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Course: भारत में आपदा प्रबंधन प्रणाली
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भारत में आपदा प्रबंधन प्रणाली

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यूनिट-1 भारत में आपदा प्रबंधन प्रणाली

 

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न 1:- भारत में आपदा प्रबंधन प्रणाली पर एक विस्तृत निबंध लिखें, जिसमें आपदा के प्रकार, कारण और प्रभावों पर चर्चा करें।

उत्तर:- भारत में आपदा प्रबंधन प्रणाली पर विस्तृत निबंध

भारत एक भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं वाला देश है, जो प्राकृतिक और मानव-निर्मित आपदाओं की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। यहाँ हर साल भूकंप, बाढ़, चक्रवात, सूखा, भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएँ और औद्योगिक दुर्घटनाएँ, महामारी, आग जैसी मानव-निर्मित आपदाएँ होती हैं। इन आपदाओं के कारण जन-धन की भारी हानि होती है। इस निबंध में हम भारत में आपदाओं के प्रकार, उनके कारण और प्रभावों के साथ-साथ आपदा प्रबंधन प्रणाली पर भी चर्चा करेंगे।

आपदाओं के प्रकार

भारत में आपदाओं को मुख्य रूप से दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:

प्राकृतिक आपदाएँ (Natural Disasters):

·       भूकंप (Earthquake): भारत भूकंपीय दृष्टि से संवेदनशील है और हिमालयी क्षेत्र तथा गंगा के मैदान में भूकंप की घटनाएँ आम हैं।

·       बाढ़ (Flood): मानसूनी बारिश के कारण भारत के कई हिस्से हर साल बाढ़ की चपेट में आते हैं, विशेषकर बिहार, असम, और उत्तर प्रदेश।

·       चक्रवात (Cyclone): बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में चक्रवाती तूफान अक्सर आते हैं, जो तटीय क्षेत्रों में तबाही मचाते हैं।

·       सूखा (Drought): राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में मानसून की कमी से सूखा पड़ता है।

·       भूस्खलन (Landslides): पहाड़ी क्षेत्रों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, और पूर्वोत्तर में भारी वर्षा के कारण भूस्खलन होता है।

मानव-निर्मित आपदाएँ (Man-Made Disasters):

·       औद्योगिक दुर्घटनाएँ (Industrial Accidents): जैसे 1984 का भोपाल गैस त्रासदी।

·       आगजनी और विस्फोट (Fire and Explosions): रसायनशालाओं और पेट्रोलियम संयंत्रों में आग का खतरा।

·       यातायात दुर्घटनाएँ (Transport Accidents): सड़क, रेल, और हवाई दुर्घटनाओं में बड़ी संख्या में लोग प्रभावित होते हैं।

·       महामारी (Pandemic): कोविड-19 जैसी महामारियों ने भारत में स्वास्थ्य ढाँचे पर गहरा प्रभाव डाला है।

आपदाओं के कारण

आपदाओं के कारण प्राकृतिक और मानव-निर्मित हो सकते हैं। कई बार मानव हस्तक्षेप से प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता और बढ़ जाती है।

प्राकृतिक कारण:

·       भूकंप और ज्वालामुखी जैसी आपदाएँ पृथ्वी के आंतरिक परिवर्तनों का परिणाम हैं।

·       जलवायु परिवर्तन और अनियमित मानसून के कारण बाढ़ और सूखे की घटनाएँ बढ़ी हैं।

·       समुद्र के तापमान में वृद्धि चक्रवातों की तीव्रता को बढ़ाती है।

मानव-निर्मित कारण:

·       जंगलों की अंधाधुंध कटाई से भूस्खलन और बाढ़ की समस्या बढ़ती है।

·       औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ाया है।

·       अव्यवस्थित निर्माण कार्य और नियमों की अनदेखी से भूकंप में क्षति की संभावना बढ़ जाती है।

·       प्रदूषण और पर्यावरण असंतुलन ने जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा दिया है, जिससे आपदाएँ अधिक प्रबल हो रही हैं।

आपदाओं के प्रभाव

आपदाएँ जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करती हैं – आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय और मनोवैज्ञानिक रूप से।

आर्थिक प्रभाव:

·       आपदाओं के कारण बुनियादी ढाँचे, जैसे सड़क, बिजली, और पुलों को गंभीर क्षति होती है।

·       कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव से फसलों का नुकसान होता है, जिससे खाद्य संकट उत्पन्न होता है।

·       औद्योगिक गतिविधियों पर असर पड़ता है, जिससे बेरोजगारी बढ़ती है और अर्थव्यवस्था को झटका लगता है।

सामाजिक प्रभाव:

·       आपदाओं के कारण बड़ी संख्या में लोग बेघर हो जाते हैं और शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर होते हैं।

·       महिलाओं, बच्चों, और बुजुर्गों को विशेष समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

·       आपदाओं से शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं पर गहरा असर पड़ता है।

पर्यावरणीय प्रभाव:

·       बाढ़ और भूस्खलन से पर्यावरण को हानि पहुँचती है, जिससे मिट्टी का कटाव होता है।

·       वनों की हानि से जैव विविधता पर असर पड़ता है और जलवायु संतुलन बिगड़ता है।

·       मनोवैज्ञानिक प्रभाव:

·       आपदाओं के बाद लोग मानसिक तनाव, चिंता, और अवसाद का शिकार हो जाते हैं।

·       बच्चों और युवाओं में PTSD (Post-Traumatic Stress Disorder) के मामले बढ़ते हैं।

