       संविधान ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उभरते विभिन्न विचारधाराओं को सम्मिलित किया, जिससे यह समय के साथ बदलने और समाज के अनुसार ढलने में सक्षम हुआ।

संक्षेप में, भारतीय संविधान का विकास स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों और आदर्शों से गहराई से प्रभावित था। संविधान सभा ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान विकसित हुए विचारों को शामिल करते हुए एक ऐसा संविधान तैयार किया, जो न केवल भारतीय समाज की विविधता को स्वीकार करता है, बल्कि उसे सम्मान और सुरक्षा भी प्रदान करता है। भारतीय संविधान न केवल एक दस्तावेज़ है, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अर्जित संवैधानिक स्वतंत्रता, समानता और धर्मनिरपेक्षता के प्रतीकों का प्रतीक भी है।

 

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न 1:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की उत्पत्ति (जनेसिस) कैसे हुई और इसके प्रमुख कारण क्या थे?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की उत्पत्ति 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के प्रारंभ में हुई। इसकी शुरुआत ब्रिटिश शासन की शोषणकारी नीतियों के खिलाफ एक प्रतिक्रिया के रूप में हुई, जिसने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों को प्रभावित किया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख कारणों में आर्थिक शोषण, सामाजिक और धार्मिक दमन, तथा राजनीतिक असंतोष शामिल थे।

ब्रिटिश सरकार की नीतियों ने भारतीय कृषि और उद्योग को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचाया, जिससे भारतीय किसान और व्यापारी असंतुष्ट हो गए। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भारतीय संस्कृति और धार्मिक मान्यताओं को कमजोर करने का प्रयास किया गया, जिसने भारतीय समाज को उनके सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों की रक्षा के लिए एकजुट होने पर मजबूर किया।

राजनीतिक असंतोष भी आंदोलन के प्रमुख कारणों में से एक था, क्योंकि भारतीयों को प्रशासन में किसी भी प्रकार की भागीदारी से वंचित रखा गया था। इस दौरान अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार ने भारतीयों में स्वतंत्रता, समानता, और लोकतंत्र जैसे पश्चिमी विचारों को समझने का अवसर दिया, जिससे भारतीयों में स्वतंत्रता के प्रति जागरूकता बढ़ी। इस प्रकार, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का जन्म ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक व्यापक विरोध के रूप में हुआ।

 

प्रश्न 2:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में मुख्य घटक क्या थे और उन्होंने इस आंदोलन को कैसे प्रभावित किया?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में मुख्य घटकों में प्रमुख राजनीतिक घटनाएँ, समाज सुधार आंदोलन, सांस्कृतिक जागरूकता, और धर्मनिरपेक्षता का प्रभावी योगदान रहा। इन घटकों ने आंदोलन को दिशा और उद्देश्य प्रदान किया, जिससे स्वतंत्रता संग्राम व्यापक जन-आंदोलन में परिवर्तित हुआ।

1.     राजनीतिक घटक: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन (1885) राष्ट्रवादी विचारों को संगठित करने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच बना। स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन, और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे राजनीतिक आंदोलनों ने जन-समर्थन जुटाने में मदद की और लोगों को अंग्रेजी शासन के खिलाफ एकजुट किया।

2.    सामाजिक सुधार: समाज सुधार आंदोलनों ने जाति-पाति, बाल विवाह, और सती प्रथा जैसी कुरीतियों का विरोध कर समाज को जागरूक किया। इससे एक समतामूलक और जागरूक समाज की स्थापना हुई, जो स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार था।

3.   सांस्कृतिक जागरूकता: स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय और महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने सांस्कृतिक जागरूकता को बढ़ावा दिया, जिससे लोगों में आत्मगौरव और राष्ट्रीयता की भावना जगी।

इन घटकों ने मिलकर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक और सशक्त बनाया, जिससे अंततः स्वतंत्रता की प्राप्ति संभव हो सकी।

 

प्रश्न 3:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान कौन-कौन से प्रमुख राजनैतिक संगठन बने और उनका क्या योगदान रहा?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान कई प्रमुख राजनीतिक संगठनों की स्थापना हुई, जिनका स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान रहा। इनमें से कुछ प्रमुख संगठन और उनका योगदान निम्नलिखित है:

1.     भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885) – भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन 1885 में हुआ था। इस संगठन ने भारतीयों को संगठित करने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ उनकी मांगों को उठाने का काम किया। कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे प्रमुख आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिसने भारतीय समाज में राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता की भावना को बढ़ावा दिया।

2.    ऑल इंडिया मुस्लिम लीग (1906) – मुस्लिम लीग की स्थापना मुस्लिम समाज के हितों की रक्षा के लिए की गई थी। इसके शुरुआती उद्देश्य सांप्रदायिक थे, लेकिन बाद में इसने भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1947 में भारत विभाजन की मांग को लेकर संघर्ष किया।

