दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1:- भारत में उग्रवादी विचारधारा का उदय कैसे हुआ? उन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारकों की व्याख्या करें जिन्होंने उग्रवादी आंदोलन को जन्म दिया।
उत्तर:- भारत में राष्ट्रवाद की भावना 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में मजबूत होने लगी थी। इस दौर में भारतीयों ने ब्रिटिश शासन की नीतियों और उनकी आर्थिक, सामाजिक, तथा राजनीतिक शोषण प्रणाली के खिलाफ आवाज उठाई। प्रारंभिक दौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे संगठन नरमपंथी विचारधारा के माध्यम से अंग्रेजी शासन से सुधारों की मांग कर रहे थे। लेकिन समय के साथ ब्रिटिश सरकार के दमनकारी रवैये और भारतीयों की बढ़ती निराशा ने उग्रवादी विचारधारा को जन्म दिया, जिसे चरमपंथी आंदोलन या उग्रवादी राष्ट्रवाद के रूप में जाना गया।
यह विचारधारा अपने आप में नरमपंथियों से अलग थी, क्योंकि यह अंग्रेजी शासन से सुधारों की जगह पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर रही थी और हिंसात्मक तथा प्रत्यक्ष आंदोलनों के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती देना चाहती थी। इस लेख में हम उन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारकों की विस्तार से व्याख्या करेंगे, जिन्होंने भारत में उग्रवादी आंदोलन के उदय को जन्म दिया।
उग्रवादी विचारधारा के विकास में ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्जन ने 1905 में बंगाल का विभाजन करने का निर्णय लिया। यह विभाजन “फूट डालो और राज करो” की नीति का हिस्सा था, जिसके अंतर्गत हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच विभाजन उत्पन्न करना था। बंगाल विभाजन के खिलाफ पूरे देश में जबरदस्त विरोध हुआ और इस घटना ने राष्ट्रवादी आंदोलन को तीव्र गति दी। नरमपंथी नेताओं की शांतिपूर्ण अपीलें विफल हो गईं, और ऐसे में कई युवाओं ने महसूस किया कि केवल हिंसात्मक संघर्ष ही अंग्रेजों से मुक्ति दिला सकता है।
ब्रिटिश प्रशासन ने बार-बार भारतीयों की मांगों को अनसुना किया। नरमपंथी नेताओं द्वारा संवैधानिक सुधारों की माँग को ठुकरा दिया गया, जिससे राष्ट्रवादियों के भीतर आक्रोश बढ़ा। 1907 के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस दो गुटों में बँट गई—नरमपंथी और उग्रवादी। उग्रवादी नेताओं जैसे बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, और लाला लाजपत राय ने यह मानना शुरू किया कि अब समय आ गया है कि संघर्ष का नया मार्ग अपनाया जाए।
ब्रिटिश राज द्वारा भारतीयों के साथ किया जाने वाला भेदभाव और भारतीयों को प्रशासनिक पदों से वंचित रखना उग्रवादी विचारधारा के विकास का प्रमुख कारण बना। ब्रिटिश नीतियों के कारण भारतीय समाज में यह भावना पनपी कि विदेशी शासन केवल उनका शोषण कर रहा है और देश को प्रगति से रोक रहा है।
ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियों ने भारत की अर्थव्यवस्था को कमजोर कर दिया और आम जनता को गरीबी और बदहाली में धकेल दिया।
ब्रिटिश राज ने भारत के पारंपरिक कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया। अंग्रेजी वस्त्र उद्योग को प्रोत्साहन देने के लिए भारतीय वस्त्र उद्योगों को नुकसान पहुँचाया गया, जिससे लाखों कारीगर और बुनकर बेरोजगार हो गए। इस आर्थिक शोषण ने भारतीय युवाओं के मन में अंग्रेजों के प्रति गहरा आक्रोश उत्पन्न किया।
ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय किसानों को भारी करों और कठोर लगान व्यवस्था का सामना करना पड़ा। फसल खराब होने के बावजूद किसानों से कर वसूला जाता था, जिससे वे कर्ज के बोझ तले दबते चले गए। 1896 और 1899 के बीच पड़े अकालों ने स्थिति और गंभीर बना दी, जबकि अंग्रेजी सरकार ने राहत कार्यों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
भारत से कच्चे माल का निर्यात करके ब्रिटेन में उद्योगों का विकास किया गया, जबकि भारतीय बाजारों को ब्रिटिश उत्पादों का उपभोक्ता बना दिया गया। इस व्यापारिक शोषण से भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई और आम जनता में असंतोष फैल गया। उग्रवादी विचारधारा के समर्थकों का मानना था कि केवल विदेशी शासन को उखाड़ फेंक कर ही इस आर्थिक गुलामी से मुक्ति पाई जा सकती है।
भारतीय समाज में 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में सामाजिक और सांस्कृतिक जागृति का दौर शुरू हुआ।
बंगाल विभाजन के बाद स्वदेशी आंदोलन का आरंभ हुआ, जिसके तहत भारतीयों ने विदेशी वस्त्रों और सामान का बहिष्कार करना शुरू किया। इस आंदोलन ने आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान की भावना को जन्म दिया, जिससे उग्रवादी विचारधारा को बढ़ावा मिला। तिलक ने जनता के बीच यह संदेश फैलाया कि विदेशी शासन से मुक्ति के लिए आत्मनिर्भरता और आर्थिक बहिष्कार अत्यंत आवश्यक है।
बाल गंगाधर तिलक और अन्य उग्रवादी नेताओं ने प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के गौरव को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। गणेशोत्सव और शिवाजी महोत्सव जैसे त्योहारों के माध्यम से जनता को एकत्र कर संगठित किया गया और स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया गया। इससे जनता के भीतर राष्ट्रीय गौरव और स्वतंत्रता की भावना मजबूत हुई।
नरमपंथी नेताओं की अहिंसात्मक नीतियों से निराश होकर युवाओं ने उग्रवादी मार्ग अपनाना शुरू किया। अनुशीलन समिति, युगांतर दल, और गदर पार्टी जैसी क्रांतिकारी संस्थाओं का गठन किया गया, जिन्होंने सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से अंग्रेजों को चुनौती देने का प्रयास किया। भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, और रामप्रसाद बिस्मिल जैसे युवा क्रांतिकारी उग्रवादी आंदोलन के प्रतीक बने।
भारत में उग्रवादी विचारधारा के विकास पर वैश्विक घटनाओं का भी प्रभाव पड़ा।
1917 की रूसी क्रांति और आयरलैंड के स्वतंत्रता आंदोलन से भारतीय क्रांतिकारियों ने प्रेरणा ली। इन संघर्षों ने भारतीयों को यह विश्वास दिलाया कि ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध हिंसात्मक विद्रोह संभव है और सफलता प्राप्त की जा सकती है।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीयों ने उम्मीद की थी कि युद्ध में सहयोग देने के बदले ब्रिटेन भारत को स्वायत्तता प्रदान करेगा। लेकिन युद्ध के बाद ऐसा कुछ नहीं हुआ, और ब्रिटिश सरकार ने रॉलेट एक्ट जैसे दमनकारी कानून लागू किए। इससे भारतीयों के बीच आक्रोश और बढ़ गया और उग्रवादी गतिविधियों को समर्थन मिला।