भारत में आपदा प्रबंधन प्रणाली

भारत में आपदाओं का प्रभाव कम करने और उनसे निपटने के लिए एक सुव्यवस्थित आपदा प्रबंधन प्रणाली विकसित की गई है। इस प्रणाली में विभिन्न संस्थाएँ और योजनाएँ शामिल हैं।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA):

·       NDMA, 2005 में स्थापित किया गया था, जो आपदाओं से निपटने के लिए नीतियाँ और दिशा-निर्देश तैयार करता है।

·       इसका उद्देश्य आपदा जोखिम न्यूनीकरण और तैयारियों को बढ़ावा देना है।

राज्य और जिला स्तर पर आपदा प्रबंधन प्राधिकरण:

·       प्रत्येक राज्य और जिले में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण गठित किए गए हैं, जो स्थानीय स्तर पर राहत और पुनर्वास कार्यों का संचालन करते हैं।

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005:

·       इस अधिनियम के तहत आपदा प्रबंधन की रूपरेखा तैयार की गई है और आपदा से संबंधित सभी गतिविधियों का समन्वय सुनिश्चित किया जाता है।

प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली:

·       मौसम विज्ञान विभाग और भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग प्राकृतिक आपदाओं के लिए प्रारंभिक चेतावनी जारी करते हैं।

·       चक्रवातों और बाढ़ की पूर्व चेतावनी से लोगों को समय रहते सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने में सहायता मिलती है।

राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (NDRF):

·       NDRF एक विशेष बल है जो आपदा के समय राहत और बचाव कार्यों को अंजाम देता है।

·       इसका प्रशिक्षण और दक्षता आपदा के प्रभाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

गैर-सरकारी संगठन (NGOs) और स्थानीय समुदाय:

·       आपदा के समय NGOs और स्वयंसेवकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।

·       ये संगठन राहत सामग्री वितरित करने और प्रभावित लोगों को पुनर्वासित करने में सहायता करते हैं।

आपदा प्रबंधन में चुनौतियाँ

हालाँकि भारत ने आपदा प्रबंधन में कई सुधार किए हैं, लेकिन अब भी कई चुनौतियाँ बनी हुई हैं:

        जागरूकता की कमी और प्रशिक्षण का अभाव।

        शहरीकरण के कारण आपदाओं का बढ़ता जोखिम।

        संसाधनों की कमी और समन्वय की समस्या।

        कमजोर वर्गों की उपेक्षा, विशेषकर ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में।

निष्कर्ष

भारत में आपदा प्रबंधन प्रणाली को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए सभी स्तरों पर जागरूकता और समन्वय की आवश्यकता है। प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, क्षमता निर्माण, और आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर ध्यान केंद्रित करके आपदाओं के प्रभाव को कम किया जा सकता है। इसके साथ ही, सरकार, NGOs, और स्थानीय समुदायों को मिलकर काम करना चाहिए ताकि राहत और पुनर्वास कार्यों को तेजी से और प्रभावी ढंग से पूरा किया जा सके। आपदा प्रबंधन में एक मजबूत और सतत् व्यवस्था विकसित करना न केवल वर्तमान आपदाओं से निपटने में सहायक होगा, बल्कि भविष्य की आपदाओं के प्रभाव को भी न्यूनतम कर सकेगा।

 

प्रश्न 2:- आपदा, जोखिम, असुरक्षा (वल्नरेबिलिटी), लचीलापन (रिज़िलिएंस) और खतरे (हज़ार्ड) की परिभाषाओं की व्याख्या करें। इनके बीच के अंतर और परस्पर संबंध को समझाते हुए उदाहरण दें।

उत्तर:- भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में आपदा प्रबंधन की अवधारणा को समझने के लिए आपदा, जोखिम, असुरक्षा (वल्नरेबिलिटी), लचीलापन (रिज़िलिएंस) और खतरे (हज़ार्ड) की स्पष्ट समझ होना आवश्यक है। ये पाँच अवधारणाएँ आपदा प्रबंधन प्रणाली के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, जो आपदा की जटिलता को समझने और उससे निपटने के लिए एक ढाँचा प्रदान करती हैं। इस निबंध में इन सभी की विस्तार से परिभाषा, आपसी अंतर, और इनके बीच के संबंध को उदाहरणों के माध्यम से समझाया जाएगा।

1. आपदा (Disaster)

आपदा एक ऐसी घटना है, जो अचानक होती है और इससे जनजीवन, संपत्ति, पर्यावरण, और बुनियादी सेवाओं को भारी नुकसान होता है। आपदा का प्रभाव इतना व्यापक होता है कि सामान्य संसाधनों से इसे नियंत्रित करना कठिन हो जाता है। आपदा न केवल भौतिक क्षति का कारण बनती है, बल्कि मानसिक, सामाजिक, और आर्थिक समस्याओं को भी जन्म देती है।

उदाहरण:

        2004 की सुनामी में दक्षिण भारत के तटीय इलाकों को बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ और हजारों लोग मारे गए।

        2020 में कोविड-19 महामारी ने वैश्विक स्तर पर जनजीवन और आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित किया।

2. जोखिम (Risk)

जोखिम उस संभावना को दर्शाता है जिसमें कोई घटना किसी समुदाय या संपत्ति को नुकसान पहुँचा सकती है। आपदा प्रबंधन में जोखिम का तात्पर्य संभावित नुकसान से होता है जो किसी विशेष खतरे (जैसे भूकंप, बाढ़) के कारण उत्पन्न हो सकता है। जोखिम का आकलन करने के लिए खतरे की तीव्रता, असुरक्षा, और तैयारियों का विश्लेषण किया जाता है।

