गांधीजी का आगमन और असहयोग आंदोलन
भूमिका
बीसवीं सदी के आरंभ में भारत में स्वतंत्रता संग्राम एक निर्णायक मोड़ पर था। 1857 की क्रांति के बाद भारतीय समाज में जागरूकता बढ़ी थी, लेकिन स्वराज का सपना अभी भी अधूरा था। 1915 में महात्मा गांधी का भारत आगमन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नए युग की शुरुआत थी। उनके दर्शन, साधन और संघर्ष ने भारतीय राजनीति में एक नई दिशा प्रदान की। असहयोग आंदोलन (1920-22) इसी विचारधारा की पहली बड़ी अभिव्यक्ति थी, जिसने भारत की जनता को एकजुट कर दिया और अंग्रेज़ी शासन को गहरी चुनौती दी।
गांधीजी का आगमन और भारतीय राजनीति में प्रवेश
1. गांधीजी का दक्षिण अफ्रीका में अनुभव और सत्याग्रह
महात्मा गांधी का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश अचानक नहीं हुआ था। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ संघर्ष किया और सत्याग्रह की अवधारणा को विकसित किया।
1893 में, गांधीजी दक्षिण अफ्रीका गए और वहाँ भारतीयों के साथ होने वाले अन्याय को देखा।
1906 में उन्होंने पहला सत्याग्रह आंदोलन चलाया और अहिंसात्मक विरोध का नया रूप प्रस्तुत किया।
दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष के दौरान उन्होंने सत्याग्रह, अहिंसा और आत्मनिर्भरता की रणनीति को परखा और इसे भारत में अपनाने का निश्चय किया।
2. भारत में गांधीजी का आगमन (1915) और प्रारंभिक आंदोलन
गांधीजी 1915 में गोपालकृष्ण गोखले के निमंत्रण पर भारत लौटे और भारतीय समाज की वास्तविक स्थिति को समझने के लिए पूरे देश का दौरा किया।
1917 में उन्होंने चंपारण सत्याग्रह किया, जो ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उनका पहला सफल संघर्ष था।
1918 में खेड़ा सत्याग्रह और अहमदाबाद मिल हड़ताल के माध्यम से उन्होंने किसानों और मजदूरों के अधिकारों की रक्षा की।
इन आंदोलनों से गांधीजी को अपार जनसमर्थन मिला और वे राष्ट्रीय आंदोलन के अग्रणी नेता बन गए।
गांधीजी का दर्शन और असहयोग आंदोलन
1. गांधीजी का राजनीतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण
गांधीजी ने तीन प्रमुख सिद्धांतों पर बल दिया—
सत्य (सच्चाई की खोज और नैतिकता)
अहिंसा (हिंसा का पूरी तरह त्याग)
सत्याग्रह (अन्याय के खिलाफ अहिंसात्मक प्रतिरोध)
इन सिद्धांतों को अपनाते हुए उन्होंने एक जनआधारित आंदोलन की कल्पना की जिसमें सभी वर्गों की भागीदारी हो।
2. असहयोग आंदोलन की पृष्ठभूमि
1919 में रॉलेट एक्ट और जलियांवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल 1919) ने भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति भारी आक्रोश भर दिया। 1920 में तुर्की में खिलाफत के मुद्दे पर भी भारतीय मुसलमान नाराज थे।
इन सभी घटनाओं के बाद गांधीजी ने अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन का आह्वान किया।
असहयोग आंदोलन (1920-1922)
1. उद्देश्य
ब्रिटिश शासन के साथ सहयोग समाप्त करना।
स्वदेशी अपनाना और ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार करना।
सरकारी शिक्षण संस्थानों, नौकरियों और उपाधियों का त्याग।
भारतीयों में आत्मनिर्भरता और स्वशासन की भावना विकसित करना।
2. प्रमुख कार्यक्रम
ब्रिटिश सामानों, विशेष रूप से विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार।
