मुद्रा, बैंकिंग और सार्वजनिक वित्त पर विस्तृत अध्ययन
परिचय
मुद्रा, बैंकिंग और सार्वजनिक वित्त (Money, Banking and Public Finance) अर्थशास्त्र के महत्वपूर्ण विषय हैं, जो किसी भी अर्थव्यवस्था की वित्तीय संरचना, सरकारी हस्तक्षेप, और मौद्रिक व वित्तीय नीतियों के प्रभाव को समझने में सहायक होते हैं। यह अध्ययन हमें यह समझने में मदद करता है कि मुद्रा (Money) कैसे कार्य करती है, इसकी माँग और आपूर्ति को कौन-कौन से कारक प्रभावित करते हैं, और सरकार अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक वित्त (Public Finance) के माध्यम से किस प्रकार भूमिका निभाती है।
अध्याय 1: मुद्रा का अर्थ एवं कार्य
मुद्रा का अर्थ
मुद्रा किसी भी वस्तु, सेवा या संपत्ति के मूल्य को व्यक्त करने का एक माध्यम है। यह मूल रूप से विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange) होने के कारण विकसित हुई, जिससे वस्तु विनिमय प्रणाली (Barter System) की असुविधाएँ समाप्त हो गईं। मुद्रा को मुख्य रूप से चार प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है:
1. वस्तु मुद्रा (Commodity Money) – जिसमें सोना, चाँदी जैसी वस्तुएँ आती हैं जिनकी अपनी आंतरिक मूल्य (Intrinsic Value) होती है।
2. प्रतिनिधि मुद्रा (Representative Money) – जिसका वास्तविक मूल्य सोने या चाँदी जैसी धातु पर आधारित होता है।
3. फिएट मुद्रा (Fiat Money) – सरकार द्वारा जारी की गई मुद्रा जिसका कोई आंतरिक मूल्य नहीं होता, लेकिन यह वैधानिक रूप से स्वीकार्य होती है।
4. डिजिटल मुद्रा (Digital Money) – आधुनिक दौर में उपयोग में आने वाली क्रिप्टोकरेंसी (Cryptocurrency) जैसी मुद्राएँ।
मुद्रा के कार्य
मुद्रा के चार प्रमुख कार्य होते हैं:
1. विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange) – यह लोगों को वस्तुओं और सेवाओं का लेन-देन करने में सहायता करता है।
2. मूल्य मापन की इकाई (Unit of Account) – मुद्रा एक मानक मूल्य निर्धारण का कार्य करती है।
3. मूल्य के संचय का माध्यम (Store of Value) – मुद्रा को भविष्य में उपयोग के लिए सहेजा जा सकता है।
4. भविष्य में भुगतान का मानक (Standard of Deferred Payment) – भविष्य के वित्तीय अनुबंधों और ऋणों के निपटान में मदद करता है।
अध्याय 2: ग्रेशम का नियम (Gresham’s Law)
ग्रेशम का नियम कहता है:
“खराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को प्रचलन से बाहर कर देती है।”
जब किसी अर्थव्यवस्था में दो प्रकार की मुद्रा प्रचलित होती हैं—एक जिसका मूल्य अधिक होता है (अच्छी मुद्रा) और दूसरी जिसका मूल्य अपेक्षाकृत कम होता है (खराब मुद्रा)—तो लोग अच्छी मुद्रा को बचाकर रखते हैं और खराब मुद्रा को अधिक इस्तेमाल करते हैं।
आधुनिक उदाहरण
· यदि किसी देश में स्थानीय मुद्रा का अवमूल्यन (Currency Depreciation) हो रहा हो, तो लोग डॉलर जैसी मजबूत मुद्रा को संचित करने लगते हैं।
· कई देशों में क्रिप्टोकरेंसी के बढ़ते प्रचलन को भी ग्रेशम के नियम के एक उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
अध्याय 3: मौद्रिक मानक – धात्विक एवं कागजी प्रणाली
1. धात्विक मानक (Metallic Standard)
इस प्रणाली में मुद्रा का मूल्य किसी धातु (जैसे सोना या चाँदी) पर आधारित होता है।
· स्वर्ण मानक (Gold Standard) – मुद्रा की विनिमय क्षमता सोने से निर्धारित होती है।
· रजत मानक (Silver Standard) – मुद्रा का मूल्य चाँदी पर आधारित होता है।
· द्विमुद्रा प्रणाली (Bimetallism) – इसमें सोना और चाँदी दोनों का उपयोग होता है।