3.   हिन्दू महासभा (1915) – हिन्दू महासभा का गठन हिन्दू समाज के राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए हुआ था। इस संगठन ने हिन्दू समाज में सांस्कृतिक जागरूकता फैलाने का काम किया और बाद में भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई।

इन संगठनों ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया, बल्कि भारतीय समाज को संगठित करने और विभिन्न विचारधाराओं को एक मंच पर लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 

प्रश्न 4:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान कौन-कौन सी महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ उभरकर सामने आईं?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान कई महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ उभरकर सामने आईं, जो स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ राष्ट्रीय पहचान को भी मजबूत बनाने में सहायक रहीं।

पहली प्रवृत्ति थी भारतीय साहित्य और कला में राष्ट्रीयता का उभार। कई कवियों, लेखकों, और कलाकारों ने अपने रचनाओं के माध्यम से ब्रिटिश शासन का विरोध किया और भारतीय संस्कृति का महिमामंडन किया। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का “वंदे मातरम्” और रवींद्रनाथ ठाकुर का “जन गण मन” इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इन रचनाओं ने भारतीयों में एकता और स्वाभिमान का संचार किया।

दूसरी प्रमुख प्रवृत्ति थी स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव। इसके तहत, भारतीयों ने विदेशी वस्त्रों और उत्पादों का बहिष्कार किया और भारतीय हस्तकला, खादी, और स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा दिया। यह सांस्कृतिक पहचान और आत्मनिर्भरता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।

तीसरी प्रवृत्ति थी धार्मिक सहिष्णुता और पुनरुत्थान। आर्य समाज, ब्रह्म समाज और रामकृष्ण मिशन जैसे आंदोलनों ने धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक सुधार को बढ़ावा दिया। इन प्रवृत्तियों ने भारतीय समाज को एकजुट करने और उसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इस प्रकार, इन सांस्कृतिक प्रवृत्तियों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान न केवल सामाजिक सुधारों को प्रोत्साहित किया, बल्कि भारतीय समाज में आत्मनिर्भरता और एकता की भावना भी विकसित की।

 

प्रश्न 5:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान किन प्रमुख नेताओं का योगदान रहा और उनके विचार क्या थे?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में कई प्रमुख नेताओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया और उनके विचारों ने स्वतंत्रता संग्राम की दिशा और स्वरूप को आकार दिया। इनमें से कुछ प्रमुख नेताओं का उल्लेख नीचे किया गया है:

1.       महात्मा गांधी: गांधीजी का योगदान अहिंसात्मक आंदोलन और सत्याग्रह के माध्यम से था। उनका मानना था कि अहिंसा और सत्य के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। उनके विचारों ने ग्रामीण भारत को संगठित किया और सभी को एकजुट किया।

2.     जवाहरलाल नेहरू: नेहरूजी आधुनिक भारत के समर्थक थे और उन्होंने वैज्ञानिक सोच और धर्मनिरपेक्षता पर जोर दिया। वे समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे और स्वतंत्रता के बाद भारत को औद्योगिकीकरण की दिशा में ले जाना चाहते थे।

3.     सुभाष चंद्र बोस: बोस ने स्वतंत्रता के लिए हिंसात्मक और सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाया। उन्होंने ‘आजाद हिन्द फौज’ की स्थापना की और ब्रिटिश शासन के खिलाफ सक्रिय संघर्ष किया। उनका नारा “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा” बहुत प्रसिद्ध हुआ।

4.     बाल गंगाधर तिलक: तिलक ने ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा देकर स्वतंत्रता आंदोलन में जोश भरा। वे भारतीय संस्कृति और परंपराओं के समर्थक थे और ब्रिटिश शासन के खिलाफ कठोर रवैया अपनाते थे।

इन नेताओं के विचार और कार्य स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत बने और इनसे ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक स्पष्ट दिशा मिली।

 

प्रश्न 6:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में कौन-कौन सी घटनाएँ सबसे अधिक महत्वपूर्ण थीं?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ शामिल हैं, जिन्होंने इसे स्वतंत्रता प्राप्ति तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनमें से कुछ प्रमुख घटनाएँ निम्नलिखित हैं:

1.     बंगाल विभाजन (1905): यह घटना भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उग्रवादी चरण की शुरुआत मानी जाती है। ब्रिटिश सरकार ने बंगाल को धार्मिक आधार पर विभाजित किया, जिसका उद्देश्य हिंदू-मुस्लिम एकता को कमजोर करना था। इस विभाजन के विरोध में स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें भारतीयों ने विदेशी वस्त्रों और उत्पादों का बहिष्कार किया।

2.    जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919): अमृतसर के जलियांवाला बाग में निहत्थे भारतीयों पर जनरल डायर के आदेश पर गोलीबारी की गई, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। इस घटना ने पूरे देश में आक्रोश और ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह की भावना को और अधिक प्रबल किया।