उदाहरण:

        भूकंप के क्षेत्र में अवस्थित किसी शहर में यदि इमारतें भूकंप-रोधी तकनीक से नहीं बनाई गईं, तो भूकंप का जोखिम अधिक होता है।

        तटीय क्षेत्रों में चक्रवात का जोखिम अधिक रहता है, विशेष रूप से वहाँ, जहाँ प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली प्रभावी नहीं होती।

3. असुरक्षा (Vulnerability)

असुरक्षा का अर्थ उन कमजोरियों से है, जो किसी समुदाय, संरचना, या क्षेत्र को आपदा के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती हैं। ये कमजोरियाँ सामाजिक, आर्थिक, भौतिक, और पर्यावरणीय कारणों से उत्पन्न होती हैं। असुरक्षित समुदायों में आपदा का प्रभाव अधिक गंभीर होता है, और वे आपदा के बाद पुनर्प्राप्ति में कठिनाई का सामना करते हैं।

उदाहरण:

        गरीब समुदाय जो बाढ़-प्रभावित क्षेत्रों में अस्थायी झोपड़ियों में रहते हैं, वे अधिक असुरक्षित होते हैं।

        ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोग, जिनकी आजीविका पूरी तरह से खेती पर निर्भर है, सूखे के दौरान अत्यधिक प्रभावित होते हैं।

4. लचीलापन (Resilience)

लचीलापन किसी समुदाय, संगठन, या व्यक्ति की उस क्षमता को दर्शाता है, जिससे वे आपदाओं का सामना कर सकें और तेजी से पुनर्वास कर सकें। लचीला समुदाय आपदाओं से सीखते हैं और भविष्य की आपदाओं के लिए बेहतर तैयार रहते हैं। इसमें आपदाओं से हुए नुकसान को कम करने और जल्दी सामान्य स्थिति में लौटने की क्षमता शामिल है।

उदाहरण:

        जापान जैसे देश, जो नियमित रूप से भूकंप का सामना करते हैं, अपनी भूकंप-रोधी इमारतों और आपदा तैयारियों के कारण लचीले माने जाते हैं।

        केरल में 2018 की बाढ़ के बाद लोगों ने पुनर्वास और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया तेजी से अपनाई, जिससे उनका लचीलापन प्रदर्शित हुआ।

5. खतरा (Hazard)

खतरा एक संभावित घटना है, जो प्राकृतिक या मानव-निर्मित हो सकती है और जिसके कारण जन-धन की हानि हो सकती है। खतरे भौतिक घटनाओं के रूप में प्रकट होते हैं, जैसे भूकंप, बाढ़, चक्रवात, और औद्योगिक दुर्घटनाएँ। हर खतरा अपने आप में आपदा नहीं होता; यह केवल तभी आपदा बनता है, जब वह किसी असुरक्षित या संवेदनशील समुदाय पर प्रभाव डालता है।

उदाहरण:

        हिमालयी क्षेत्र में भूकंप एक गंभीर खतरा है।

        तटीय क्षेत्रों में चक्रवात एक प्राकृतिक खतरे के रूप में देखा जाता है।

 

अंतर और परस्पर संबंध

अवधारणा

परिभाषा

उदाहरण

आपदा (Disaster)

अचानक होने वाली घटना, जो जन-धन को भारी नुकसान पहुँचाती है।

2004 की सुनामी

जोखिम (Risk)

संभावित नुकसान की संभावना।

भूकंप संभावित क्षेत्र में कमजोर इमारतों का निर्माण

असुरक्षा (Vulnerability)

किसी समुदाय या क्षेत्र की कमजोर स्थिति, जो आपदा के प्रभाव को बढ़ाती है।

झुग्गी बस्तियों में बाढ़ का खतरा

लचीलापन (Resilience)

आपदा के बाद तेजी से सुधार और पुनर्निर्माण की क्षमता।

जापान का भूकंप प्रबंधन

खतरा (Hazard)

ऐसी घटना जो आपदा का कारण बन सकती है।

भूकंप, चक्रवात

इनके बीच का संबंध

        खतरे (Hazard) से जोखिम (Risk) उत्पन्न होता है, लेकिन जोखिम का स्तर इस बात पर निर्भर करता है कि समुदाय कितना असुरक्षित (Vulnerable) है।

        असुरक्षा (Vulnerability) जितनी अधिक होगी, आपदा का प्रभाव उतना ही गंभीर होगा।

        यदि कोई समुदाय अधिक लचीला (Resilient) है, तो वह आपदा के प्रभाव से जल्दी उबर सकता है और भविष्य के खतरों का सामना कर सकता है।

        आपदा प्रबंधन का उद्देश्य जोखिम (Risk) को कम करना और लचीलापन (Resilience) को बढ़ाना है, ताकि संभावित खतरों के प्रभाव को कम किया जा सके।

व्यावहारिक उदाहरण

भूकंप को समझें:

        खतरा (Hazard): हिमालयी क्षेत्र में भूकंप आने की संभावना।

        जोखिम (Risk): यदि क्षेत्र में इमारतें कमजोर हैं, तो भूकंप से बड़े पैमाने पर नुकसान हो सकता है।

        असुरक्षा (Vulnerability): यदि लोग ऐसे घरों में रहते हैं जो भूकंप-रोधी नहीं हैं, तो उनकी जान को खतरा अधिक है।