भारत में उग्रवादी विचारधारा का उदय कई राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कारणों का परिणाम था। ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियाँ, भारतीय उद्योगों का विनाश, किसानों और मजदूरों का शोषण, तथा भारतीय समाज में जागृत हो रही स्वाभिमान की भावना ने उग्रवादी आंदोलन को जन्म दिया। बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, और लाला लाजपत राय जैसे नेताओं ने उग्रवादी विचारधारा को बढ़ावा दिया, जबकि भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, और अन्य क्रांतिकारियों ने इसे अपने चरम पर पहुँचाया।
हालाँकि उग्रवादी आंदोलन ब्रिटिश शासन को उखाड़ने में तत्काल सफल नहीं हुआ, लेकिन इसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नई ऊर्जा और दिशा प्रदान की। उग्रवादी विचारधारा ने भारतीयों के भीतर स्वतंत्रता के प्रति अडिग संकल्प को जन्म दिया और अंततः 1947 में भारत की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया।
प्रश्न 2:- उग्रवादी नेताओं के विचारों और कार्यों पर विस्तार से चर्चा करें। बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय के योगदान का विश्लेषण करें।
उत्तर:- भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उग्रवादी (चरमपंथी) नेताओं का विशेष महत्व है, जिन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभ में आंदोलन को नया स्वरूप और दिशा दी। 1905 के बंगाल विभाजन के बाद आंदोलन के दो प्रमुख धड़े उभरे—उदारवादी और उग्रवादी। जहां उदारवादी नेता संवैधानिक तरीके और अहिंसा के मार्ग से स्वतंत्रता प्राप्ति की वकालत कर रहे थे, वहीं उग्रवादी नेता अंग्रेजी सरकार के प्रति अधिक आक्रामक रवैया अपनाने और स्वराज (पूर्ण स्वतंत्रता) की मांग पर जोर दे रहे थे। उग्रवादी नेताओं ने संघर्ष के अधिक प्रभावी और क्रांतिकारी रूपों को अपनाया, जिससे जनता में जोश और उत्साह का संचार हुआ।
उग्रवादी नेताओं में प्रमुख रूप से बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन तीनों को “लाल-बाल-पाल” के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को नई दिशा दी और जनता में आत्मसम्मान और राष्ट्रभक्ति की भावना का प्रसार किया।
उग्रवादी विचारधारा की विशेषताएँ
1. स्वराज की माँग: उग्रवादी नेताओं का मानना था कि भारतीयों को पूर्ण स्वराज (स्वतंत्रता) का अधिकार है, और इसे धीरे-धीरे सुधारों के माध्यम से नहीं, बल्कि आंदोलन और संघर्ष के जरिए प्राप्त किया जा सकता है।
2. आत्मनिर्भरता और बहिष्कार: उन्होंने स्वदेशी आंदोलन के माध्यम से विदेशी वस्त्रों और वस्तुओं का बहिष्कार करने का आह्वान किया। उनका विश्वास था कि भारतीयों को आत्मनिर्भर बनना होगा और अपने उत्पादों का उपयोग करना चाहिए।
3. जनता को जागरूक करना: उग्रवादी नेताओं ने लोगों में राजनीतिक जागरूकता और राष्ट्रीयता की भावना का संचार किया। उनका मानना था कि जनता को संगठित करके बड़े पैमाने पर जनांदोलन खड़ा किया जा सकता है।
4. आक्रामक नीति: उग्रवादी नेता ब्रिटिश सरकार के प्रति अधिक आक्रामक नीति अपनाने के पक्षधर थे। वे याचिकाओं और प्रार्थना-पत्रों के बजाय आंदोलन, धरना, बहिष्कार, और जनसभाओं के माध्यम से विरोध प्रकट करना चाहते थे।
5. युवाओं का योगदान: उग्रवादी नेताओं ने युवाओं में राष्ट्रभक्ति की भावना जगाई और उन्हें आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
बाल गंगाधर तिलक का योगदान
बाल गंगाधर तिलक को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का “जनक” भी कहा जाता है। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांतिकारी विचारधारा का प्रवेश कराया और जनता में जागरूकता फैलाने का काम किया। तिलक का प्रमुख नारा था, “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” इस नारे ने लाखों भारतीयों को स्वतंत्रता के संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।
1. स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन: तिलक ने लोगों से स्वदेशी वस्त्रों और उत्पादों का उपयोग करने का आह्वान किया और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करने पर जोर दिया। उनका मानना था कि आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी है।
2. गणेशोत्सव और शिवाजी उत्सव: तिलक ने धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का उपयोग जनता को संगठित करने के लिए किया। उन्होंने गणेश उत्सव और शिवाजी उत्सव के माध्यम से लोगों में एकता और राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया।
3. केसरी और मराठा पत्रिकाएँ: तिलक ने ‘केसरी’ (मराठी) और ‘मराठा’ (अंग्रेजी) नामक पत्रिकाओं का संपादन किया, जिनमें उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नीतियों की कड़ी आलोचना की और स्वतंत्रता का समर्थन किया।
4. विरोध की रणनीति: तिलक ने अंग्रेजी सरकार के प्रति कड़ा रुख अपनाया। 1897 में रैंड हत्याकांड के बाद उन्हें राजद्रोह के आरोप में जेल भेजा गया। जेल से लौटने के बाद उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को और तेज कर दिया।
बिपिन चंद्र पाल का योगदान
बिपिन चंद्र पाल एक महान राष्ट्रवादी और पत्रकार थे, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को वैचारिक और क्रांतिकारी दिशा दी। वे स्वदेशी आंदोलन और बहिष्कार की नीति के कट्टर समर्थक थे। पाल ने न केवल ब्रिटिश शासन का विरोध किया, बल्कि भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन के लिए भी काम किया।
1. स्वदेशी आंदोलन में भूमिका: बिपिन चंद्र पाल ने बंगाल में स्वदेशी आंदोलन को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी उद्योगों के विकास को आंदोलन का हिस्सा बनाया।
2. पत्रकारिता के माध्यम से जागरूकता: पाल ने ‘न्यू इंडिया’ और ‘बंगाल पब्लिक ओपिनियन’ जैसे अखबारों के माध्यम से ब्रिटिश शासन की नीतियों की आलोचना की और जनता को जागरूक किया। उनकी लेखनी ने लोगों में स्वतंत्रता के प्रति नई ऊर्जा भरी।
3. आत्मनिर्भरता और शिक्षा पर जोर: बिपिन चंद्र पाल ने भारतीय समाज को आत्मनिर्भर बनाने और लोगों में आधुनिक शिक्षा का प्रसार करने का आह्वान किया। वे मानते थे कि समाज सुधार के बिना स्वतंत्रता अधूरी होगी।
4. उदारवादियों की आलोचना: पाल ने उदारवादियों की नीतियों की आलोचना करते हुए कहा कि केवल प्रार्थनाओं और याचिकाओं से स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की जा सकती। उनका विश्वास था कि संघर्ष और बलिदान ही स्वतंत्रता की राह को प्रशस्त करेंगे।