3.   असहयोग आंदोलन (1920 – 1922): महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाया गया यह आंदोलन ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक अहिंसात्मक प्रतिरोध था। इसमें भारतीयों ने सरकारी नौकरियों, स्कूलों, और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया।

4.   दांडी मार्च और सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930): गांधी जी ने नमक कानून के खिलाफ दांडी यात्रा निकाली और लोगों को ब्रिटिश कानूनों का उल्लंघन करने के लिए प्रेरित किया। इस आंदोलन ने भारतीयों में आत्मनिर्भरता और ब्रिटिश शासन का विरोध करने की भावना को प्रोत्साहित किया।

5.   भारत छोड़ो आंदोलन (1942): द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान गांधी जी ने “अंग्रेजों भारत छोड़ो” का नारा दिया। इस आंदोलन में लाखों भारतीयों ने भाग लिया और स्वतंत्रता की अंतिम लड़ाई लड़ी।

इन घटनाओं ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को गति दी और स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया। इन घटनाओं ने न केवल भारतीय जनता में जागरूकता बढ़ाई बल्कि ब्रिटिश शासन की नींव को भी कमजोर किया।

 

प्रश्न 7:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के अंतर्गत भारत में शिक्षा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण पर क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान शिक्षा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस आंदोलन ने शिक्षा को एक ऐसा माध्यम बनाया, जिससे भारतीय समाज को अंग्रेजी शासन के अत्याचारों के प्रति जागरूक किया जा सके और राष्ट्रीय चेतना का विकास हो सके। स्वतंत्रता संग्राम के समय भारतीय नेताओं ने शिक्षा के महत्व को समझा और इसे जन-आंदोलन का हिस्सा बनाया।

·       शिक्षा का प्रभाव: ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के विरुद्ध स्वदेशी शिक्षा संस्थानों की स्थापना की गई, जिनमें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय प्रमुख थे। ये संस्थान भारतीयों को अपनी सांस्कृतिक धरोहर के प्रति जागरूक करते थे और अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति पाने के लिए प्रेरित करते थे। इसके माध्यम से राष्ट्रवादी विचारों का प्रसार हुआ और छात्रों में स्वतंत्रता की भावना का विकास हुआ।

·       सांस्कृतिक पुनर्जागरण: इस काल में पुनर्जागरण की लहर चली, जिसने भारतीय समाज को अपनी परंपराओं और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति जागरूक किया। स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय और महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे सुधारकों ने भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित किया। इन सुधार आंदोलनों ने समाज को जाति-पाति, सती प्रथा, और बाल विवाह जैसी कुरीतियों से मुक्त करने की कोशिश की और समाज में एक नई चेतना का संचार किया।

इस प्रकार, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने शिक्षा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के माध्यम से भारतीय समाज को न केवल अपने अधिकारों के प्रति सजग किया, बल्कि उसे आत्मनिर्भरता और गौरव का पाठ भी पढ़ाया।

 

प्रश्न 8:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारतीय समाज में कौन-कौन से परिवर्तन हुए और उनके क्या प्रभाव रहे?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारतीय समाज में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिन्होंने समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित किया। इनमें से कुछ प्रमुख परिवर्तन और उनके प्रभाव निम्नलिखित हैं:

1.     राजनीतिक जागरूकता का विकास: राष्ट्रीय आंदोलन ने भारतीय समाज में राजनीतिक जागरूकता का व्यापक प्रसार किया। लोगों में स्वतंत्रता और अधिकारों के प्रति चेतना जागृत हुई, जिससे विभिन्न वर्गों के लोग ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष में शामिल हुए।

2.    सामाजिक एकता और राष्ट्रीयता की भावना: विभिन्न जाति, धर्म और क्षेत्रीय भेदभावों के बावजूद, आंदोलन ने समाज में एकता और राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा दिया। लोगों ने अपने व्यक्तिगत और सामुदायिक हितों को छोड़कर देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया।

3.   महिलाओं की भागीदारी: इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी। सरोजिनी नायडू, अरुणा आसफ अली जैसी महिलाएं स्वतंत्रता संग्राम की प्रमुख नेता बनीं। इससे महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ और उन्हें समाज में अधिक सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर मिला।

4.   स्वदेशी आंदोलन और आर्थिक आत्मनिर्भरता: स्वदेशी आंदोलन के कारण विदेशी वस्त्रों और सामानों का बहिष्कार किया गया, जिससे भारतीय उद्योगों और कारीगरों को बढ़ावा मिला। इसने आत्मनिर्भरता की भावना को भी प्रबल किया।

इन परिवर्तनों ने भारतीय समाज को संगठित, जागरूक और स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्ध बनाया, जिसने अंततः भारत की स्वतंत्रता में अहम भूमिका निभाई।

 

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न 1:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का आरंभ कब और कैसे हुआ?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का आरंभ 19वीं सदी के अंत में हुआ, जब ब्रिटिश शासन की शोषणकारी नीतियों के खिलाफ असंतोष बढ़ने लगा। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई, जिसने भारतीयों को एकजुट कर उनके अधिकारों के लिए संगठित संघर्ष की शुरुआत की।

प्रश्न 2:- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब हुई थी?

उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 28 दिसंबर 1885 को हुई थी। इसका उद्देश्य भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशक्त मंच तैयार करना और भारतीय जनता के अधिकारों की रक्षा करना था। इसके पहले अध्यक्ष वुमेश चंद्र बनर्जी थे। कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 3:- बंगाल विभाजन का क्या कारण था?

उत्तर:- बंगाल विभाजन का मुख्य कारण अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो” की नीति थी। 1905 में इसे धार्मिक आधार पर विभाजित किया गया, ताकि हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच विभाजन पैदा कर अंग्रेजी शासन को मजबूत किया जा सके और राष्ट्रवादी आंदोलन को कमजोर किया जा सके।

प्रश्न 4:- स्वदेशी आंदोलन का मुख्य उद्देश्य क्या था?

उत्तर:- स्वदेशी आंदोलन का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश शासन का आर्थिक बहिष्कार कर भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देना था। इसके तहत विदेशी वस्त्रों और सामानों का बहिष्कार किया गया और स्वदेशी उत्पादों के उपयोग को प्रोत्साहित किया गया, जिससे आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीयता की भावना बढ़ी।

प्रश्न 5:- जलियाँवाला बाग हत्याकांड कब और कहाँ हुआ?

उत्तर:- जलियाँवाला बाग हत्याकांड 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर, पंजाब में हुआ था। यह घटना उस समय घटी जब जनरल डायर ने निहत्थे भारतीयों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। इस कांड ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को गहराई से प्रभावित किया।

प्रश्न 6:- गांधी जी ने असहयोग आंदोलन क्यों शुरू किया?

उत्तर:- महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन 1920 में शुरू किया क्योंकि वे ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों और जलियांवाला बाग हत्याकांड जैसी घटनाओं के विरोध में थे। उनका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनता को संगठित करना और स्वराज (स्वतंत्रता) प्राप्त करना था।

प्रश्न 7:- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सविनय अवज्ञा आंदोलन का क्या महत्व है?

उत्तर:- सविनय अवज्ञा आंदोलन का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि यह ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक अहिंसात्मक प्रतिरोध था। 1930 में महात्मा गांधी द्वारा दांडी यात्रा से शुरू हुए इस आंदोलन में लोगों ने ब्रिटिश कानूनों का उल्लंघन किया, जिससे स्वतंत्रता की मांग को नई गति मिली।

प्रश्न 8:- भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत कब हुई?

उत्तर:- भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत 8 अगस्त 1942 को हुई थी। इसे महात्मा गांधी ने बॉम्बे (अब मुंबई) में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सत्र के दौरान लॉन्च किया था। इस आंदोलन का उद्देश्य भारत से ब्रिटिश शासन को तुरंत समाप्त करना था, और इसमें “करो या मरो” का नारा दिया गया था।

प्रश्न 9:- भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष कौन थे?

उत्तर:- भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अंबेडकर थे। उन्होंने संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसे एक समतामूलक, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक दस्तावेज के रूप में तैयार किया। उनके नेतृत्व में मसौदा समिति ने संविधान को अंतिम रूप दिया।

प्रश्न 10:- भारतीय संविधान कब लागू हुआ?

उत्तर:- भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। इस दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। संविधान लागू होने से भारत एक संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य बना, और इसने देश के नागरिकों को मौलिक अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान की।

प्रश्न 11:- भारतीय संविधान की प्रस्तावना में किस प्रकार के समाज की बात की गई है?

उत्तर:-  भारतीय संविधान की प्रस्तावना में एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की बात की गई है। इसमें न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की आदर्श भावना का उल्लेख किया गया है, जो भारतीय समाज को समतामूलक और समान अधिकारों वाला समाज बनाने की दिशा में प्रेरित करती है।

प्रश्न 12:- भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का क्या महत्व है?

उत्तर:- भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का महत्व अत्यधिक है क्योंकि ये नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता की रक्षा करते हैं। मौलिक अधिकार हर नागरिक को विचार, अभिव्यक्ति, धर्म, और न्याय के अधिकार प्रदान करते हैं, जिससे लोकतंत्र सशक्त और धर्मनिरपेक्ष बना रहता है। ये अधिकार नागरिकों के अधिकारों को सुरक्षित रखते हुए उनके विकास में सहायक होते हैं।

 

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