        लचीलापन (Resilience): भूकंप के बाद तेजी से पुनर्निर्माण और बचाव कार्य करना। जापान इसका अच्छा उदाहरण है, जहाँ लोग भूकंप के प्रभाव को कम करने के लिए पहले से तैयार रहते हैं।

निष्कर्ष

आपदा, जोखिम, असुरक्षा, लचीलापन और खतरे आपदा प्रबंधन के महत्वपूर्ण घटक हैं। ये अवधारणाएँ परस्पर जुड़ी हुई हैं और किसी भी आपदा के प्रभाव को समझने और उससे निपटने के लिए आवश्यक हैं। आपदा प्रबंधन का मुख्य उद्देश्य यह है कि खतरों के प्रभाव को कम किया जाए, समुदायों में लचीलापन विकसित किया जाए, और असुरक्षित वर्गों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। यदि किसी क्षेत्र में जोखिम का आकलन सही ढंग से किया जाए और लचीलापन बढ़ाने के प्रयास किए जाएँ, तो आपदाओं के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

 

प्रश्न 3:- आपदा प्रबंधन के संदर्भ में लचीलापनका क्या अर्थ है? इसे बढ़ाने के उपायों पर विस्तार से चर्चा करें।

उत्तर:- आपदा प्रबंधन में लचीलापन‘ (Resilience) का अर्थ है किसी व्यक्ति, समुदाय, संगठन या पूरे समाज की वह क्षमता जिससे वे आपदाओं से उत्पन्न कठिनाइयों का सामना कर सकते हैं और जल्द से जल्द सामान्य स्थिति में लौट सकते हैं। यह न केवल आपदाओं के प्रत्यक्ष प्रभावों से निपटने की क्षमता को दर्शाता है, बल्कि भविष्य की आपदाओं के लिए बेहतर तैयारी और अनुकूलन की क्षमता भी दर्शाता है। लचीला समुदाय आपदाओं के बाद उत्पन्न चुनौतियों को स्वीकार कर उनसे सीखता है, ताकि आगे आने वाले खतरों का प्रभाव कम किया जा सके।

आपदा प्रबंधन में लचीलापन बढ़ाने पर विशेष ध्यान देना इसलिए जरूरी है, क्योंकि आपदाओं को पूरी तरह से रोकना संभव नहीं है। लेकिन प्रभाव को कम करने और समाज को तेजी से पुनः सशक्त करने के लिए लचीलापन आवश्यक है। इस निबंध में हम लचीलेपन की अवधारणा, इसकी विशेषताएँ, और इसे बढ़ाने के उपायों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

लचीलापन (Resilience) का अर्थ

लचीलापन का अर्थ केवल आपदा से उबरने की क्षमता से नहीं है, बल्कि इसमें आपदा के प्रभावों से बचने, अनुकूलन करने और बेहतर भविष्य के लिए तैयार होने की क्षमता भी शामिल है। लचीला समाज आपदाओं के बाद अपनी आजीविका, स्वास्थ्य, शिक्षा, और बुनियादी सेवाओं को पुनः स्थापित करने में सक्षम होता है।

लचीलेपन के प्रमुख आयाम:

सामाजिक लचीलापन (Social Resilience):

·       समाज के विभिन्न वर्गों के बीच एकजुटता और सहयोग से आपदाओं के बाद तेजी से सुधार की क्षमता।

·       शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता भी इस आयाम का हिस्सा है।

आर्थिक लचीलापन (Economic Resilience):

·       आपदाओं के बाद आर्थिक गतिविधियों को फिर से शुरू करने की क्षमता।

·       आजीविका के वैकल्पिक साधनों का विकास और आत्मनिर्भरता इसमें शामिल है।

पर्यावरणीय लचीलापन (Environmental Resilience):

·       पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण और सतत् विकास सुनिश्चित करना।

·       प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव को कम करने के लिए पर्यावरण की रक्षा करना।

प्रौद्योगिकीय लचीलापन (Technological Resilience):

·       आपदा के दौरान तकनीकी साधनों, जैसे चेतावनी प्रणाली और संचार नेटवर्क का प्रभावी उपयोग।

·       आधुनिक तकनीकों की मदद से पुनर्निर्माण को तेज़ी से पूरा करना।

लचीलापन बढ़ाने के उपाय

प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली का विकास:

·       प्रभावी प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली लोगों को समय रहते सुरक्षित स्थानों पर पहुँचने का अवसर देती है।

·       मौसम विज्ञान विभाग द्वारा दी जाने वाली सटीक चेतावनियाँ बाढ़, चक्रवात, और भूकंप के प्रभाव को कम कर सकती हैं।

सामुदायिक जागरूकता और प्रशिक्षण:

·       समुदाय को आपदा प्रबंधन की बुनियादी जानकारी देना और लोगों को आपातकालीन स्थितियों में सही निर्णय लेने के लिए प्रशिक्षित करना आवश्यक है।

·       स्कूलों, कॉलेजों और ग्राम स्तर पर आपदा प्रबंधन से जुड़े प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए।

भवनों का भूकंप-रोधी निर्माण:

·       भूकंप संभावित क्षेत्रों में इमारतों का निर्माण भूकंप-रोधी तकनीकों से किया जाना चाहिए।

·       अवैध और असुरक्षित निर्माणों पर प्रतिबंध लगाना जरूरी है।

हरित क्षेत्रों और पर्यावरण का संरक्षण:

·       बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं से बचने के लिए वनों की कटाई पर रोक लगानी चाहिए और वृक्षारोपण को बढ़ावा देना चाहिए।