लाला लाजपत राय का योगदान
लाला लाजपत राय, जिन्हें “पंजाब केसरी” के नाम से जाना जाता है, स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख उग्रवादी नेता थे। उन्होंने पंजाब में राष्ट्रीय आंदोलन को संगठित किया और लोगों में स्वाधीनता की भावना जागृत की। लाजपत राय का मानना था कि बिना संघर्ष के स्वतंत्रता प्राप्त करना संभव नहीं है।
1. पंजाब में नेतृत्व: लाला लाजपत राय ने पंजाब में स्वदेशी आंदोलन को संगठित किया और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जनांदोलनों का नेतृत्व किया। उन्होंने समाज सुधार के लिए भी महत्वपूर्ण कार्य किए।
2. अंग्रेजों का विरोध: 1928 में साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करते समय पुलिस ने उन पर लाठीचार्ज किया, जिससे वे गंभीर रूप से घायल हो गए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी शहादत ने स्वतंत्रता आंदोलन को और अधिक प्रखर बना दिया।
3. सर्वेंट्स ऑफ पीपल सोसाइटी: लाजपत राय ने ‘सर्वेंट्स ऑफ पीपल सोसाइटी’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य समाज सेवा और राष्ट्रीय एकता का प्रसार करना था।
4. साहित्यिक योगदान: लाजपत राय ने कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें उन्होंने स्वतंत्रता और राष्ट्रभक्ति के विचारों को विस्तार से व्यक्त किया। उनकी रचनाएँ जनता में जागरूकता और संघर्ष की भावना भरने में सफल रहीं।
निष्कर्ष
बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, और लाला लाजपत राय ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उग्रवादी विचारधारा को विकसित किया और उसे जनता के बीच लोकप्रिय बनाया। उन्होंने न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया, बल्कि स्वदेशी आंदोलन, बहिष्कार, और आत्मनिर्भरता की नीतियों के माध्यम से देश को स्वतंत्रता के लिए तैयार किया। इन नेताओं की क्रांतिकारी नीतियों और संघर्षों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी और देश के युवाओं में राष्ट्रभक्ति का संचार किया। उनका योगदान भारतीय इतिहास में सदैव याद रखा जाएगा, और उनके विचार आज भी प्रेरणादायक हैं।
प्रश्न 3:- उदारवादी और उग्रवादी नेताओं की नीतियों और कार्यक्रमों की तुलना करें। दोनों विचारधाराओं में प्रमुख अंतर क्या थे और किस प्रकार की रणनीतियों का प्रयोग किया गया?
उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का प्रारंभिक चरण मुख्यतः उदारवादी नेताओं के प्रभुत्व में रहा, जिनकी नीतियाँ शांतिपूर्ण और सुधारवादी थीं। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, ब्रिटिश सरकार की उदासीनता और भारतीयों की माँगों की अनदेखी के कारण आंदोलन का एक नया चरण उभरा, जिसमें उग्रवादी नेताओं ने नेतृत्व संभाला। दोनों विचारधाराओं के बीच नीतियों, कार्यप्रणाली, और उद्देश्यों में स्पष्ट भिन्नताएँ थीं। जहाँ उदारवादी नेता संविधान और संवाद के माध्यम से सुधार चाहते थे, वहीं उग्रवादी नेता संघर्ष और विरोध को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते थे। इस लेख में हम उदारवादी और उग्रवादी विचारधाराओं की तुलना करेंगे और उनके नीतिगत और कार्यनीतिक अंतर का विस्तार से विश्लेषण करेंगे।
1. उदारवादी नेताओं की नीतियाँ और कार्यक्रम
उदारवादी नेता 1885 से लेकर 1905 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेतृत्व में रहे। उनकी नीतियाँ और कार्यक्रम ब्रिटिश सरकार से शांतिपूर्ण तरीके से सुधारों की माँग करने पर आधारित थे।
नीतियाँ और विचारधारा:
प्रमुख कार्यक्रम:
प्रमुख नेता:
रणनीतियाँ:
2. उग्रवादी नेताओं की नीतियाँ और कार्यक्रम
1905 के बाद भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का एक नया चरण प्रारंभ हुआ, जिसे उग्रवादी नेताओं ने संचालित किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की उपेक्षा और उदारवादियों की नरम नीतियों से निराश होकर आक्रामक रणनीतियाँ अपनाईं।
नीतियाँ और विचारधारा:
प्रमुख कार्यक्रम:
प्रमुख नेता:
रणनीतियाँ:
3. उदारवादी और उग्रवादी नीतियों में प्रमुख अंतर
पहलू |
उदारवादी नेता |
उग्रवादी नेता |
लक्ष्य |
प्रशासनिक सुधार और भारतीयों के अधिकारों की प्राप्ति |
पूर्ण स्वतंत्रता (स्वराज) की माँग |
ब्रिटिश शासन के प्रति दृष्टिकोण |
सहयोगात्मक और विश्वासपूर्ण |
विरोधात्मक और अविश्वासी |
रणनीति |
याचिका और प्रार्थनापत्र के माध्यम से सुधार की माँग |
विरोध प्रदर्शन, स्वदेशी, बहिष्कार आंदोलन |
आंदोलन का तरीका |
शांतिपूर्ण और संवैधानिक |
आक्रामक और जनांदोलन आधारित |
जनसमर्थन |
मुख्यतः शिक्षित वर्ग तक सीमित |
व्यापक जनसमर्थन, विशेषकर युवा और ग्रामीण वर्ग |
प्रमुख नारे |
प्रशासनिक सुधारों की माँग |
“स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” |
4. दोनों विचारधाराओं की सफलता और सीमाएँ
उदारवादियों की सफलता और सीमाएँ:
उग्रवादियों की सफलता और सीमाएँ:
5. दोनों विचारधाराओं का समन्वय और प्रभाव
हालाँकि उदारवादी और उग्रवादी नेताओं के बीच रणनीतिक मतभेद थे, लेकिन दोनों विचारधाराओं ने मिलकर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत किया। उदारवादियों ने आंदोलन के लिए आधार तैयार किया, जबकि उग्रवादियों ने उसे जनांदोलन में परिवर्तित किया। 1916 में लखनऊ समझौते के तहत दोनों गुटों ने फिर से एकजुट होकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को गति दी।
निष्कर्ष
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उदारवादी और उग्रवादी दोनों नेताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा। दोनों विचारधाराओं ने अपने-अपने तरीके से स्वतंत्रता की ओर देश को अग्रसर किया। उदारवादी नेताओं ने प्रशासनिक सुधारों की माँग कर राजनीतिक चेतना का प्रसार किया, जबकि उग्रवादी नेताओं ने जनता को संगठित कर स्वतंत्रता संग्राम को एक जनांदोलन का रूप दिया।
हालाँकि उनकी रणनीतियों और नीतियों में मतभेद थे, लेकिन दोनों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के उद्देश्य को मजबूत किया। अंततः, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया, जिन्होंने दोनों विचारधाराओं के तत्वों को मिलाकर अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत पर स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी।
प्रश्न 4:- उग्रवादी आंदोलन के विकास के प्रमुख चरणों का वर्णन करें। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इस चरण की क्या भूमिका थी और इसने जनमानस को किस प्रकार प्रेरित किया?