सरकारी स्कूलों और कॉलेजों से त्यागपत्र।
सरकारी नौकरियों से इस्तीफा।
ब्रिटिश अदालतों का बहिष्कार और पंचायती न्यायालयों की स्थापना।
राष्ट्रीय विद्यालयों और खादी के उपयोग को बढ़ावा देना।
शराब और अन्य बुराइयों का बहिष्कार।
3. आंदोलन में भागीदारी
किसान, मजदूर, व्यापारी और छात्र बड़ी संख्या में इस आंदोलन से जुड़े।
महिलाओं ने भी पहली बार बड़ी संख्या में स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया।
मौलाना शौकत अली और मौलाना मोहम्मद अली के नेतृत्व में मुस्लिम समुदाय भी इस आंदोलन का हिस्सा बना।
असहयोग आंदोलन का प्रभाव और परिणाम
1. आंदोलन की सफलता
पहली बार, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जनसाधारण की इतनी बड़ी भागीदारी हुई।
ब्रिटिश शासन आर्थिक रूप से कमजोर हुआ, क्योंकि स्वदेशी आंदोलन से उनकी अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ।
ब्रिटिश न्यायालयों और स्कूलों का बहिष्कार किया गया, जिससे सरकार पर दबाव पड़ा।
खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन ने हिंदू-मुस्लिम एकता को मज़बूत किया।
2. आंदोलन की समाप्ति
फरवरी 1922 में, उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा में हिंसा भड़क उठी, जिसमें 22 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी गई।
गांधीजी हिंसा के विरोधी थे, इसलिए उन्होंने असहयोग आंदोलन को तुरंत वापस लेने का निर्णय लिया।
कई नेताओं को इस फैसले से निराशा हुई, लेकिन गांधीजी ने अहिंसा को सर्वोपरि रखा।
गांधीजी के आंदोलन की आलोचना और आगे की रणनीति
1. आलोचना
कई राष्ट्रवादी नेताओं, जैसे सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू, ने आंदोलन की समाप्ति को गलत बताया।
कुछ नेताओं ने इसे आधी लड़ाई छोड़ने जैसा माना।
ब्रिटिश सरकार को इस आंदोलन के बाद राहत मिली और दमन नीति अपनाई गई।
2. आगे की रणनीति
गांधीजी ने इसके बाद रचनात्मक कार्यों पर ध्यान दिया, जैसे कि हरिजन सुधार, खादी का प्रचार, और ग्राम सुधार।
1930 में नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में गांधीजी ने नया संघर्ष शुरू किया।
सुभाष चंद्र बोस और स्वतंत्रता संग्राम
1. सुभाष चंद्र बोस की भूमिका
गांधीजी के अहिंसक संघर्ष से असंतुष्ट होकर, नेताजी सशस्त्र संघर्ष के पक्षधर बने।
1939 में उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने जापान और जर्मनी का सहयोग लिया और आजाद हिंद फौज का गठन किया।
1943 में उन्होंने “दिल्ली चलो” का नारा दिया और भारतीय सेना को प्रेरित किया।
2. सुभाष चंद्र बोस बनाम गांधीजी
जहां गांधीजी अहिंसा के समर्थक थे, वहीं बोस का मानना था कि स्वतंत्रता के लिए हिंसक संघर्ष आवश्यक है।
दोनों के विचार भिन्न थे, लेकिन दोनों का लक्ष्य एक ही था—भारत की स्वतंत्रता।
निष्कर्ष
गांधीजी का आगमन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक मोड़ था। उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से जन-आंदोलन को संगठित किया। असहयोग आंदोलन ने स्वतंत्रता संग्राम को जनांदोलन में परिवर्तित कर दिया। हालांकि आंदोलन को हिंसा के कारण वापस लेना पड़ा, लेकिन इसने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की क्रांतिकारी भूमिका भी इस संघर्ष का अहम हिस्सा बनी, जिससे भारत की आजादी की लड़ाई और तेज़ हो गई।