·       पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने से आपदाओं का खतरा कम होता है।

आर्थिक सशक्तिकरण और आजीविका के साधन:

·       ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आजीविका के वैकल्पिक साधनों का विकास करना आवश्यक है, ताकि लोग आपदा के समय आर्थिक रूप से स्थिर रह सकें।

·       सूक्ष्म वित्त (Microfinance) और बीमा योजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि लोग आपदाओं के प्रभाव से उबर सकें।

स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार और सुधार:

·       आपदाओं के बाद बीमारियों और महामारी के प्रकोप को रोकने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार आवश्यक है।

·       प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में आपातकालीन दवाओं और सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए।

स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबंधन योजनाएँ:

·       प्रत्येक राज्य और जिले में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए।

·       स्थानीय प्रशासन और समुदाय के बीच समन्वय से आपदा प्रबंधन की प्रक्रिया को प्रभावी बनाया जा सकता है।

शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रम:

·       बच्चों और युवाओं को आपदा प्रबंधन की बुनियादी जानकारी देकर उनमें जागरूकता उत्पन्न करनी चाहिए।

·       विभिन्न संगठनों और संस्थानों द्वारा नियमित रूप से मॉक ड्रिल (Mock Drills) और प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए जाने चाहिए।

लचीलापन और आपदा जोखिम न्यूनीकरण (Disaster Risk Reduction) के बीच संबंध

लचीलापन और आपदा जोखिम न्यूनीकरण एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। आपदा जोखिम न्यूनीकरण का उद्देश्य यह है कि आपदाओं के प्रभाव को कम किया जाए और लोगों को अधिक लचीला बनाया जाए। यदि किसी समुदाय में लचीलापन बढ़ेगा, तो वह आपदा के प्रभाव से जल्दी उबर सकेगा और भविष्य में आने वाली आपदाओं का सामना करने के लिए बेहतर तैयार होगा।

उदाहरण:

        जापान में भूकंप का जोखिम अधिक है, लेकिन वहाँ की भूकंप-रोधी इमारतें और आपदा तैयारी ने लोगों को अधिक लचीला बना दिया है।

        केरल में 2018 की बाढ़ के बाद लोगों ने तेजी से पुनर्निर्माण किया और बेहतर योजनाओं के साथ वापसी की, जिससे उनका लचीलापन बढ़ा।

लचीलापन बढ़ाने में हितधारकों की भूमिका

सरकार:

·       आपदा प्रबंधन के लिए नीतियाँ और योजनाएँ बनाना और संसाधन उपलब्ध कराना।

·       आपदा के बाद राहत और पुनर्वास के कार्यों में तेजी लाना।

गैर-सरकारी संगठन (NGOs):

·       आपदा प्रभावित क्षेत्रों में राहत सामग्री का वितरण और पुनर्वास कार्यों में सहायता करना।

·       स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर जागरूकता और प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाना।

स्थानीय समुदाय:

·       आपदा प्रबंधन योजनाओं में सक्रिय भागीदारी और सामूहिक प्रयासों से आपदाओं का सामना करना।

·       समुदाय-आधारित आपदा प्रबंधन (CBDM) की अवधारणा को अपनाना।

अंतर्राष्ट्रीय संगठन:

·       आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में तकनीकी और आर्थिक सहायता प्रदान करना।

·       जलवायु परिवर्तन से संबंधित खतरों को कम करने के लिए वैश्विक स्तर पर सहयोग बढ़ाना।

निष्कर्ष

आपदा प्रबंधन में लचीलापन एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो यह सुनिश्चित करती है कि आपदाओं के बाद समाज तेजी से पुनर्निर्माण कर सके और भविष्य में बेहतर तैयार हो। लचीलापन केवल भौतिक पुनर्निर्माण तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें सामाजिक, आर्थिक, और पर्यावरणीय स्थिरता भी शामिल है। भारत जैसे देश में, जहाँ विभिन्न प्रकार की आपदाओं का खतरा हमेशा बना रहता है, लचीला समाज और मजबूत आपदा प्रबंधन प्रणाली समय की आवश्यकता है। सामूहिक प्रयासों, सही नीतियों, और जागरूकता के माध्यम से लचीलापन बढ़ाकर हम आपदाओं के प्रभाव को कम कर सकते हैं और एक सुरक्षित भविष्य का निर्माण कर सकते हैं।

 

प्रश्न 4:- आपदा और जोखिम के बीच के संबंध की व्याख्या करें। यह भी समझाएँ कि जोखिमों का आकलन कैसे किया जाता है और आपदा प्रबंधन में इसका क्या महत्व है।

उत्तर:- आपदा प्रबंधन में ‘आपदा’ (Disaster) और ‘जोखिम’ (Risk) दो महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं। आपदा एक ऐसी अप्रत्याशित घटना है, जो जन-धन, पर्यावरण और बुनियादी ढाँचे को गंभीर नुकसान पहुँचाती है, जबकि जोखिम वह संभावना है, जिसमें कोई खतरनाक घटना भविष्य में घटित होकर समाज पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है। इन दोनों के बीच गहरा संबंध है, क्योंकि किसी क्षेत्र में आपदा का प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि उस क्षेत्र में जोखिम का स्तर कितना है।

इस निबंध में हम आपदा और जोखिम के बीच के संबंध को विस्तार से समझेंगे, जोखिमों का आकलन कैसे किया जाता है, और आपदा प्रबंधन में जोखिम आकलन के महत्व पर चर्चा करेंगे।