उत्तर:- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का उग्रवादी चरण 1905 से 1920 के बीच तेजी से विकसित हुआ। यह चरण उन राष्ट्रवादियों द्वारा संचालित था जो ब्रिटिश शासन के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण से असंतुष्ट थे। ये नेता अहिंसा और याचिकाओं के बजाय प्रत्यक्ष कार्रवाई और उग्र नीतियों के पक्षधर थे। उनके विचार में ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के लिए केवल संवैधानिक सुधार पर्याप्त नहीं थे; बलिदान, संघर्ष, और सक्रिय विरोध आवश्यक था। इस उग्रवादी आंदोलन ने भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता के लिए एक नई ऊर्जा और जोश भरा, जिससे लोगों में जागरूकता और ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष की भावना पनपी।
उग्रवादी आंदोलन के विकास के प्रमुख चरण
1. उदारवादी आंदोलन से असंतोष का जन्म (1905-1907)
1905 के बंगाल विभाजन ने पूरे देश में व्यापक असंतोष को जन्म दिया। ब्रिटिश सरकार ने बंगाल को दो हिस्सों में विभाजित करके हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच विभाजन की नीति अपनाई, जिससे राष्ट्रवादी नेताओं में आक्रोश फैल गया। उदारवादी नेताओं की शांतिपूर्ण विरोध नीति, जिसमें प्रार्थना और याचिकाएं शामिल थीं, इस मुद्दे को हल करने में विफल रही। इसका परिणाम यह हुआ कि युवा नेता, जैसे बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, और लाला लाजपत राय, ने एक नए संघर्ष की रूपरेखा तैयार की, जिसमें अधिक आक्रामक तरीके अपनाने की वकालत की गई।
2. स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन (1905-1910)
उग्रवादी आंदोलन का पहला प्रमुख चरण स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलनों से जुड़ा हुआ था। बंगाल विभाजन के विरोध में राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग का आह्वान किया। इस आंदोलन ने लोगों को आत्मनिर्भरता का महत्व सिखाया और ब्रिटिश सामानों का व्यापक स्तर पर बहिष्कार किया गया। बाजारों में विदेशी कपड़े जलाए गए, और लोगों ने स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा दिया। स्वदेशी आंदोलन ने उग्रवादियों की विचारधारा को मजबूत किया और लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लेने के लिए प्रेरित किया।
3. बाल गंगाधर तिलक और जन-जागरण (1908-1914)
बाल गंगाधर तिलक ने उग्रवादी आंदोलन को संगठित रूप से आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने लोगों में आत्मसम्मान और संघर्ष की भावना को जागृत करने के लिए “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा” का नारा दिया। तिलक ने गणेश उत्सव और शिवाजी महोत्सव जैसे त्योहारों को एक राजनीतिक मंच में बदल दिया, ताकि अधिक से अधिक लोग एकजुट होकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग ले सकें। उनकी लेखनी और भाषणों ने युवाओं को उकसाया और उनमें क्रांतिकारी भावना का संचार किया।
4. गोपनीय क्रांतिकारी संगठन और सशस्त्र विद्रोह (1910-1915)
इस चरण में कई गुप्त क्रांतिकारी संगठनों का उदय हुआ। इनमें प्रमुख थे अनुशीलन समिति और गदर पार्टी, जो सशस्त्र क्रांति के माध्यम से ब्रिटिश शासन को समाप्त करना चाहती थीं। इन संगठनों ने बम हमले, राजनीतिक हत्याएं, और सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले करके ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी।
5. प्रथम विश्व युद्ध और उग्रवाद का विस्तार (1914-1918)
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार कमजोर हो गई, जिससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उग्रवादी चरण को बढ़ावा मिला। कई क्रांतिकारी संगठनों ने इस अवसर का लाभ उठाने की कोशिश की। इस दौरान, रासबिहारी बोस और भगत सिंह के गुरु लाला हरदयाल जैसे नेता उग्रवादी आंदोलन के प्रतीक बने। भारत के विभिन्न हिस्सों में विद्रोह और बगावत की घटनाएं बढ़ गईं, हालांकि ब्रिटिश सरकार ने कठोर दमन का सहारा लेकर इन्हें नियंत्रित करने की कोशिश की।
6. होम रूल आंदोलन और तिलक की वापसी (1916-1920)
बाल गंगाधर तिलक ने होम रूल लीग की स्थापना की, जो स्वशासन की मांग को लेकर एक उग्रवादी संगठन था। तिलक और एनी बेसेंट ने मिलकर इस आंदोलन को पूरे देश में फैलाया, जिससे जनता में स्वराज की मांग जोर पकड़ने लगी। इस आंदोलन ने अंग्रेजों को यह अहसास दिला दिया कि भारतीय जनता अब केवल सुधारों से संतुष्ट नहीं होगी; वे पूर्ण स्वशासन की मांग कर रही हैं। होम रूल आंदोलन ने उग्रवादी राष्ट्रवादियों के विचारों को एक वैचारिक और राजनीतिक आधार प्रदान किया।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उग्रवादी चरण की भूमिका
उग्रवादी आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसने ब्रिटिश शासन के प्रति जनता में विरोध की भावना को मजबूत किया और आंदोलन को अधिक आक्रामक दिशा में ले गया। इसके माध्यम से कई सामान्य लोग और युवा वर्ग स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए। जहां एक ओर उदारवादी नेता केवल प्रशासनिक सुधारों की बात कर रहे थे, वहीं उग्रवादी नेताओं ने स्वतंत्रता को अपना अंतिम लक्ष्य घोषित किया।
उग्रवादियों ने स्वदेशी आंदोलन के माध्यम से जनता को आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया, जिसने भारतीय उद्योगों को बढ़ावा दिया। इसके साथ ही, गुप्त क्रांतिकारी संगठनों ने युवाओं में साहस और संघर्ष की भावना पैदा की, जो बाद में भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों में परिलक्षित हुई। इस चरण ने भारतीय जनता को यह समझने पर मजबूर किया कि स्वतंत्रता केवल सुधारों से संभव नहीं होगी; इसके लिए संघर्ष और बलिदान आवश्यक है।
जनमानस पर उग्रवादी आंदोलन का प्रभाव
निष्कर्ष
उग्रवादी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण चरण था जिसने जनता में स्वतंत्रता के प्रति दृढ़ इच्छाशक्ति और संघर्ष की भावना का विकास किया। इस चरण ने यह स्पष्ट कर दिया कि केवल याचिकाओं और सुधारों से स्वतंत्रता संभव नहीं होगी, बल्कि इसके लिए सक्रिय संघर्ष की आवश्यकता है। उग्रवादी आंदोलन ने भविष्य के आंदोलनों के लिए मार्ग प्रशस्त किया और भारतीय जनमानस को यह सिखाया कि स्वराज किसी वरदान के रूप में नहीं मिलेगा, बल्कि इसे संघर्ष और बलिदान से प्राप्त करना होगा।
प्रश्न 5:- 1905 के बंगाल विभाजन ने उग्रवादी आंदोलन के विकास में किस प्रकार योगदान दिया? इस घटना के परिणामस्वरूप उग्रवादियों की रणनीतियों में किस प्रकार के परिवर्तन आए?