धात्विक मानक के लाभ
· मुद्रा की स्थिरता बनी रहती है।
· महंगाई नियंत्रित रहती है।
नुकसान
· मुद्रा आपूर्ति सीमित हो जाती है।
· आर्थिक मंदी के दौरान तरलता संकट (Liquidity Crisis) उत्पन्न हो सकता है।
2. कागजी मुद्रा प्रणाली (Paper Money System)
इसमें सरकार द्वारा जारी किए गए कागजी नोटों का उपयोग किया जाता है।
लाभ
· सरकार को मुद्रास्फीति और आर्थिक नीति को नियंत्रित करने की स्वतंत्रता मिलती है।
· मुद्रा का उत्पादन आसान होता है।
नुकसान
· सरकार द्वारा अति मुद्रण से मुद्रास्फीति बढ़ सकती है।
· मुद्रा पर विश्वास पूरी तरह सरकार पर निर्भर करता है।
अध्याय 4: मुद्रा की माँग (Demand for Money)
मुद्रा की माँग का अर्थ उन कारकों से है जो लोगों को मुद्रा धारण करने के लिए प्रेरित करते हैं।
1. मुद्रा की मात्रा सिद्धांत (Quantity Theory of Money)
इस सिद्धांत को निम्नलिखित समीकरण द्वारा व्यक्त किया जाता है:
𝑀 𝑉 = 𝑃 𝑄
जहाँ:
· M = मुद्रा की आपूर्ति
· V = मुद्रा की गति
· P = मूल्य स्तर
· Q = वस्तुओं और सेवाओं की कुल उत्पादन मात्रा
यह सिद्धांत बताता है कि यदि मुद्रा की आपूर्ति बढ़ती है और उत्पादन स्थिर रहता है, तो मूल्य स्तर (महंगाई) बढ़ेगा।
2. नकदी लेन-देन और नकदी शेष दृष्टिकोण
(a) नकदी लेन-देन दृष्टिकोण (Cash Transaction Approach)
· इस दृष्टिकोण के अनुसार, मुद्रा की माँग का निर्धारण कुल आर्थिक लेन-देन द्वारा होता है।
(b) नकदी शेष दृष्टिकोण (Cash Balance Approach)
· इस दृष्टिकोण में व्यक्तियों की आय और उनके नकदी रखने की प्रवृत्ति को मुद्रा की माँग का प्रमुख निर्धारक माना गया है।
3. कीनेसियन दृष्टिकोण (Keynesian Approach)
जॉन मेनार्ड कीन्स के अनुसार मुद्रा की माँग तीन उद्देश्यों के लिए होती है:
· लेन-देन उद्देश्य (Transactions Motive) – दैनिक खर्चों के लिए।
· सावधानी उद्देश्य (Precautionary Motive) – आकस्मिक स्थितियों के लिए।
· सट्टा उद्देश्य (Speculative Motive) – निवेश के अवसरों के लिए।
अध्याय 5: सार्वजनिक वित्त एवं सरकार की भूमिका
सार्वजनिक वित्त के स्रोत
1. सार्वजनिक वित्त – करों (Taxes), ऋणों और विदेशी सहायता से आता है।
2. निजी वित्त – व्यक्तिगत बचत, निवेश और बैंक ऋण से आता है।
बाजार विफलता और सरकार की भूमिका
सरकार निम्नलिखित तरीकों से बाज़ार विफलता को नियंत्रित करती है:
· कर एवं सब्सिडी – बाह्यताओं (Externalities) को नियंत्रित करने के लिए।
· सार्वजनिक वस्तुओं का प्रावधान – जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ।
· नियमन (Regulation) – एकाधिकार (Monopoly) को रोकने के लिए।
अध्याय 6: कराधान और इसके प्रभाव
करों के प्रकार
1. प्रत्यक्ष कर (Direct Taxes) – जैसे आयकर।
2. अप्रत्यक्ष कर (Indirect Taxes) – जैसे वस्तु एवं सेवा कर (GST)।
करों का बोझ और वितरण
· प्रगतिशील कराधान (Progressive Taxation) – उच्च आय वर्ग से अधिक कर लिया जाता है।
· प्रतिगामी कराधान (Regressive Taxation) – कम आय वर्ग पर अधिक बोझ पड़ता है।
· समप्रातीय कराधान (Proportional Taxation) – सभी पर समान प्रतिशत कर लगाया जाता है।
निष्कर्ष
मुद्रा, बैंकिंग और सार्वजनिक वित्त का अध्ययन किसी भी अर्थव्यवस्था के वित्तीय निर्णयों और आर्थिक स्थिरता को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस अध्ययन से छात्र आर्थिक सिद्धांतों, नीतियों और वित्तीय तंत्रों की गहरी समझ विकसित कर सकते हैं और आर्थिक नीति-निर्धारण में योगदान दे सकते हैं।