आपदा और जोखिम के बीच संबंध

आपदा और जोखिम एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। किसी आपदा की तीव्रता और प्रभाव उस क्षेत्र के जोखिम स्तर पर निर्भर करता है। जोखिम इस बात को दर्शाता है कि किसी आपदा के घटित होने से कितना नुकसान हो सकता है। उदाहरण के लिए, भूकंप अपने आप में एक प्राकृतिक घटना है, लेकिन यदि वह किसी घनी आबादी वाले क्षेत्र में आता है, जहाँ इमारतें कमजोर हैं, तो उसका प्रभाव अधिक विनाशकारी होता है।

जोखिम की परिभाषा और घटक

जोखिम को तीन प्रमुख घटकों में विभाजित किया जा सकता है:

1.       खतरा (Hazard): संभावित आपदा की घटना, जैसे भूकंप, बाढ़, सूखा, या औद्योगिक दुर्घटना।

2.     असुरक्षा (Vulnerability): वह स्थिति, जो किसी समुदाय या क्षेत्र को आपदा के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती है, जैसे कमजोर बुनियादी ढाँचा, सामाजिक असमानता, या गरीबी।

3.     प्रभाव की संभावना (Exposure): जोखिम का स्तर इस बात पर निर्भर करता है कि कितने लोग, संपत्ति या संसाधन उस खतरे के प्रभाव में आते हैं।

आपदा और जोखिम के बीच परस्पर संबंध का उदाहरण

        भूकंप का जोखिम: यदि किसी क्षेत्र में भूकंप आने की संभावना अधिक है और वहाँ की इमारतें भूकंप-रोधी नहीं हैं, तो उस क्षेत्र का जोखिम अधिक होता है।

        बाढ़ का जोखिम: किसी नदी के किनारे बसे शहर में उचित जल निकासी की व्यवस्था नहीं है, तो वहाँ बाढ़ का जोखिम अधिक होता है।

इस प्रकार, आपदा और जोखिम का सीधा संबंध इस बात से है कि किसी आपदा के आने पर क्षेत्र की तैयारियों और कमजोरियों का स्तर कैसा है।

जोखिमों का आकलन

जोखिम आकलन (Risk Assessment) एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से संभावित खतरों का विश्लेषण किया जाता है और यह समझा जाता है कि आपदा से किस हद तक जन-धन को नुकसान हो सकता है। इस प्रक्रिया के तहत विभिन्न प्रकार के डेटा और जानकारी का उपयोग कर यह अनुमान लगाया जाता है कि आपदा के समय कौन-से क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हो सकते हैं और किन उपायों से जोखिम को कम किया जा सकता है।

जोखिम आकलन की प्रक्रिया

खतरे की पहचान (Hazard Identification):

·       यह समझना कि कौन-से खतरों से क्षेत्र को प्रभावित होने का खतरा है, जैसे बाढ़, भूकंप, या चक्रवात।

·       ऐतिहासिक डेटा का विश्लेषण करना, जिससे यह पता चले कि अतीत में कितनी बार आपदाएँ घटित हुईं और उनका प्रभाव कैसा था।

असुरक्षाओं का विश्लेषण (Vulnerability Analysis):

·       यह विश्लेषण करना कि क्षेत्र में कौन-से कारक आपदा के प्रभाव को बढ़ा सकते हैं, जैसे अव्यवस्थित शहरीकरण, गरीबी, या पर्यावरणीय क्षति।

·       कमजोर समुदायों की पहचान करना, जैसे झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोग, बुजुर्ग और बच्चे।

प्रभाव की संभावना का आकलन (Exposure Analysis):

·       यह देखना कि कौन-से संसाधन और आबादी आपदा के दायरे में हैं।

·       सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे, जैसे सड़क, अस्पताल, और बिजली संयंत्रों की स्थिति का विश्लेषण।

जोखिम का विश्लेषण (Risk Analysis):

·       विभिन्न खतरों और असुरक्षाओं के आधार पर संभावित नुकसान का अनुमान लगाना।

·       जोखिम का स्तर यह दर्शाता है कि आपदा आने पर कितनी हानि हो सकती है।

जोखिम प्रबंधन योजनाओं का विकास (Risk Mitigation Planning):

·       जोखिम को कम करने के उपायों की योजना बनाना, जैसे बाढ़-रोधी तटबंध बनाना, भूकंप-रोधी भवन निर्माण, और चेतावनी प्रणाली का विकास।

आपदा प्रबंधन में जोखिम आकलन का महत्व

जोखिम आकलन आपदा प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण घटक है, क्योंकि यह प्रशासन, संगठनों और समुदायों को यह समझने में मदद करता है कि कौन-से क्षेत्र और लोग आपदाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। इससे आपदा प्रबंधन के तहत निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं:

जोखिम न्यूनीकरण (Risk Mitigation):

·       जोखिम आकलन के आधार पर आपदा न्यूनीकरण के उपाय किए जा सकते हैं, जैसे बाढ़ संभावित क्षेत्रों में जल निकासी की उचित व्यवस्था करना।

·       कमजोर इमारतों की मरम्मत और भूकंप-रोधी तकनीकों का उपयोग किया जा सकता है।

प्राथमिकता तय करना (Prioritization):

·       जोखिम आकलन से यह तय किया जा सकता है कि किन क्षेत्रों में आपदा प्रबंधन के उपायों की सबसे अधिक आवश्यकता है।

·       संसाधनों का उचित वितरण और प्रभावी उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है।

प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली का विकास (Development of Early Warning Systems):