उत्तर:- बंगाल विभाजन (1905) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी। इसने भारतीय समाज में राष्ट्रीय चेतना को बढ़ावा दिया और भारतीय राष्ट्रवाद के उग्रवादी चरण की नींव रखी। विभाजन के पीछे ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य हिंदुओं और मुसलमानों के बीच फूट डालना और बंगाल के शक्तिशाली राजनीतिक आंदोलन को कमजोर करना था। लेकिन इस विभाजन ने भारतीय जनता में व्यापक असंतोष पैदा कर दिया और उग्रवादी राष्ट्रवादियों को संगठित होने का अवसर दिया। इस घटना के बाद, आंदोलन ने अपनी दिशा बदली और अहिंसात्मक विरोध के साथ-साथ उग्रवादी रणनीतियों का भी विकास हुआ।
बंगाल विभाजन और इसके कारण
बंगाल का विभाजन 16 अक्टूबर 1905 को तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन द्वारा किया गया। उन्होंने प्रशासनिक सुविधा का तर्क देते हुए बंगाल को दो हिस्सों में बांट दिया:
हालांकि, यह विभाजन केवल प्रशासनिक कारणों से नहीं था, बल्कि अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो” नीति का हिस्सा था। अंग्रेज चाहते थे कि हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक विभाजन हो, जिससे भारतीय राष्ट्रवाद कमजोर हो सके।
बंगाल विभाजन का विरोध और उग्रवादी आंदोलन का विकास
बंगाल विभाजन के बाद पूरे देश में विरोध की लहर उठी। प्रारंभ में, उदारवादी नेताओं ने ब्रिटिश सरकार से विभाजन रद्द करने की अपील की। उन्होंने याचिकाएं, प्रार्थनाएं और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन किए, लेकिन अंग्रेजों ने उनकी मांगों को अनसुना कर दिया। इससे युवा और उग्र राष्ट्रवादियों को यह अहसास हुआ कि ब्रिटिश सरकार केवल संवैधानिक तरीकों से नहीं झुकेगी। इस प्रकार, 1905 के बाद से उग्रवादी आंदोलन का उदय हुआ।
उग्रवादी नेताओं, जैसे बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, और बिपिन चंद्र पाल ने बंगाल विभाजन के विरोध को एक व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन में बदल दिया। उन्होंने लोगों को आत्मनिर्भर बनने, विदेशी सामान का बहिष्कार करने और ब्रिटिश शासन का खुला विरोध करने के लिए प्रेरित किया।
उग्रवादियों की रणनीतियों में परिवर्तन
बंगाल विभाजन के बाद, उग्रवादियों ने अपनी रणनीतियों में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। इन रणनीतियों ने आंदोलन को नई दिशा दी और राष्ट्रवादी आंदोलन को और अधिक आक्रामक बना दिया।
1. स्वदेशी आंदोलन का आरंभ
बंगाल विभाजन के विरोध में उग्रवादी नेताओं ने स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार और स्वदेशी उत्पादों का उपयोग करना था। पूरे देश में ब्रिटिश कपड़ों और वस्त्रों को जलाने के आयोजन हुए। लोगों ने स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए भारतीय वस्त्रों और उत्पादों का प्रयोग शुरू किया। स्वदेशी आंदोलन ने आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान का भाव जाग्रत किया और लोगों में स्वतंत्रता के प्रति आस्था बढ़ाई।
2. बहिष्कार आंदोलन
उग्रवादियों ने ब्रिटिश वस्त्रों और अन्य सामानों के बहिष्कार का आह्वान किया। इस आंदोलन का उद्देश्य न केवल ब्रिटिश व्यापार को आर्थिक नुकसान पहुंचाना था, बल्कि भारतीयों में यह भावना भी उत्पन्न करना था कि वे अपने अधिकारों के लिए ब्रिटिश शासन के विरुद्ध खड़े हो सकते हैं। बहिष्कार आंदोलन ने जनता को यह सिखाया कि वे ब्रिटिश शासन पर अपनी निर्भरता खत्म कर सकते हैं।
3. जन जागरण और संगठनों का निर्माण
बंगाल विभाजन ने उग्रवादियों को संगठित होने का अवसर दिया। बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव और शिवाजी महोत्सव जैसे धार्मिक आयोजनों को एक राजनीतिक मंच में परिवर्तित कर दिया, जिससे बड़ी संख्या में लोग एकत्र होकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने लगे।
4. सशस्त्र संघर्ष की तैयारी
उदारवादी तरीकों की विफलता से निराश होकर उग्रवादियों ने सशस्त्र संघर्ष की रणनीति अपनाई। क्रांतिकारी संगठनों ने बम बनाने और सरकारी अधिकारियों पर हमले की योजना बनाई। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी द्वारा किंग्सफोर्ड की हत्या का प्रयास इसी का उदाहरण है। हालांकि यह प्रयास असफल रहा, लेकिन इसने युवाओं में क्रांति की भावना को प्रज्वलित किया।
5. अखिल भारतीय स्तर पर आंदोलन का विस्तार
बंगाल विभाजन का विरोध केवल बंगाल तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह पूरे भारत में फैल गया। महाराष्ट्र, पंजाब, और उत्तर भारत में भी विरोध प्रदर्शन हुए। तिलक, लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल ने इसे एक अखिल भारतीय आंदोलन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इससे आंदोलन को और अधिक व्यापक जनसमर्थन मिला।
6. विदेशों में समर्थन जुटाना
उग्रवादियों ने विदेशी धरती पर भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ समर्थन जुटाने का प्रयास किया। श्यामजी कृष्ण वर्मा और लाला हरदयाल जैसे नेताओं ने लंदन और पेरिस में भारतीयों के बीच जागरूकता फैलाने के लिए काम किया। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए विदेशों में धन और समर्थन जुटाने का प्रयास किया।
बंगाल विभाजन के परिणाम और जनमानस पर प्रभाव
बंगाल विभाजन और इसके खिलाफ उग्रवादी आंदोलन ने भारतीय समाज और जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला।
1. राष्ट्रीय एकता का विकास
बंगाल विभाजन के विरोध ने हिंदू और मुसलमानों को एकजुट किया, क्योंकि वे दोनों इस विभाजन को अपने हितों के विरुद्ध मानते थे। इससे भारतीयों में राष्ट्रीय एकता और सामूहिक पहचान का विकास हुआ।
2. राजनीतिक चेतना का प्रसार
उग्रवादियों ने लोगों में राजनीतिक जागरूकता फैलाने का काम किया। इस आंदोलन ने गांवों और छोटे शहरों में भी स्वतंत्रता संग्राम की भावना का प्रचार किया।
3. आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की भावना
स्वदेशी आंदोलन ने भारतीयों को आत्मनिर्भरता का महत्व सिखाया। लोगों ने स्थानीय उत्पादों का उपयोग करना शुरू किया, जिससे राष्ट्रीय उद्योगों को बढ़ावा मिला।
4. युवाओं में क्रांतिकारी विचारधारा का प्रसार
बंगाल विभाजन के विरोध से प्रेरित होकर कई युवा क्रांतिकारी संगठनों में शामिल हुए। खुदीराम बोस, भगत सिंह, और चंद्रशेखर आजाद जैसे युवा इस आंदोलन से प्रेरित होकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।
5. अंग्रेजों की दमनकारी नीतियां
बंगाल विभाजन के बाद अंग्रेजों ने आंदोलन को दबाने के लिए कठोर दमनकारी नीतियां अपनाईं। कई नेताओं को गिरफ्तार किया गया और गुप्त संगठनों पर प्रतिबंध लगाया गया। लेकिन इन दमनकारी नीतियों ने भी जनता में संघर्ष की भावना को और प्रबल किया।
निष्कर्ष
1905 के बंगाल विभाजन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और उग्रवादी आंदोलन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस घटना ने भारतीयों को यह समझने पर मजबूर किया कि केवल संवैधानिक और शांतिपूर्ण तरीके से स्वतंत्रता प्राप्त करना संभव नहीं है। इससे उग्रवादी राष्ट्रवादियों का उदय हुआ, जिन्होंने बहिष्कार, स्वदेशी और सशस्त्र संघर्ष की रणनीतियों के माध्यम से ब्रिटिश शासन को चुनौती दी।
इस आंदोलन ने न केवल युवाओं में क्रांतिकारी भावना को जन्म दिया, बल्कि भारतीय समाज में आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान और राष्ट्रीय एकता की भावना को भी बढ़ावा दिया। बंगाल विभाजन ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत की स्वतंत्रता केवल सुधारों से नहीं, बल्कि संघर्ष और बलिदान से प्राप्त होगी।
लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1:- भारत में उग्रवादी या चरमपंथी राष्ट्रवाद का उदय कब और क्यों हुआ?