·       जोखिम आकलन से यह जानकारी मिलती है कि किस प्रकार की चेतावनी प्रणाली की आवश्यकता है और उसे किस तरह लागू किया जाना चाहिए।

·       उदाहरण के लिए, चक्रवात संभावित क्षेत्रों में मौसम चेतावनी प्रणाली की स्थापना।

पुनर्वास और पुनर्निर्माण (Rehabilitation and Reconstruction):

·       आपदाओं के बाद पुनर्वास और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को तेज और प्रभावी बनाने के लिए जोखिम आकलन महत्वपूर्ण है।

·       इससे प्रभावित लोगों को तेजी से राहत पहुँचाई जा सकती है।

नीतियों और योजनाओं का निर्माण (Policy Making and Planning):

·       जोखिम आकलन के आधार पर सरकार और प्रशासन आपदा प्रबंधन के लिए ठोस नीतियाँ और योजनाएँ तैयार कर सकते हैं।

·       इससे आपदा के प्रभाव को कम करने और समाज को अधिक लचीला बनाने में मदद मिलती है।

निष्कर्ष

आपदा और जोखिम के बीच का संबंध इस बात को दर्शाता है कि आपदाओं का प्रभाव केवल खतरे की तीव्रता पर ही नहीं, बल्कि उस क्षेत्र की संवेदनशीलता और तैयारियों पर भी निर्भर करता है। जोखिम आकलन एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो आपदा प्रबंधन के तहत नीतियों और योजनाओं के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

आपदा प्रबंधन का मुख्य उद्देश्य यह है कि खतरों को पूरी तरह से समाप्त करना संभव न होने के बावजूद जोखिम को कम किया जा सके और समाज को अधिक लचीला और तैयार बनाया जा सके। इसके लिए जोखिम आकलन के माध्यम से प्राथमिकताएँ तय करना, संसाधनों का सही उपयोग करना और आपदाओं से निपटने के लिए पहले से तैयारी करना आवश्यक है।

यदि जोखिम आकलन को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए, तो आपदा के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है और जन-धन की हानि से बचा जा सकता है। आपदाओं से सुरक्षित भविष्य के लिए यह जरूरी है कि जोखिम आकलन को आपदा प्रबंधन की योजनाओं में प्रमुख स्थान दिया जाए और सामुदायिक भागीदारी को भी बढ़ावा दिया जाए।

 

प्रश्न 5:- आपदा, खतरे और असुरक्षा के बीच के संबंध को उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट करें। भारत में इनका प्रबंधन कैसे किया जा सकता है, इस पर भी चर्चा करें।

उत्तर:- भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में आपदाओं की संभावना अधिक होती है। प्राकृतिक और मानव-निर्मित आपदाएँ समाज, पर्यावरण, और अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव डालती हैं। आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में आपदा (Disaster), खतरा (Hazard), और असुरक्षा (Vulnerability) तीन मुख्य अवधारणाएँ हैं, जो एक-दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई हैं। इन तीनों का समन्वित अध्ययन यह समझने में मदद करता है कि किसी आपदा का प्रभाव किस हद तक हो सकता है और उसे कम करने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए। इस निबंध में हम आपदा, खतरे और असुरक्षा के बीच के संबंध को उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट करेंगे और भारत में इनसे निपटने के उपायों पर चर्चा करेंगे।

आपदा (Disaster), खतरा (Hazard), और असुरक्षा (Vulnerability) की परिभाषा

1.     आपदा (Disaster):

आपदा एक अप्रत्याशित घटना है, जो समाज, संपत्ति और पर्यावरण को व्यापक नुकसान पहुँचाती है। यह एक ऐसी स्थिति है, जिसे सामान्य संसाधनों से नियंत्रित करना कठिन होता है। उदाहरण के रूप में बाढ़, भूकंप, सूखा और चक्रवात जैसी आपदाएँ जन-धन का भारी नुकसान करती हैं।

2.    खतरा (Hazard):

खतरा एक संभावित घटना है, जो आपदा का कारण बन सकती है। यह प्राकृतिक या मानव-निर्मित हो सकता है। भूकंप, चक्रवात, बाढ़, और औद्योगिक दुर्घटनाएँ खतरे के उदाहरण हैं।

3.   असुरक्षा (Vulnerability):

असुरक्षा उन कारकों को दर्शाती है, जो किसी क्षेत्र, व्यक्ति, या समुदाय को आपदा के प्रति अधिक संवेदनशील बनाते हैं। गरीबी, कमजोर बुनियादी ढाँचा, पर्यावरणीय असंतुलन, और सामाजिक असमानता असुरक्षा के प्रमुख कारक हैं।

आपदा, खतरे और असुरक्षा के बीच संबंध

आपदा का मुख्य कारण खतरे और असुरक्षा के बीच के संबंध में निहित होता है। किसी क्षेत्र में खतरे का प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ के लोग और संपत्ति कितने असुरक्षित हैं। यदि कोई क्षेत्र खतरे के प्रति संवेदनशील है, तो आपदा का प्रभाव अधिक होगा। इन तीनों के बीच गहरा परस्पर संबंध है:

1.     खतरा (Hazard) + असुरक्षा (Vulnerability) = जोखिम (Risk):

यदि कोई खतरा जैसे बाढ़, चक्रवात या भूकंप किसी असुरक्षित क्षेत्र में आता है, तो वहाँ आपदा का जोखिम बढ़ जाता है।

2.    जोखिम (Risk) + घटना का घटित होना = आपदा (Disaster):