उत्तर:- भारत में उग्रवादी या चरमपंथी राष्ट्रवाद का उदय 20वीं सदी की शुरुआत में हुआ। यह आंदोलन मुख्य रूप से 1905 के बंगाल विभाजन के विरोध के साथ तेज हुआ। बंगाल विभाजन को ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्जन ने प्रशासनिक कारणों का बहाना देकर लागू किया, लेकिन इसका वास्तविक उद्देश्य “फूट डालो और राज करो” की नीति को बढ़ावा देना था। इस विभाजन से भारतीयों के भीतर अंग्रेजों के प्रति आक्रोश बढ़ा और राष्ट्रीयता की भावना को बल मिला।
उग्रवादी राष्ट्रवाद के विकास के पीछे कई राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कारण थे। नरमपंथी नेताओं की अहिंसात्मक नीतियों से जनता का मोहभंग हो गया था, क्योंकि ब्रिटिश सरकार उनकी मांगों को नजरअंदाज कर रही थी। इसके अलावा, ब्रिटिश शासन की आर्थिक शोषणकारी नीतियों ने भारतीयों की आजीविका को बुरी तरह प्रभावित किया, जिससे किसानों, कारीगरों और व्यापारियों में असंतोष फैला।
बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय जैसे नेताओं ने उग्रवादी राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाया, जो सुधारों के बजाय पूर्ण स्वतंत्रता और ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष की वकालत करता था। इस विचारधारा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी।
प्रश्न 2:- चरमपंथी नेताओं में प्रमुख कौन थे? नाम बताइए।
उत्तर:- भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में चरमपंथी (उग्रवादी) नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आक्रामक और क्रांतिकारी तरीके अपनाए। ये नेता ब्रिटिश शासन के प्रति उदारवादियों के नरम रवैये के विरोधी थे और स्वराज (पूर्ण स्वतंत्रता) की खुलकर मांग करते थे। इन नेताओं का विश्वास था कि केवल संघर्ष और बलिदान के माध्यम से स्वतंत्रता हासिल की जा सकती है। प्रमुख उग्रवादी नेताओं में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, और बिपिन चंद्र पाल का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। इन तीनों को “लाल-बाल-पाल” के नाम से भी जाना जाता है।
1. बाल गंगाधर तिलक: तिलक ने “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूँगा” का नारा दिया, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन को नई ऊर्जा दी। उन्होंने स्वदेशी आंदोलन और विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का नेतृत्व किया।
2. लाला लाजपत राय: पंजाब के प्रमुख नेता लाजपत राय ने साइमन कमीशन के विरोध में हिस्सा लिया, जिसमें पुलिस लाठीचार्ज से वे घायल हुए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई।
3. बिपिन चंद्र पाल: पाल ने स्वदेशी आंदोलन का समर्थन किया और अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से जनता को जागरूक किया।
इन तीनों नेताओं ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दी और जनता में आत्मनिर्भरता और राष्ट्रभक्ति की भावना का प्रसार किया।
प्रश्न 3:- उग्रवादियों की विचारधारा की मुख्य विशेषताएँ क्या थीं?
उत्तर:- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उग्रवादी चरण की शुरुआत 1905 के बंगाल विभाजन के विरोध से मानी जाती है। उग्रवादी नेताओं की विचारधारा ब्रिटिश शासन के प्रति विरोधात्मक थी, और उनका मानना था कि केवल शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीकों से स्वतंत्रता प्राप्त करना संभव नहीं है। उनका उद्देश्य स्वराज (पूर्ण स्वतंत्रता) प्राप्त करना था और इसके लिए उन्होंने जनता को संगठित करने तथा आक्रामक नीतियों को अपनाने पर बल दिया।
उग्रवादी विचारधारा की मुख्य विशेषताएँ:
1. स्वराज की माँग: उग्रवादी नेताओं का स्पष्ट मत था कि भारतीयों को ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्रता चाहिए। उनका नारा था – “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” (बाल गंगाधर तिलक)।
2. स्वदेशी आंदोलन: उन्होंने विदेशी वस्त्रों और उत्पादों के बहिष्कार का आह्वान किया और भारतीय उत्पादों को बढ़ावा देने पर बल दिया।
3. आक्रामक और जनांदोलन आधारित रणनीतियाँ: उग्रवादियों ने प्रदर्शन, बहिष्कार और असहयोग जैसे साधनों का प्रयोग किया।
4. ब्रिटिश शासन पर अविश्वास: उग्रवादी नेता मानते थे कि ब्रिटिश सरकार भारतीयों के हित में कभी काम नहीं करेगी।
5. राष्ट्रीय शिक्षा का समर्थन: उग्रवादियों ने भारतीय शिक्षा संस्थानों की स्थापना की और अंग्रेजी स्कूलों के बहिष्कार का आह्वान किया।
प्रमुख उग्रवादी नेताओं में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, और बिपिन चंद्र पाल का नाम शामिल है। उनकी आक्रामक रणनीतियों ने स्वतंत्रता आंदोलन में जनता को सक्रिय रूप से शामिल किया और ब्रिटिश शासन के प्रति व्यापक असंतोष फैलाने में योगदान दिया।
प्रश्न 4:- उग्रवादी नेताओं ने “स्वराज” की किस प्रकार व्याख्या की?
उत्तर:- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उग्रवादी नेताओं ने “स्वराज” को केवल प्रशासनिक सुधारों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे पूर्ण स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित किया। उनके अनुसार, स्वराज का अर्थ था ब्रिटिश शासन से पूर्ण मुक्ति और भारतीयों का अपनी राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर संपूर्ण नियंत्रण। इन नेताओं का मानना था कि अंग्रेजी शासन के अधीन रहकर भारतीय समाज कभी भी स्वतंत्र रूप से विकसित नहीं हो सकता।
बाल गंगाधर तिलक ने स्वराज को जनमानस तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका प्रसिद्ध नारा “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा” स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरणास्रोत बन गया। तिलक और अन्य उग्रवादी नेताओं का स्वराज केवल प्रशासनिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें आर्थिक स्वतंत्रता, स्वदेशी उत्पादन और राजनीतिक आत्मनिर्भरता शामिल थी।
स्वराज की इस व्याख्या ने जनता में आत्मसम्मान और संघर्ष की भावना को बढ़ावा दिया। लोगों ने स्वदेशी आंदोलन के माध्यम से विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया और स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देकर आर्थिक स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया। इस प्रकार, उग्रवादी नेताओं के स्वराज का अर्थ पूर्ण स्वतंत्रता था, जिसे बलिदान और संघर्ष के माध्यम से प्राप्त किया जाना था।
प्रश्न 5:- “गरम दल” (चरमपंथी) और “नरम दल” (उदारवादी) की नीतियों में मुख्य अंतर क्या था?
उत्तर:- भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दो गुटों में बँट गई—“गरम दल” (चरमपंथी) और “नरम दल” (उदारवादी)। इन दोनों गुटों का उद्देश्य भले ही भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करना था, लेकिन उनकी विचारधारा और नीतियों में बड़ा अंतर था।
इस प्रकार, गरम दल और नरम दल की नीतियों में सबसे बड़ा अंतर उनकी रणनीति और दृष्टिकोण में था। गरम दल का दृष्टिकोण आक्रामक और क्रांतिकारी था, जबकि नरम दल का रवैया सुधारवादी और संवैधानिक मार्ग पर आधारित था।
प्रश्न 6:- बंगाल विभाजन (1905) ने चरमपंथी आंदोलन को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर:- 1905 में लॉर्ड कर्ज़न द्वारा किया गया बंगाल विभाजन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इस विभाजन का उद्देश्य प्रशासनिक सुधार के नाम पर बंगाल को धार्मिक और सांस्कृतिक आधारों पर विभाजित करना था, जिससे हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच फूट डाली जा सके। विभाजन ने भारतीय जनता में आक्रोश उत्पन्न किया और उदारवादी नेताओं की नरम नीतियों से निराश होकर चरमपंथी (उग्रवादी) आंदोलन ने तेज़ी पकड़ी।
चरमपंथी आंदोलन पर विभाजन का प्रभाव:
1. उग्र राष्ट्रवाद का उदय: विभाजन के विरोध में उग्रवादी नेताओं ने आंदोलन का नेतृत्व संभाला। उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वराज (पूर्ण स्वतंत्रता) की माँग उठाई, जिसे अब सिर्फ सुधारों से नहीं, बल्कि संघर्ष से ही हासिल किया जा सकता था।
2. स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन: चरमपंथियों ने विदेशी वस्त्रों और उत्पादों का बहिष्कार किया और स्वदेशी वस्त्रों के उपयोग पर बल दिया, जिससे ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचे।
3. जनभागीदारी और आंदोलन: विभाजन के विरोध में प्रदर्शन, धरने, और रैलियों का आयोजन हुआ, जिसमें युवाओं और किसानों की बड़ी भागीदारी देखी गई। यह आंदोलन बंगाल से अन्य प्रांतों में भी फैल गया।
4. ब्रिटिश शासन पर अविश्वास: विभाजन ने यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटिश सरकार भारतीयों के हितों की उपेक्षा कर रही है, जिससे उग्रवादी नेताओं जैसे बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, और बिपिन चंद्र पाल का समर्थन बढ़ा।
बंगाल विभाजन ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा दी और उग्रवादियों की नीतियों को लोकप्रिय बना दिया, जिससे स्वदेशी और स्वराज के आंदोलन को तेज़ी से बल मिला।
प्रश्न 7:- चरमपंथी नेताओं की प्रमुख रणनीतियाँ और नारे क्या थे?
उत्तर:- चरमपंथी या उग्रवादी नेताओं ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्यक्ष संघर्ष और सक्रिय विरोध की रणनीतियों को अपनाया। वे ब्रिटिश शासन से सुधारों के बजाय पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे। उनकी रणनीतियाँ उदारवादी नेताओं से अलग थीं, जो संवैधानिक तरीकों और याचिकाओं के माध्यम से बदलाव लाने में विश्वास रखते थे। उग्रवादी नेताओं ने स्वदेशी आंदोलन, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा, जन जागरूकता, और सशस्त्र विद्रोह जैसी नीतियों का उपयोग किया।
उनके प्रमुख नारे थे:
इन रणनीतियों और नारों ने भारतीय जनता में स्वतंत्रता के प्रति तीव्र इच्छा और बलिदान की भावना को प्रेरित किया, जिससे आंदोलन और मजबूत हुआ।
प्रश्न 8:- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उग्रवादियों के योगदान का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उग्रवादी नेताओं का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। उन्होंने आंदोलन को एक नया जोश और आक्रामक दिशा प्रदान की, जो केवल सुधारों की माँग तक सीमित नहीं था, बल्कि स्वराज (पूर्ण स्वतंत्रता) प्राप्त करने का संकल्प था। 1905 में बंगाल विभाजन के बाद उग्रवादियों का प्रभाव बढ़ा, क्योंकि लोगों ने ब्रिटिश शासन की नीतियों के प्रति गहरी निराशा और असंतोष महसूस किया।
उग्रवादियों का योगदान:
1. स्वराज की अवधारणा: उग्रवादियों ने ब्रिटिश शासन के अंतर्गत सुधारों के बजाय स्वराज की माँग की। बाल गंगाधर तिलक ने नारा दिया – “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है”, जिसने स्वतंत्रता की माँग को एक नया आयाम दिया।
2. स्वदेशी आंदोलन का नेतृत्व: उग्रवादी नेताओं ने विदेशी वस्त्रों और वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया और स्वदेशी वस्त्रों और उत्पादों के प्रयोग को प्रोत्साहित किया।
3. जनता की सक्रिय भागीदारी: उग्रवादियों ने आम जनता, विशेषकर युवाओं और किसानों को आंदोलन से जोड़ा। उन्होंने रैलियों, धरनों और बहिष्कार आंदोलनों का आयोजन किया, जिससे स्वतंत्रता आंदोलन में व्यापक जनसमर्थन मिला।
4. राष्ट्रीय शिक्षा का प्रसार: अंग्रेजी शिक्षा का बहिष्कार करते हुए उग्रवादियों ने भारतीय शिक्षा संस्थानों की स्थापना का समर्थन किया, ताकि स्वतंत्रता संग्राम के लिए शिक्षित और जागरूक नागरिक तैयार किए जा सकें।
5. ब्रिटिश शासन के प्रति अविश्वास: उग्रवादी नेताओं ने ब्रिटिश सरकार की नीतियों का कड़ा विरोध किया और स्पष्ट किया कि स्वतंत्रता केवल संघर्ष और बलिदान से प्राप्त की जा सकती है।
प्रमुख उग्रवादी नेताओं में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, और बिपिन चंद्र पाल शामिल थे। उनके नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने एक उग्र और जनांदोलन आधारित स्वरूप लिया, जिसने आने वाले वर्षों में आंदोलन को गति प्रदान की।
अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1:- भारत में उग्रवादी (चरमपंथी) आंदोलन का उदय कब हुआ?