आपदा तब घटित होती है, जब जोखिम वास्तविक घटना में परिवर्तित हो जाता है। उदाहरण के लिए, यदि भूकंप ऐसे क्षेत्र में आता है जहाँ इमारतें कमजोर हैं, तो वहाँ भारी जन-धन की हानि होती है।

उदाहरणों के माध्यम से संबंध को समझना

1. भूकंप:

        खतरा: भूकंप एक प्राकृतिक खतरा है।

        असुरक्षा: यदि किसी क्षेत्र में इमारतें भूकंप-रोधी नहीं हैं, तो वहाँ लोग अधिक असुरक्षित होते हैं।

        आपदा: 2001 में गुजरात में भुज भूकंप एक विनाशकारी आपदा थी, जिसमें हजारों लोग मारे गए और लाखों लोग बेघर हो गए। कमजोर बुनियादी ढाँचे और असुरक्षित निर्माण के कारण यह आपदा गंभीर बनी।

2. बाढ़:

        खतरा: मानसून के मौसम में भारत के कई क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा बना रहता है।

        असुरक्षा: कमजोर जल निकासी व्यवस्था और अवैध निर्माण से बाढ़ का प्रभाव बढ़ जाता है।

        आपदा: 2018 में केरल में आई बाढ़ ने व्यापक तबाही मचाई, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों बेघर हो गए। जल निकासी की असमान व्यवस्था और पर्यावरणीय क्षति ने इस आपदा को गंभीर बना दिया।

3. चक्रवात:

        खतरा: तटीय क्षेत्रों में चक्रवात का खतरा अधिक रहता है।

        असुरक्षा: जिन क्षेत्रों में चेतावनी प्रणाली कमजोर होती है और लोग तैयार नहीं होते, वहाँ जन-धन की हानि अधिक होती है।

        आपदा: 1999 में ओडिशा में आया सुपर साइक्लोन एक गंभीर आपदा थी, जिसने हजारों लोगों की जान ली और बड़े पैमाने पर बुनियादी ढाँचे को नष्ट कर दिया।

भारत में आपदा, खतरे और असुरक्षा का प्रबंधन

भारत में आपदाओं का प्रभाव कम करने के लिए सरकार, गैर-सरकारी संगठन (NGOs) और स्थानीय समुदाय मिलकर प्रयास करते हैं। आपदा प्रबंधन की योजनाएँ खतरे की पहचान, जोखिम आकलन, और असुरक्षा को कम करने के उपायों पर आधारित होती हैं। निम्नलिखित तरीके भारत में आपदाओं और खतरों का प्रभावी प्रबंधन करने में मदद करते हैं:

1. प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली का विकास:

        मौसम विज्ञान विभाग और अन्य एजेंसियाँ बाढ़, चक्रवात, और भूकंप के खतरों की चेतावनी समय पर जारी करती हैं।

        तटीय क्षेत्रों में चक्रवातों से बचने के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली को मजबूत किया गया है।

2. जोखिम आकलन और असुरक्षा कम करना:

        जोखिम आकलन के तहत उन क्षेत्रों की पहचान की जाती है, जो आपदाओं के प्रति संवेदनशील हैं।

        सरकार कमजोर बुनियादी ढाँचों को सुधारने और भूकंप-रोधी इमारतों के निर्माण को प्रोत्साहित करती है।

3. आपदा-रोधी बुनियादी ढाँचे का विकास:

        तटीय क्षेत्रों में चक्रवात-रोधी आश्रय स्थल बनाए जाते हैं।

        बाढ़ संभावित क्षेत्रों में तटबंध और जल निकासी व्यवस्था का विकास किया जाता है।

4. सामुदायिक भागीदारी और जागरूकता:

        स्थानीय समुदायों को आपदा प्रबंधन में शामिल किया जाता है, ताकि वे आपदाओं के लिए बेहतर तैयार रहें।

        स्कूलों और कॉलेजों में आपदा प्रबंधन से जुड़े जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाते हैं।

5. पुनर्वास और पुनर्निर्माण:

        आपदा के बाद पुनर्वास कार्य तेजी से किए जाते हैं, ताकि प्रभावित लोगों को जल्द से जल्द राहत मिले।

        सरकार और NGOs मिलकर पुनर्निर्माण कार्यों में सहायता प्रदान करते हैं।

6. अंतर्राष्ट्रीय सहयोग:

        आपदाओं के प्रबंधन के लिए भारत अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से सहयोग करता है।

        जलवायु परिवर्तन से संबंधित खतरों का सामना करने के लिए वैश्विक प्रयासों में भारत सक्रिय भागीदार है।

निष्कर्ष

आपदा, खतरे और असुरक्षा के बीच गहरा संबंध है। खतरे का प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि समाज कितना असुरक्षित है और उसके पास आपदाओं से निपटने के लिए कितनी तैयारी है। यदि समाज में असुरक्षा को कम किया जाए और खतरे का सही आकलन किया जाए, तो आपदाओं के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है। भारत में आपदा प्रबंधन प्रणाली को मजबूत बनाने के लिए सरकार, NGOs, और समुदायों को मिलकर काम करना आवश्यक है।

समय पर चेतावनी, जोखिम आकलन, और समुदाय की भागीदारी से भारत आपदाओं का प्रभावी ढंग से सामना कर सकता है। साथ ही, सतत् विकास और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देकर भविष्य में खतरों से बचा जा सकता है। आपदा प्रबंधन में लचीलापन और सतत् तैयारी ही आपदाओं से सुरक्षित भविष्य की कुंजी है।

 

 

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