उत्तर:- भारत में उग्रवादी आंदोलन का उदय मुख्यतः 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में हुआ। यह विभाजन राष्ट्रीय भावनाओं को जागृत करने वाला था, जिससे युवा राष्ट्रवादी वर्ग ने अधिक सक्रिय और क्रांतिकारी तरीकों को अपनाना शुरू किया। इससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उग्रवादियों की महत्वपूर्ण भूमिका सामने आई।
प्रश्न 2:- उग्रवादी नेताओं की प्रमुख विशेषता क्या थी?
उत्तर:- उग्रवादी नेताओं की प्रमुख विशेषता उनका क्रांतिकारी और असहिष्णु दृष्टिकोण था। वे सीधे ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष और आत्मघाती हमलों को प्रोत्साहित करते थे। इन नेताओं ने राष्ट्रीयता की भावना को जागृत करते हुए हिंसात्मक तरीकों का सहारा लिया, जिससे स्वतंत्रता प्राप्ति की राह में तेजी आई।
प्रश्न 3:- बाल गंगाधर तिलक को उग्रवादी नेता क्यों माना जाता है?
उत्तर:- बाल गंगाधर तिलक को उग्रवादी नेता इसलिए माना जाता है क्योंकि उन्होंने सक्रिय और क्रांतिकारी तरीकों से ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष किया। तिलक ने “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” का नारा देकर जनता में आत्मगौरव जगाया और उनके नेतृत्व में भारत में राष्ट्रवादी आंदोलन में उग्रवादी प्रवृत्ति को बल मिला।
प्रश्न 4:- उग्रवादियों ने ब्रिटिश सरकार के विरोध में कौन-कौन से आंदोलन चलाए?
उत्तर:- उग्रवादियों ने ब्रिटिश सरकार के विरोध में कई महत्वपूर्ण आंदोलन चलाए, जैसे असहयोग आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, और बाल गंगाधर तिलक का लोहित कलम आंदोलन। इसके अलावा उन्होंने सशस्त्र संघर्ष, विरोध प्रदर्शन और राजनीतिक सजगता को बढ़ावा देकर ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ मजबूती से लड़ाई लड़ी।
प्रश्न 5:- उग्रवादी नेताओं का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर:- उग्रवादी नेताओं का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश शासन से तत्काल और सशक्त स्वतंत्रता प्राप्त करना था। वे भारत में आत्मनिर्भरता, राष्ट्रीय एकता और स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देना चाहते थे। इसके अलावा, उन्होंने सामाजिक सुधारों और भारतीय संस्कृति के पुनरुद्धार पर भी जोर दिया।
प्रश्न 6:- उग्रवादी आंदोलन के तीन प्रमुख नेताओं के नाम बताइए।
उत्तर:- उग्रवादी आंदोलन के तीन प्रमुख नेताओं में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल प्रमुख हैं। इन नेताओं ने अपने क्रांतिकारी विचारों और सक्रिय प्रयासों से भारत में राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ किया और स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
प्रश्न 7:- उग्रवादियों और उदारवादियों की नीतियों में क्या अंतर था?
उत्तर:- उग्रवादियों और उदारवादियों की नीतियों में मुख्य अंतर उनके संघर्ष के तरीकों में था। उग्रवादी हिंसात्मक और क्रांतिकारी उपायों को अपनाते थे, जबकि उदारवादी शांतिपूर्ण और कानूनी तरीकों से स्वतंत्रता की मांग करते थे। उग्रवादियों ने सशस्त्र संघर्ष को महत्व दिया, वहीं उदारवादियों ने बातचीत और सत्तावादी सुधारों पर जोर दिया।
प्रश्न 8:- स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन का उग्रवादी आंदोलन में क्या महत्व था?
उत्तर:- स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन ने उग्रवादी आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन आंदोलनों ने भारतीयों को विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने और स्वदेशी उत्पादों को अपनाने के लिए प्रेरित किया। इससे राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिला और ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध मजबूत हुआ।
प्रश्न 9:- उग्रवादी नेताओं ने जनजागरण के लिए कौन से माध्यम अपनाए?
उत्तर:- उग्रवादी नेताओं ने जनजागरण के लिए कई माध्यम अपनाए, जैसे अखबार, पत्रिकाएँ, सार्वजनिक सभाएँ, और भाषण। उन्होंने साहित्यिक कार्यों, देशभक्ति गीतों और नाटकों का उपयोग करके जनता में राष्ट्रीय भावना को जगाया। इसके अलावा, वे संगठन और संघों की स्थापना करके भी जनसमूह को एकजुट करने में सफल रहे।
प्रश्न 10:- ब्रिटिश शासन के खिलाफ उग्रवादियों की प्रमुख रणनीतियाँ क्या थीं?
उत्तर:- ब्रिटिश शासन के खिलाफ उग्रवादियों की प्रमुख रणनीतियाँ शामिल थीं सशस्त्र संघर्ष, आत्मघाती हमले, राजनीतिक बंगा, और विरोध प्रदर्शन। उन्होंने क्रांतिकारी संगठनों की स्थापना की, ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला किया, और सामूहिक आंदोलनों के माध्यम से शासन के खिलाफ दबाव बनाया। इसके अलावा, उन्होंने राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत करने पर भी जोर दिया।
प्रश्न 11:- बंगाल विभाजन ने उग्रवादी आंदोलन को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर:- बंगाल विभाजन ने उग्रवादी आंदोलन को गहराई से प्रभावित किया। इस विभाजन ने राष्ट्रीय भावना को बढ़ाया और भारतीयों में ब्रिटिश नीतियों के प्रति असंतोष उत्पन्न किया। विभाजन के विरोध में उग्रवादियों ने सक्रिय रूप से संघर्ष किया, जिससे उनकी क्रांतिकारी गतिविधियाँ तेज हुईं और स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण बनी।
प्रश्न 12:- उग्रवादी आंदोलन के उदय के पीछे कौन-कौन से सामाजिक और राजनीतिक कारण थे?
उत्तर:- उग्रवादी आंदोलन के उदय के पीछे कई सामाजिक और राजनीतिक कारण थे। सामाजिक रूप से, अंग्रेजों द्वारा भारतीय समाज में उत्पीड़न और आर्थिक असमानता बढ़ी। राजनीतिक रूप से, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अंदर विचारधाराओं का विभाजन और शांतिपूर्ण आंदोलनों की अपर्याप्तता ने उग्रवादियों को प्रबल किया। इसके अलावा, शिक्षा और जागरूकता में वृद्धि ने युवाओं में क्रांतिकारी सोच को प्रेरित किया।